राजधानी पटना से बीस किलोमीटर दूर वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर के पास बाढ़ पीड़ितों के एक राहत शिविर में वितरण के लिए खाद्य सामग्री जा रही थी, लेकिन राहत शिविर में पहुंचने के पहले ही बाढ़ पीड़ितों के एक समूह ने उसे लूट लिया. यह सामग्री सरकारी एजेंसी का नहीं, बल्कि किसी स्वयंसेवी संगठन का था. कटिहार जिले के बाढ़ पीड़ितों के बीच वितरण के लिए कुछ खाद्य सामग्री जा रही थी. लेकिन खस्ताहाल सड़क होने के कारण वाहन से कुछ बोरा चूड़ा और फरही गिर गई. फिर क्या था, छीना-झपटी मच गई. इस लूट में किसी के हिस्से कुछ आया और किसी के हिस्से मात्र बोरे का टुकड़ा. पटना के एक राहत शिविर में दियारा के बाढ़ पीड़ित परिवारों के बच्चे और महिलाएं रह गई हैं. पर इनका राशन बड़ी मुश्किल से आ रहा है. चौबीस घंटे में दो बार इन्हें खाना मिलता है- दाल-भात और आलू की सब्जी, पर दूर-दराज के राहत शिविर में रह रहे बाढ़ पीड़ितों को यह सौभाग्य भी नहीं हासिल है. दूसरी तस्वीर पर नजर डालते हैं. बाढ़ पीड़ितों को राहत का श्रेय लूटने की भी स्थानीय दबंगों में होड़ मची है. ऐसी ही होड़ में भोजपुर में दो स्थानीय दबंगों के समर्थकों के बीच गोली चल गई. कहते हैं, इस गोलीबारी में एक की मौत भी हो गई, हालांकि प्रशासन ने इस खबर की पुष्टि नहीं की है. ये कुछ बानगी हैं, लेकिन इस मोर्चे पर सूबे की सियासत मौन है. बाढ़ राहत के नाम पर एक हफ्ता पहले तक राजनीतिक दलों में जो तेजी दिखती थी, वह पानी उतरने के साथ खत्म हो गई है. उफनती नदियों के पानी को फिलहाल उतरने के लिए ढलान मिल गया, तो राजनीति को भी कोई नया मसला.
बिहार में बाढ़ आती है तो नदियां ही नहीं, सियासत भी उफान मारने लगती है. जैसे बाढ़ के पानी में सब गंदगी बहकर आ जाती है वैसे ही सियासतदानों की सारी मर्यादा भी सतह पर दिखने लगती है. बाढ़ की बहती गंगा में हर राजनेता, चाहे वह जिस स्तर और हैसियत का हो, अपने हाथ धोता है और सियासत के पानी को थोड़ा और दूषित कर देता है. गत कई दशकों से यहां ‘यह मेरी राहत, यह तेरी राहत’ की सियासत अपनी जगह बनाती रही है. इस बार तो यह चरम पर पहुंच गई, एक ने कहा, बिहार में घुसने नहीं देंगे, तो दूसरे ने कहा कि बिहार किसी ने रजिस्ट्री नहीं करवा ली. ये कुछ नमूने मात्र हैं, इस बार बाढ़ के दौरान सुप्रीमो के प्रियपात्र मुंहलगुआ राजनेताओं ने ऐसे जुमले खूब बरसाये और राजनीति में शुचिता के पैरोकार सुप्रीमो ने जमकर ठहाके लगाए. बाढ़ पीड़ितों का हाल चाल और राहत शिविरों का जायजा लेने केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद एक शिविर में गए और वहां खाना क्या खा लिया, जद (यू) के प्रवक्ता ने उन्हें बेशर्म करार दे दिया. यहां तक कह दिया कि खाते हैं बिहार का, गाते हैं केंद्र सरकार का. अब इन प्रवक्ता साहब को कौन बताए कि पैसा तो आखिर जनता की गाढ़ी कमाई का ही है, वह चाहे राज्य के जरिए आए या केंद्र के. बाढ़ पीड़ितों को राहत देने में कथित देरी की बात करते हुए एक केन्द्रीय मंत्री ने कहा कि राज्य सरकार विफल रही, तो जद(यू) के प्रवक्ता ने कहा कि केन्द्र में बिहारी मंत्री यदि प्रधानमंत्री और केन्द्र की विशेष राहत सहायता के बगैर बिहार आएंगे, तो किसी को सूबे में घुसने नहीं दिया जाएगा. प्रवक्ता महोदय को संविधान की रक्षा की अपनी शपथ की याद भी नहीं रही. इस दौर में उन केन्द्रीय मंत्रियों या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के भी खूब दर्शन हुए जो कुछ बोलना है, इसलिए बोल लेते हैं, भले वह निराधार ही क्यों न हो. इसमें सबसे उत्तम उदाहरण रामविलास पासवान का है. खाद्य उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास ने बार-बार कहा कि बिहार सरकार गैर जिम्मेवार है और बाढ़ पीड़ितों को राहत के लिए अब तक कुछ भी नहीं मांगा है. फिर भी उन्होंने अपनी पहल पर बिहार को बीस लाख टन अनाज भेजने का दावा किया. यह किसी की समझ से परे है कि बगैर राज्य सरकार की मांग के ही राहत के नाम पर अनाज कैसे भेज दिया गया? सरकार तो किसी नियम-कायदे से ही चलती है, किसी की मनमर्जी से तो नहीं!
श्रेय पाने के होड़ में आपदा राहत के संदर्भ में वास्तविकता की जानकारी कोई नहीं देना चाहता है. आपदा राहत कोष की एक व्यवस्था है जिसके तहत किसी राज्य को प्राकृतिक आपदा की स्थिति में मदद मिलती है. बिहार के लिए यह कोष तीन सौ सत्तर करोड़ रुपए का है और इसमें राज्य व केन्द्र की बराबर की हिस्सेदारी है. इस रकम के कस्टोडियन महालेखाकार होते हैं. विशेष अवस्था में अधिक रकम खर्च करने की भी व्यवस्था की गई है, पर इस 370 करोड़ रुपए के अलावा. बिहार में यह रकम खर्च हो गई है, इसका अभी तक खुलासा नहीं हुआ है. फिर, विशेष राहत राशि के लिए राज्य को विशेष ज्ञापन देना होता है और यह मांग क्षति के आकलन के बाद ही की जा सकती है. इस साल की बाढ़ की क्षति का आकलन होना है और ऐसे आकलन और उस पर केन्द्र की सहमति बनने के बाद ही कुछ अधिक हो सकता है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सरकार को क्षति का आकलन करने को कहा है. इसके बाद वे केंद्र के समक्ष अपनी मांग पेश करेंगे, लेकिन बिहार को कोसी त्रासदी (सन 2008) का अनुभव है. उन दिनों लालू प्रसाद केंद्र में मंत्री थे और अपनी पहल पर प्रधानमंत्री को बिहार की बाढ़ दिखाने लेकर आए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने घोषणा भी की थी, लेकिन इस बार बिहार के किसी राजनेता ने ऐसी कोई पहल अब तक नहीं की है. वैसी पहल से बिहार को विशेष राहत दिलवाई जा सकती है. ऐसी पहल तो एनडीए के नेताओं को ही करनी चाहिए. बिहार सरकार की तत्परता और राजग नेताओं की सक्रियता की जरूरत है. इन दोनों फ्रंट पर अब भी बहुत कुछ करना है. यह कौन करेगा? इस पर बिहार का दोनों पक्ष- सत्ता और विपक्ष- मौन है. अपनी-अपनी सक्रियता को दरकिनार कर दोनों पक्ष बयान-युद्ध में फंस गए हैं.
