ग्रामीणों को 100 दिन रोज़गार उपलब्ध कराने के दावों और वादों के साथ चलाई जा रही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना को लागू हुए चार वर्ष हो गए हैं, किंतु पलायन रुकने का नाम नहीं ले रहा है. ग्रामीणों को रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए केंद्र और राज्य सरकार की ओर से पैसा तो मिल रहा है, बावजूद इसके छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों से रोज़गार की तलाश में लोगों का पलायन जारी है. मुख्यमंत्री के गृह ज़िले में रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गांव-गांव में तालाब गहरीकरण, भूमि समतलीकरण, मेंढ़ बंधान, डैम एवं सड़क निर्माण आदि कार्य कराए जा रहे हैं. चाहे वह ज़िला मुख्यालय के क़रीब के गांव हों या सुदूर वनांचल, काम उपलब्ध कराने का मक़सद यही है कि लोग काम की तलाश में घर-परिवार और गांव छोड़कर न जाएं, लेकिन करोड़ों रुपये ख़र्च होने के बाद भी यह योजना लोगों को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पा रही है. मुख्यमंत्री के गृह ज़िले कबीरधाम में आज भी राजनांदगांव ज़िले से श्रम विभाग संचालित हो रहा है. ज़िले में श्रम विभाग के अधिकारी कहां पाए जाते हैं, यह किसी को नहीं पता. ऐसा लगता है, मानो श्रम विभाग को श्रमिकों के हितों से कोई लेना-देना नहीं रह गया है.
दुर्ग, रायपुर एवं बिलासपुर रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर दीगर राज्यों की ओर जाने वालों की भीड़ सहज ही दिख जाती है. यहां के ज़्यादातर लोग रोज़गार की तलाश में लखनऊ, दिल्ली, सूरत एवं हरियाणा जाते हैं.
दुर्ग, रायपुर एवं बिलासपुर रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर दीगर राज्यों की ओर जाने वालों की भीड़ सहज ही दिख जाती है. यहां के ज्यादातर लोग रोजगार की तलाश में लखनऊ, दिल्ली, सूरत एवं हरियाणा जाते हैं. अंतर्राज्यीय प्रवासी कर्मचारी अधिनियम 1979 के अंतर्गत राज्य से बाहर अन्य राज्यों में नियोजन के उद्देश्य से किसी ठेकेदार द्वारा पांच या इससे अधिक श्रमिक ले जाने के लिए श्रम कार्यालय की अनुमति आवश्यक है, परंतु सारे नियम-कायदों को ताक पर रख दिया गया है. मनरेगा के अंतर्गत काम न मिलने की दशा में बेरोज़गारी भत्ता दिए जाने का प्रावधान है, किंतु ज़िले में आज तक किसी को बेरोजगारी भत्ता नहीं मिला, क्योंकि किसी ने काम की मांग ही नहीं की. योजना के तहत पंजीकृत परिवार के सदस्यों को ग्राम या जनपद पंचायत में काम के लिए आवेदन करना पड़ता है, उसी आधार पर कार्यवाही करके काम उपलब्ध कराया जाता है. संबंधित ग्राम पंचायत में काम न होने की दशा में समीपस्थ ग्राम पंचायत में काम उपलब्ध कराया जाता है.
ज़िला पंचायत से मिली जानकारी के अनुसार, इस सत्र में जिले को 9003.937 लाख रुपये प्राप्त हुए, जिसमें केंद्र की ओर से 8103.54 लाख और राज्य की ओर से 900.397 लाख रुपये मिले. 1,41,475 पंजीकृत परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए अब तक लगभग 8429.5 लाख रुपये ख़र्च हो चुके हैं. सिर्फ मजदूरी भुगतान के रूप में ही लगभग 5055.725 लाख रुपये ख़र्च किए गए. 13,312 परिवारों को 100 दिनों का रोज़गार उपलब्ध कराया गया, जबकि 47,535 परिवारों द्वारा रोज़गार की मांग नहीं की गई. योजना के तहत विकलांगों को भी रोज़गार उपलब्ध कराया गया. ज़िला पंचायत की मानें तो हज़ारों परिवारों को रोज़गार मिल रहा है. लोगों का कहना है कि इस योजना में सिर्फ 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी है, बाक़ी के 265 दिन खाली तो नहीं बैठा जा सकता? यही पलायन की वजह है. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मनरेगा की हालत और भी खस्ता है. यहां अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानी चरम पर है.
ज़िला पंचायत से मिली जानकारी के अनुसार, इस सत्र में जिले को 9003.937 लाख रुपये प्राप्त हुए, जिसमें केंद्र की ओर से 8103.54 लाख और राज्य की ओर से 900.397 लाख रुपये मिले. 1,41,475 पंजीकृत परिवारों को रोज़गार उपलब्ध कराने के लिए अब तक लगभग 8429.5 लाख रुपये ख़र्च हो चुके हैं. स़िर्फ मजदूरी भुगतान के रूप में ही लगभग 5055.725 लाख रुपये ख़र्च किए गए.
