गौतम को पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ा क्योंकि वे जिस पार्टी में हैं वह सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। ‘आप’ के सर्वेसर्वा केजरीवाल ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ में अत्यंत सक्रिय थे। यह संस्था आदिवासियों, दलितों और ओबीसी के लिए आरक्षण का विरोध करती थी।
दिल्ली की ‘आप’ सरकार में मंत्री राजेन्द्र पाल गौतम से हाल में इस्तीफा ले लिया गया। उन्होंने 5 अक्टूबर (अशोक विजयादशमी दिवस) को दिल्ली में आयोजित बौद्ध धर्म दीक्षा समारोह में हिस्सा लिया था। इस कार्यक्रम में लगभग दस हजार दलितों ने हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अंगीकार किया। सन् 1956 में डॉ. बी. आर. अम्बेडकर द्वारा आयोजित इसी तरह के समारोह में जो 22 प्रतिज्ञाएं ली गईं थीं उन्हें इस कार्यक्रम में दोहराया गया। इन प्रतिज्ञाओं में हिन्दू देवी-देवताओं (ब्रम्हा, विष्णु, महेश और गौरी) की पूजा न करने के अतिरिक्त मानवतावादी मूल्य अपनाने, किसी के साथ भेदभाव न करने, ईमानदारी से जीवन बिताने, सत्य बोलने और हिंसा न करने की शपथ शामिल है।
इसके बाद बीजेपी के कुछ कार्यकर्ता गौतम के घर के बाहर इकट्ठा हुए। उन्होंने गौतम के खिलाफ नारेबाजी की और राम के चित्र वाला एक भगवा झंडा वहां फहराया। सोशल मीडिया और गोदी मीडिया ने इस मुद्दे को लपक लिया। जोर-जोर से यह कहा जाने लगा कि गौतम ने हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान किया है। जल्दी ही गुजरात, जहां चुनाव होने वाले हैं, में इस आशय के पोस्टर लग गए कि केजरीवाल हिन्दू-विरोधी हैं। केजरीवाल ने तुरंत स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उनका जन्म कृष्ण जन्माष्टमी को हुआ था और यह कि वे पक्के हिन्दू हैं। उन्होंने गौतम द्वारा 22 प्रतिज्ञाएं लिए जाने पर नाराजगी भी जताई।
इस बीच दिल्ली बीजेपी अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने गौतम के खिलाफ पुलिस में मामले दर्ज करवा दिए। इसके बाद गौतम ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस कार्यक्रम में जो प्रतिज्ञाएं ली गईं वे ठीक वही थीं जो अम्बेडकर ने अपने लगभग तीन लाख अनुयायियों को दिलवाईं थीं। इन प्रतिज्ञाओं का जिक्र उनके लेखन में भी है। यह सही है कि इन प्रतिज्ञाओं में हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा न करने की बात कही गई है परंतु इनमें हिन्दू भगवानों की निंदा अथवा अपमान नहीं किया गया है।
संघ परिवार की रणनीति अत्यंत जटिल है। इस घटनाक्रम से यह भी पता चलता है कि केजरीवाल और बीजेपी दोनों अम्बेडकर की शान में जो बातें कहते हैं वे कितनी खोखली हैं। आरएसएस अम्बेडकर को प्रातः स्मरणीय बताता है। यह संघ द्वारा किसी को भी दी जाने वाली उच्चतम उपाधि है। मोदी सहित आरएसएस के कई वरिष्ठ नेता समय-समय पर अम्बेडकर की जयंती और पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रमों में भाग लेते रहे हैं। मोदी यह भी कह चुके हैं कि अम्बेडकर द्वारा किए गए संघर्ष के कारण ही वे अपने जीवन में इस मुकाम तक पहुंच पाए हैं।
आरएसएस के साथ-साथ हिन्दू महासभा भी हिन्दू राष्ट्र की समर्थक और प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष भारत की विरोधी थी। आरएसएस की विचारधारा मुस्लिम लीग के समान परंतु उलट थी। जहां मुस्लिम लीग, मुस्लिम राष्ट्र की बात करती थी, वहीं आरएसएस हिन्दू राष्ट्र के गीत गाता था।
अम्बेडकर धर्म-आधारित राष्ट्रवाद की इन दोनों परिकल्पनाओं को एक जैसा मानते थे। वे इन्हें आधुनिक भारत के लिए अनुपयुक्त बल्कि खतरनाक मानते थे। उनका जोर सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष राज्य पर था। पाकिस्तान पर अपनी पुस्तक के दूसरे संस्करण में उन्होंने पाकिस्तान की मांग का इस आधार पर विरोध किया था कि इससे हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की राह खुल जाएगी, जो दलितों और आदिवासियों के लिए एक बहुत बड़ी आपदा होगी।