बिहार में बाढ़ का यह दौर थम गया है. इस दूसरे चरण की बाढ़ में गंगा की दोनों तरफ के कोई डेढ़ दर्जन जिलों में तबाही मचाने के बाद सोन नद सहित गंगा व उसकी सहायक नदियां अपने दायरे में सिमट सी गई हैं. अगस्त के दूसरे पखवारे में इनकी उफान ने सूबे के कई इलाकों में जल प्रलय जैसा दृश्य पैदा कर दिया था. केवल इस दौर की बाढ़ में कोई सैंतीस लाख की आबादी गंभीर रूप से प्रभावित हुई. बक्सर से लेकर भागलपुर से आगे झारखंड की सीमा तक इस बाढ़ के कारण 100 से अधिक लोगों की जान गई, पांच लाख से अधिक लोग बेघर हो गए. राज्य सरकार के अधिकारियों पर भरोसा करें तो पानी से घिरे लोगों को सुरक्षित निकालने के लिए ढाई हजार से अधिक नावों का इंतजाम किया गया था. सरकार ने पांच सौ चौवालीस राहत शिविर बनाए, जिनमें तीन लाख से अधिक बेघरों को आश्रय देने का दावा किया गया है. इन शिविरों में हरसंभव सुविधा उपलब्ध कराई गई. बाढ़ पीडितों के लिए दाना-पानी के साथ-साथ बीमार के लिए दवा और बच्चों के लिए पढ़ाई की भी व्यवस्था की गई. कटिहार, भागलपुर, पटना, वैशाली, समस्तीपुर, बेगूसराय आदि कई जिलों में अनेक राहत शिविर अब भी चल रहे हैं. इस साल बाढ़ पीड़ितों के बीच राहत सामग्री की एयरड्रॉपिंग नहीं कराई गई, ताकि राहत सामग्री बर्बाद न हो और जरूरतमंद लोगों तक पहुंचे. सरकार ने इस बार पीड़ितों को हाथों-हाथ राहत सामग्री देने की व्यवस्था की.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सूबे में बाढ़ से अब तक पंद्रह हजार करोड़ रुपए क्षति का अनुमान जाहिर किया है. आरंभिक आकलन के अनुसार सूबे में बाढ़ से अब तक कोई चार सौ करोड़ रुपए की फसल का नुकसान हुआ है. पच्चीस हजार से अधिक घर ध्वस्त या क्षतिग्रस्त हुए हैं. बाढ़ से इस साल मरनेवालों की संख्या कोई पौने दो सौ है. सार्वजनिक संपत्ति की क्षति का आकलन किया जा रहा है. बड़े पैमाने पर सड़कें क्षतिग्रस्त हुई हैं, पुल-पुलिया टूटे हैं, स्कूल और अस्पताल भवनों को क्षति पहुंची है. उप मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव ने पथ निर्माण विभाग के अफसरों-अभियंताओं को एक हफ्ते के भीतर क्षति की जानकारी देने का आदेश दिया. ऐसी ही जानकारी भवन निर्माण व सिंचाई, बिजली व लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभागों से भी मांगी गई है. सारा दस्तावेज एक सप्ताह के भीतर तैयार कर लेना है ताकि मॉनसून व त्योहारी मौसम के समाप्त होते ही क्षति को ठीक करने का काम आरंभ कर दिया जाए. सूबे के अफसरों के अनुसार बाढ़ से क्षति के आकलन के लिए केन्द्रीय अध्ययन दल के जल्द आने की उम्मीद है. इस उम्मीद का आधार गाद (सील्ट) की समस्या को लेकर नीतीश कुमार की अपील पर केन्द्र सरकार की प्रतिक्रिया ही है. मुख्यमंत्री ने कुछ दिनों पहले ही ऐसा अध्ययन दल बिहार भेजने का अनुरोध प्रधानमंत्री से किया था. उनके इस अनुरोध के बाद ही गंगा व उसकी