सरकार इस योजना की सफलता के लाख दावे करे, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है. योजना का लाभ पात्रों को मिल सके, सरकार ने इसकी कोई व्यवस्था नहीं की है. योजना के तहत जिन नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में विकास के नाम पर करोड़ों रुपये ख़र्च किए जा रहे हैं, वहां स्थिति यह है कि काम में लगे मजदूरों को महीनों से उनका मेहनताना नहीं मिला है. यही नहीं, 14-15 साल के स्कूली बच्चों से भी काम कराया जा रहा है, जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि उन्हें मजदूरी कितनी मिलेगी. अंतागढ़ विकास खंड अंतर्गत गांव कढ़ईखोदरा में एनीकट निर्माण कार्य के लिए सरकार द्वारा रोज़गार गारंटी योजना के तहत 3 करोड़ 45 लाख रुपये की राशि स्वीकृत की गई है. जब निर्माण कार्य का जायज़ा लिया गया तो पता चला कि वहां निर्माण कार्य करा रही एजेंसी ने महीनों से मजदूरों को भुगतान ही नहीं किया है. बाल मजदूर सावित्री उइके, परमेश्वरी उइके एवं हेमलता नेताम ने बताया कि वे कई माह से काम कर रहे हैं, लेकिन निर्माण एजेंसी के इंजीनियर वीरेंद्र कुमार कोडापी एवं एल एम यादव ने आज तक एक पैसा नहीं दिया और धमकी भी दी कि अगर पैसे की बात की तो उनके घरों का दाना-पानी तक बंद करा दिया जाएगा.
रोज़गार गारंटी योजना का लाभ पात्रों को कितना मिल रहा है, यह देखने के लिए रायपुर में बैठे उच्चाधिकारियों को मौक़े पर जाने की ज़रूरत है. आख़िर कब तक भोले-भाले आदिवासियों के साथ ऐसा अन्याय होता रहेगा और सरकार खामोशी से यह सारा तमाशा देखती रहेगी. बच्चों से जबरन काम कराया जा रहा है, पत्थर ढुलवाए जा रहे हैं, उन्हें मजदूरी भी नहीं दी जा रही है और पैसा मांगने पर उन्हें धमकाया जा रहा है. आख़िर इसके लिए शासन-प्रशासन नहीं, तो कौन ज़िम्मेदार है? स्तरहीन निर्माण कार्य और बालश्रम के बारे में जब जन संसाधन उपसंभाग अंतागढ़ के अनुविभागीय अधिकारी से सवाल किए गए तो उन्होंने बताया कि कई माह से उनके द्वारा क्षेत्र का दौरा नहीं किया गया है, इसलिए इस बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है. वहीं एसडीओ का कहना था कि योजना के तहत 3 करोड़ 45 लाख रुपये के एनीकट निर्माण कार्य की ज़िम्मेदारी उनके विभाग को दी गई है. वह कैसी सामग्री इस्तेमाल करें और किससे काम कराएं, इसमें किसी को हस्तक्षेप करने की कोई ज़रूरत नहीं है. उन्होंने कहा कि उनके विभाग की ओर से किसी को भी निर्माण कार्य के निरीक्षण की अनुमति नहीं है और वह योजना का काम कितने समय में पूरा कराएं, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं है.
एनीकट निर्माण कार्य में लगी महिलाओं ने बताया कि उन्हें 75 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी पर लाया गया है, लेकिन सात दिन हो गए हैं, अभी तक एक पैसा नहीं मिला. जबकि नियमानुसार मनरेगा के तहत काम करने वाले मजदूरों को हर सप्ताह भुगतान हो जाना चाहिए और मजदूरी भी न्यूनतम 100 रुपये होनी चाहिए. पैसा न मिलने से काम में लगे मजदूर परिवारों के सामने भरण-पोषण की समस्या खड़ी हो गई है. वे जब भी भुगतान के लिए एजेंसी के इंजीनियरों से बात करते हैं, कोई न कोई बहाना बताकर उन्हें टरका दिया जाता है. महिलाओं ने यह भी कहा कि पहले नक्सली हमें परेशान करते थे, लेकिन जबसे केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा सुरक्षाबल तैनात कर दिया गया है, तबसे हमारी बहन-बेटियों की इज़्ज़त दांव पर है. सुरक्षाबल के जवानों के चलते उनका घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है. उल्लेखनीय है कि एनीकट निर्माण कार्य के तहत पलस्तर में 5:1 और ढलाई में 1:3:6 के मसाले तथा 8 से 10 एमएम की छड़ का इस्तेमाल होना चाहिए, जबकि निर्माण एजेंसी पलस्तर में 10:1 और ढलाई में 1:6:10 के मसाले तथा 6 एमएम की छड़ों का इस्तेमाल कर रही है. इस तरह सरकारी धन की खुल्लमखुल्ला लूट की जा रही है. कार्यस्थल पर रोज़गार गारंटी योजना के बोर्ड और मेडिकल किट तक की व्यवस्था नहीं है. करोड़ों रुपये की योजनाएं नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में किस तरह दम तोड़ रही हैं, इसे वहां चल रहे निर्माण कार्यों की गुणवत्ता और मजदूरों की हालत को देखकर समझा जा सकता है.
बीजापुर, दंतेवाड़ा, जगदलपुर, नारायणपुर, बस्तर, कांकेर, किरंदुल एवं बचेली आदि क्षेत्रों में सरकार की ओर से मनरेगा के तहत करोड़ों रुपये की योजनाओं को स्वीकृति दी गई, लेकिन अधिकारियों-कर्मचारियों के भ्रष्ट रवैये के चलते सारी योजनाएं फाइलों में कैद होकर रह गईं. नक्सल प्रभावित इलाक़ों का यही सबसे बड़ा सच है कि जब तक आम जनता का शोषण जारी रहेगा, कोई भी सुधार असंभव है. शोषण, भुखमरी और ग़रीबी ही यहां नक्सलवाद की सबसे बड़ी वजह है. आज़ादी हासिल होने के बाद आदिवासी बाहुल्य एवं पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए अरबों-खरबों रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन यहां के लोग आज तक आधे तन का कपड़ा नहीं जुटा पाए हैं. इनकी स्थिति जैसी 63 साल पहले थी, कमोबेश आज भी वही है.