riverप्राचीन काल में सभ्यता के विकास से लेकर वर्तमान में देश और समाज के संवर्धन तक, नदियां हमारे विकास का एक प्रमुख आधार रही हैं. लेकिन आज ज्यादातर नदियां अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं. हाल ही में आई संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर की 227 बड़ी नदियों में से 136 नदियों में पानी का बहाव थम रहा है.

संयुक्त राष्ट्र की इस सूची में भारत की लगभग सभी प्रमुख नदियां हैं. हमारी मौसमी छोटी नदियां तो कब की खत्म हो चुकी हैं, बड़ी नदियां भी अब अपनी पहचान से जूझ रही हैं. इनमें पानी नहीं है. 2006 में नर्मदा का जल-स्तर 323 मीटर था, जो लगातार नीचे गिर रहा है. बेतवा, केन, चंबल के भी यही हालात हैं. इनमें भी पानी का बहाव दिन-ब-दिन खत्म होता जा रहा है.

पानी के लिए पहचानी जाने वाली नदियों से पानी विहिन होते जाने का मुख्य कारण है, इन पर बनने वाले बड़े-बड़े बांध और इनके किनारे के निर्माण. बांधों के कारण डाउन स्ट्रीम में पानी की कमी होती जा रही है. ऐसे बांधों के आस-पास के 10-15 किमी नदी क्षेत्र में जलीय जीवन समाप्त हो रहा है. इनके कारण नदियों का स्वयं शुद्धीकरण तंत्र भी नष्ट होता जा रहा है. इसके साथ-साथ नदियों में बहाए जाने वाले कंपनियों-कारखानों के अवशिष्ट भी इनके बहाव में बाधक बन रहे हैं.

नदियों के बहाव मार्ग में भारी मात्रा में गाद का पटाव पानी की गुणवत्ता खत्म करने के साथ-साथ नदियों के इकोसिस्टम को भी चौपट कर रहा है. जलभराव और बहाव के बिना नदियां मर रही हैं. जल के सतत प्रवाह के कारण ही नदियों में ऑक्सीजन बना रहता है. बहाव नहीं होने के कारण पानी में ऑक्सीजन की कमी नदियों के जलीय पारिस्थितिकी को नष्ट कर रही है.

हमें इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि नदियां जीवित रहीं, तभी वो जनजीवन को भी आबाद कर सकेंगी. एशिया और अमेरिका के घनी आबादी वाले क्षेत्रों से होकर बहने वाली नदियों पर दुनिया की एक तिहाई आबादी निर्भर है. ये नदियां ही उनकी आजीविका और पेयजल का माध्यम हैं. 1999 तक 31 देशों के 45 करोड़ लोग पानी के लिए तरसते थे.

लेकिन जल व्यवस्थाओं के प्रति लापरवाह रवैया 2035 तक 43 देशों की एक अरब आबादी के लिए नई मुसीबत बनकर आएगा. एक अनुमान के मुताबिक 2025 तक भारत सहित 48 देशों में पीने योग्य पानी नहीं होगा. पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता जो 1950 में 6008 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष थी, वो अब घटकर 1200-1400 घनमीटर नीचे जा चुकी है. ये एक भयावह स्थिति का संकेत है.

ये चिंताजनक बात है कि हमारे देश में नदियों का संरक्षण और संवर्धन कभी भी ज्वलंत मुद्दा नहीं बन सका, जबकि नदियों के अस्तित्व पर खतरा सबसे विकराल स्थिति है. अकाल और सूखे के समय जब पानी को लेकर हहाकार मचता है, तो सरकारें एक्शन मोड में दिखती हैं, लेकिन फिर कुछ दिनों बाद स्थिति जस की तस हो जाती है. सूखने के कगार पर पहुंच चुकी नदियों को पुनर्जिवित करने के उद्देश्य से 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार ने नदियों को आपस में जोड़ने का काम शुरू किया था.

लेकिन सरकार बदलने के बाद 1982 में इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 1999 में इस योजना को पुनर्जीवित करना चाहा और इसके लिए प्रयास किया. लेकिन वे इसके लिए कोई काम शुरू कर पाते उससे पहले ही 2004 में उनकी सरकार चली गई. तब से अब तक नदियों को जोड़ा जाना बस चुनावी मुद्दा बनकर रह गया है. हाल ही में दिल्ली में आंदोलनरत तमिलनाडु के किसानों का एक प्रमुख मांग नदियों को जोड़ा जाना भी था.

भारत में अब तक की सरकारें नदियों के संरक्षण व संवर्धन को लेकर कितनी जागरूक रही हैं, इसे गंगा और यमुना के हाल से जाना जा सकता है. गंगा की सफाई को लेकर अब तक हजारो करोड़ रुपए बहाए जा चुके हैं, लेकिन तब भी गंगा के बहाव को सुचारू नहीं किया जा सका है. देश की राजधानी दिल्ली में यमुना नाले में तब्दील हो चुकी है, लेकिन इसकी स्थिति बेहतर करने की बात फाइलों से निकलकर जमीनी रूप अख्तियार नहीं कर पा रही.

नदियों के तरफ गौर न करने के कारण ही आज सरस्वती बस नाम की नदी बनकर रह गई है. गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, कावेरी, सिंधु, महानदी, तुंगभद्रा जैसी कई नदियां देश के अलग-अलग क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था और विकास का मेरुदंड हैं, लेकिन अब ये खुद को बचाए रखने की जंग लड़ रही हैं. हालांकि नदियों को पुनर्जिवित करना मुश्किल काम भी नहीं है. लंदन की टेम्स और वाडले इसका सबसे बेहतर उदाहरण है कि अगर इच्छा शक्ति हो, तो खत्म होने के कगार पर खड़ी नदी को भी पुनर्जिवित किया जा सकता है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here