रिक्शा हमारे देश में शहरी यातायात के मुख्य साधन हैं. निम्न-मध्यम वर्ग की यह प्रमुख सवारी है. महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों, कस्बों तक रिक्शा चालकों की अपनी एक अलग पीड़ा है, जिसकी परवाह सरकार को नहीं है. दिन भर खून-पसीना बहाने के बावजूद रिक्शा चालकों को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं होता. एक ओर करोड़ों रुपये खर्च करके सरकार विभिन्न प्रकार की योजनाएं चला रही है, जबकि दूसरी ओर कई ऐसे क़ानून भी हैं, जो आम आदमी को ईमानदारी से चार पैसे कमाने से रोकते हैं. रिक्शा चालकों से संबंधित क़ानून इसका जीता-जागता उदाहरण है. रिक्शा भले ही अब लगभग लुप्त प्राय: हो चुका है, लेकिन उसकी शैली एक परिवहन के रूप में आज भी लोगों को आकर्षित करती है. भारत में सन् 1920 में पहली बार रिक्शा शिमला में दिखाई पड़ा. तक़रीबन 18 साल बाद 1938 में कोलकाता में रिक्शा दिखा. इसके बाद उसकी पहुंच बढ़ती गई.
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की बात करें, तो सन् 2000 में यहां 40 हज़ार रिक्शा चालक थे, जबकि वर्तमान में लगभग एक लाख रिक्शा चालक हैं, जो हर जगह दिख जाते हैं. मेट्रो स्टेशनों के आसपास निकटतम स्थान पर जाने का यह सस्ता और सर्वसुलभ माध्यम है. सरकार का ध्यान इन रिक्शा चालकों पर नहीं है, क्योंकि ये सरकार द्वारा बनाई गई किसी नीति के अंतर्गत नहीं आते. स्थिति इतनी जटिल हो गई है कि सबका साथ और सबका विकास की बात करने वाली केंद्र सरकार इन ग़रीबों पर भारी पड़ रही है. नगर निगम ने यातायात पुलिस के सहयोग से दिल्ली को तीन क्षेत्रों में बांट दिया है-मुक्त, प्रतिबंधित और सीमित क्षेत्र. मुक्त क्षेत्र में रिक्शा चलाने की आज़ादी है, प्रतिबंधित क्षेत्र में बिल्कुल मनाही है और सीमित क्षेत्र में रिक्शा चलाने के लिए कुछ शुल्क अदा करना पड़ता है.
दरअसल, प्रतिबंधित और सीमित क्षेत्र तय करने के पीछे नीति निर्माताओं का तर्क यह है कि रिक्शों की वजह से सड़क जाम की समस्या पैदा होती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जिन सड़कों पर रिक्शे नहीं चलते, क्या वहां जाम नहीं लगता? तो फिर कार या बसों की संख्या भी सीमित कर दी जानी चाहिए. यदि कार या अन्य वाहनों की मुक्त आवाजाही के लिए आम आदमी द्वारा अदा किए गए टैक्स की रकम से फ्लाईओवर बनाए जा सकते हैं, तो फिर रिक्शा चालकों के लिए अलग से कोई व्यवस्था क्यों नहीं की जा सकती? ग़ौरतलब है कि राजकोष का अधिकांश हिस्सा परोक्ष कर से एकत्र होता है, जिसमें साधारण, निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों का भी योगदान होता है. यदि रिक्शा चालक सस्ती और आरामदायक सेवा दे सकते हैं और लोग रिक्शा की सवारी करना चाहते हैं, तो फिर कहीं भी रिक्शा चलाने पर प्रतिबंध क्यों?
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की बात करें, तो सन् 2000 में यहां 40 हज़ार रिक्शा चालक थे, जबकि वर्तमान में लगभग एक लाख रिक्शा चालक हैं, जो हर जगह दिख जाते हैं. मेट्रो स्टेशनों के आसपास निकटतम स्थान पर जाने का यह सस्ता और सर्वसुलभ माध्यम है. सरकार का ध्यान इन रिक्शा चालकों पर नहीं है, क्योंकि ये सरकार द्वारा बनाई गई किसी नीति के अंतर्गत नहीं आते.