सहायक नदियों में गाद की समस्या व उसके समाधान के उपाय सुझाने के लिए विशेषज्ञों का केन्द्रीय दल यहां आया है. यह दल बक्सर से लेकर फरक्का तक की गाद की हालत का अध्ययन-विश्लेषण कर रहा है. राजनीति को दर किनार कर दें, तो केन्द्र की यह तत्परता नई उम्मीद जगाती है. दूसरे दौर की बाढ़ का पानी अब उतरने लगा है और राहत शिविर से लोग गांव-घर की ओर लौटने लगे हैं, लेकिन अब भी राहत शिविर खाली नहीं हुए हैं. कई शिविरों में बच्चे और महिलाएं हैं ही. बिहार में बाढ़ के आने की आशंका पंद्रह अक्टूबर तक बनी रहती है. ऐसे में लोग-बाग सुरक्षित जगह जल्दी छोड़ना नहीं चाहते हैं, पर राहत शिविरों की हालत अब खराब होने लगी है. समस्तीपुर, भागलपुर, वैशाली कटिहार आदि जिलों के शिविरों की बात तो जाने दीजिए, पटना के राहत शिविरों में भी लोगों की परेशानी काफी बढ़ रही है. मौकों से जो खबरें आ रही हैं, वे राहत कम और लोगों की परेशानी ज्यादा बयॉं कर रही हैं.
बाढ़ और बाढ़ राहत को लेकर सूबे की राजनीति का भी पानी इस बार खूब चढ़ा-उतरा है. हालांकि बिहार की राजनीति का यह सालाना दस्तूर है. पिछले कई दशकों से केन्द्र और राज्य की सरकारें विरोधी राजनीतिक ध्रुवों की रही है, लिहाजा बाढ़ आने पर सूबे के राजनीति समूह भी दो पाट में बंटी रहती है. केन्द्र सरकार विरोधी और राज्य सरकार विरोधी. यह दोषारोपण की बाढ़ का भी मौसम होता है. सूबे में पानी से तबाही के लिए राज्य की सत्ता पर काबिज समूह केन्द्र को जिम्मेवार बताते रहते हैं, जबकि केन्द्र में सत्तारूढ़ समूह राज्य सरकार के नेतृत्व को. इस बार भी ऐसा ही हुआ है. उत्तर बिहार के पूर्वी हिस्से में पहले जब बाढ़ आई तो नेपाल को जिम्मेवार बता दिया गया. दूसरे चरण की बाढ़ के लिए पड़ोसी राज्यों की वर्षा को. इस चरण की बाढ़ का बड़ा कारण फरक्का बराज और उसके कारण गंगा व सूबे की अन्य नदियों की गाद समस्या की केन्द्र सरकार की अनदेखी को जिम्मेवार बताया गया. ये दोनों बातें अपने तई सही हो सकते हैं, पर सवाल ये है कि इन समस्याओं को बिहार का राजनीतिक-प्रशासनिक नेतृत्व बाढ़ आने पर ही क्यों देखता है? साल के आठ महीने ये समस्याएं हमारी चिंता के दायरे में क्यों नहीं आती हैं और इस पर हम बात क्यों नहीं करना चाहते? बिहार की नियति में बाढ़ है और इससे यह प्रदेश मुक्त नहीं हो सकता. इसका भूगोल ऐसा है कि यहां हर साल बाढ़ आना है. यह बिहार के लिए अतिथि नहीं है, जुलाई से सितम्बर तक यह कभी भी आ सकती है, बार-बार आ सकती है और आती है. लिहाजा इसकी तबाही कम करने की कल्पनाशील और ठोस योजना चाहिए. बाढ़ प्रबंधन- जल प्रबंधन- की ठोस योजना चाहिए, पर बिहार का राजनीतिक, प्रशासनिक व तकनीकी नेतृत्व इस दिशा सोचने-करने में कतई उत्सुक नहीं दिखता है. सत्ता हो या विपक्ष-वह चाहे जिस राजनीतिक समूह का हो- इस पर सोचना नहीं चाहता है. उसकी इस लापरवाही का खामियाजा बिहार भुगत रहा है.