जिस संविधान का मसविदा अम्बेडकर ने तैयार किया था आरएसएस उसके खिलाफ था। संघ का कहना था कि यह संविधान पश्चिम से उधार लिया गया है और इसको बनाते समय भारतीय धर्मग्रंथों में वर्णित महान मूल्यों को नजरअंदाज किया गया है।
जाति का मसला अत्यंत जटिल है। जाति का उन्मूलन अम्बेडकर के मूलभूत लक्ष्यों में शामिल था। आरक्षण की व्यवस्था इसलिए लागू की गई थी ताकि इस सकारात्मक भेदभाव से जाति के उन्मूलन में मदद मिले। आरक्षण के विरोध में गुजरात में 1981 में दलित विरोधी और फिर 1986 में ओबीसी विरोधी दंगे हुए थे।
संघ परिवार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू किए जाने की प्रतिक्रिया में राममंदिर का मुद्दा खड़ा कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी ने इस रणनीति का अत्यंत सारगर्भित वर्णन करते हुए कहा था कि ‘‘वे मंडल लाए तो हमें कमंडल लाना पड़ा”।
बात यहीं खत्म नहीं हुई। संघ कई मुखौटों वाला अत्यंत सक्रिय और समृद्ध संगठन है। एक तरफ संघ के नेता अम्बेडकर की मूर्तियों को माला पहना रहे हैं तो दूसरी तरफ उसी संघ के नेता अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं का विरोध कर रहे हैं। दलितों और ओबसी के लिए आरक्षण की सकारात्मक भेदभाव की व्यवस्था को कमजोर करने के लिए संघ की सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण लागू किया गया। सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को बीजेपी के झंडे तले लाने के प्रयास अनवरत चल रहे हैं।
इन वर्गों में अपनी पैठ बनाने के लिए संघ ने कई संगठनों की स्थापना की है। इनमें शामिल हैं दलितों और ओबीसी के लिए सामाजिक समरसता मंच और आदिवासियों के लिए वनवासी कल्याण आश्रम। ये संस्थाएं समाज के इन वर्गों के बीच काम कर रही हैं और उन्हें हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को स्वीकार करने के लिए प्रेरित कर रही हैं। इसके साथ ही बीजेपी ने उप-जातियों के नायकों का महिमामंडन भी प्रारंभ कर दिया है। इसका एक उदाहरण है पासी समुदाय के सुहेल देव। ऐसे कई गुमनाम राजाओं को खोद निकाला गया है और उन्हें मुसलमानों के कट्टर विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
कुछ दलित नेताओं को सत्ता का लालच देकर बीजेपी का समर्थक बना लिया गया है। ऐसे नेताओं में शामिल हैं दिवंगत रामविलास पासवान और रामदास अठावले। इससे भी बीजेपी को आदिवासियों, दलितों और ओबीसी के बीच अपनी जड़ें जमाने में मदद मिल रही है। इसके अलावा पार्टी इन समुदायों के बीच ‘सेवा’ कार्य करकर भी अपनी विचारधारा और राजनीति को बढ़ावा दे रही है।
गौतम को अपने पद से इस्तीफा इसलिए देना पड़ा क्योंकि वे जिस पार्टी में हैं वह सामाजिक न्याय के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। ‘आप’ के सर्वेसर्वा केजरीवाल ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ में अत्यंत सक्रिय थे। यह संस्था आदिवासियों, दलितों और ओबीसी के लिए आरक्षण का विरोध करती थी। केजरीवाल ने ‘आप’ द्वारा शासित प्रदेशों में अम्बेडकर को बहुत महत्व देना शुरू किया है। परंतु इसका उद्धेश्य केवल चुनावी लाभ हासिल करना है। हालिया घटनाक्रम से यह साफ हो गया है कि ‘आप’ की अम्बेडकर के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता शून्य है। संघ परिवार और ‘आप’ दोनों ने यह साबित कर दिया है कि अम्बेडकर की विचारधारा को वे कभी भी त्याग सकते हैं। वे अम्बेडकर की पूजा करेंगे, उनके चित्र सरकारी कार्यालयों में लगाएंगे किंतु अम्बेडकर जिन मूल्यों के लिए जाने जाते हैं उन पर हमला करने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
source: नवजीवन