रिक्शा पर ग़ैर ज़रूरी प्रतिबंध लगाने वाले क़ानूनों को देखते हुए कहा जा सकता है कि देश में अनावश्यक रूप से जबरदस्ती बेरोज़गारी पैदा की जा रही है. श्रम करने वालों का रास्ता क़दम-क़दम पर सरकार की ग़लत नीतियां रोके हुए हैं. दिल्ली में मौजूद अधिकांश रिक्शा चालक उत्तर प्रदेश, बिहार एवं पश्चिम बंगाल के हैं, जो रोज़गार और अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए यहां आते हैं. वे यह सोचकर आते हैं कि रिक्शा चलाना एक आसान रा़ेजगार है, जिसमें अन्य रोज़गारों की तुलना में कोई खास औपचारिकता की ज़रूरत नहीं होती. रिक्शा भी आसानी से भाड़े पर मिल जाता है. अधिकांंश रिक्शा चालक दिल्ली आने से पहले दूसरे लोगों के खेतों में काम करते थे या रोज दिहाड़ी पर आश्रित थे.
आम तौर पर रिक्शा चलाना ठेकेदारी प्रथा पर आश्रित है और ठेकेदार ही रिक्शा चालकों की ज़िंदगी चलाता है. सस्ते परिवहन में रिक्शा की अहम भूमिका है. कोई सहारा न होने की वजह से 60 वर्ष की आयु वाले लोग भी रिक्शा चलाते दिख जाते हैं. हर रिक्शा चालक रोजाना औसतन 50 किलोमीटर की दूरी तय करता है और 12-14 घंटे कमरतोड़ मेहनत करता है. बावजूद इसके उसके हाथ तीन-चार सौ रुपये प्रतिदिन लगते हैं तथा उसमें से 50-60 रुपये किराये के रूप में रिक्शा मालिक को देने पड़ते हैं. अधिकांश: रिक्शा चालक आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं और उनके पास रिक्शा खड़ा करने की जगह भी नहीं होती, इसलिए वे रिक्शा नहीं खरीद पाते. उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते कि वे किराए पर झुग्गी ले सकें. इसलिए वे अपना जीवनयापन फुटपाथ पर या फिर गैराज में रहकर करते हैं.
अधिकांश रिक्शा चालक अनपढ़ या थोड़े-बहुत पढ़े-लिखे होते हैं. इससे साफ़ निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनके परिवार की माली हालत कैसी होगी. सरकारी नीति और पहचान के सुबूतों के अभाव के चलते उनका क़दम-क़दम पर शोषण किया जाता है. रिक्शा चालक ट्रैफिक पुलिस, दिल्ली पुलिस, नगरपालिका और निजी वाहन चालकों के शोषण से पीड़ित रहते हैं. कभी टायर पंचर करके, तो कभी रिक्शा जब्त करके उन्हें परेशान किया जाता हैं और उनसे वसूली की जाती है. अधिकांश रिक्शा चालक मांसपेशियों में दर्द, सूजन, थकान, कमजोरी, खिंचाव से पीड़ित रहते हैं. बीमार पड़ने पर वे सरकारी अस्पताल या झोलाछाप डॉक्टरों के पास ही जाते हैं. दैनिक थकान से बचने के लिए नशीले पदार्थों का सेवन भी रिक्शा चालकों में आम बात है, जिनमें शराब, सिगरेट, बीड़ी और गांजा शामिल है.
सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र रवि का कहना है कि शहरी परिवहन नीति में कहा गया है कि हर योजना लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाएगी. शहरों को इस तरह विकसित किया जाएगा कि वे सामाजिक एवं आर्थिक विकास में मददगार साबित हों. इसके लिए परिवहन भी एक आवश्यक इकाई है. यह नीति सार्वजनिक परिवहन बढ़ाने की बात करती है, लेकिन साथ ही साइकिल चलाने और पैदल चलने को ख़तरनाक घोषित करती है. मौजूदा समय में समाज एक स्वच्छ, सस्ता और अपने घर तक यातायात की सुविधा चाहता है औार रिक्शा इन तमाम बिंदुओं पर खरा उतरता है. बावजूद इसके सरकार की नीतियों में रिक्शा एवं रिक्शा चालकों के संरक्षण और प्रोत्साहन के लिए कोई प्रावधान नहीं है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत हर भारतीय को अपनी आजीविका के लिए कोई भी व्यापार या व्यवसाय करने का अधिकार है. इस तरह रिक्शा चालक भी संवैधानिक रूप से अपने जीवनयापन के हक़दार हैं, तो फिर उनका शोषण क्यों?