हर व्यक्ति जन्म से ही कुछ अधिकार लेकर आता है, चाहे वह जीने का अधिकार हो या विकास के लिए अवसर प्राप्त करने का. मगर इस पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के साथ लैंगिक आधार पर किए जा रहे भेदभाव की वजह से महिलाएं इन अधिकारों से वंचित रह जाती हैं. इसी वजह से महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने हेतु हमारे संविधान में अलग से क़ानून बनाए गए हैं और महिलाओं को अपनी ज़िंदगी जीने में ये क़ानून भरपूर मदद कर सकें, इसके लिए समय-समय पर इनमें संशोधन भी किए गए हैं.
सामाजिक तौर पर महिलाओं को त्याग, सहनशीलता एवं शर्मीलेपन का प्रतिरूप बताया गया है. इसके भार से दबी महिलाएं चाहते हुए भी इन क़ानूनों का उपयोग नहीं कर पातीं. बहुत सारे मामलों में महिलाओं को पता ही नहीं होता कि उनके साथ जो घटनाएं हो रही हैं, उससे बचाव का कोई क़ानून भी है. आमतौर पर शारीरिक प्रताड़ना यानी मारपीट, जान से मारना आदि को ही हिंसा माना जाता है और इसके लिए रिपोर्ट भी दर्ज कराई जाती है. लेकिन महिलाओं और लड़कियों को यह नहीं पता कि मनपसंद कपड़े न पहनने देना, मनपसंद नौकरी या काम न करने देना, अपनी पसंद से खाना न खाने देना, बालिग़ व्यक्ति को अपनी पसंद से विवाह न करने देना या ताने देना, मनहूस आदि कहना, शक करना, मायके न जाने देना, किसी खास व्यक्ति से मिलने पर रोक लगाना, पढ़ने न देना, काम छोड़ने का दबाव डालना, कहीं आने-जाने पर रोक लगाना आदि भी हिंसा है, मानसिक प्रताड़ना है.
यहां तक कि घरेलू हिंसा अधिनियम के बारे में भी महिलाएं अनभिज्ञ हैं. घरेलू हिंसा अधिनियम का निर्माण 2005 में किया गया और 26 अक्टूबर, 2006 से इसे लागू किया गया. यह अधिनियम महिला बाल विकास द्वारा ही संचालित किया जाता है. यह क़ानून ऐसी महिलाओं के लिए है, जो कुटुंब के भीतर होने वाली किसी क़िस्म की हिंसा से पी़डित हैं. इसमें अपशब्द कहने, किसी प्रकार की रोक-टोक करने और मारपीट करना आदि शामिल हैं. इस अधिनियम के अंतर्गत महिलाओं के हर रूप मां, भाभी, बहन, पत्नी एवं किशोरियों से संबंधित प्रकरणों को शामिल किया जाता है. घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत प्रताडित महिला किसी भी व्यस्क पुरुष को अभियोजित कर सकती है अर्थात उसके विरुद्ध प्रकरण दर्ज करा सकती है. भारतीय दंड संहिता की धारा 498 के तहत ससुराल पक्ष के लोगों द्वारा की गई क्रूरता, जिसके अंतर्गत मारपीट से लेकर क़ैद में रखना, खाना न देना एवं दहेज के लिए प्रताड़ित करना आदि आता है. घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत अपराधियों को 3 वर्ष तक की सज़ा दी जा सकती है, पर शारीरिक प्रताड़ना की तुलना में महिलाओं के साथ मानसिक प्रताड़ना के मामले ज़्यादा होते हैं. यहां हम कुछ ऐसे अपराध और क़ानूनी धाराओं का ज़िक्र कर रहे हैं, जिनकी जानकारी रहने पर महिलाएं अपने खिला़फ होने वाले अत्याचारों के खिला़फ आवाज़ उठा सकती हैं.
अपहरण, भगाना या महिला को शादी के लिए मजबूर करने जैसे अपराध के लिए अभियुक्त के खिला़फ धारा-366 लगाई जाती है, जिसमें 10 वर्ष तक की सज़ा का प्रावधान है. पहली पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करना धारा-494 के तहत जघन्य जुर्म है और अभियुक्त को 7 वर्ष की सज़ा मिल सकती है. पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता बरतने पर धारा-498 के तहत 3 साल की सज़ा दी जा सकती है. अगर कोई व्यक्ति या रिश्तेदार किसी महिला का अपमान करता है और उस पर झूठे आरोप लगाता है तो उसे धारा-499 के तहत दो साल की सज़ा का भागी बनना पड़ सकता है. दहेज मांगना और उसके लिए प्रताड़ित करना बेहद जघन्य है, जिसके लिए भारतीय क़ानून में आजीवन कारावास की सज़ा का प्रावधान है, जो धारा-304 के तहत सुनाई जाती है. दहेज मृत्य के लिए भी अभियुक्त पर धारा-304 ही लगाई जाती है. किसी लड़की या महिला पर आत्महत्या के लिए दबाव बनाना भी संगीन अपराध की श्रेणी में आता है, जिसके लिए धारा-306 के तहत 10 वर्ष की सज़ा मिलती है. सार्वजनिक स्थान पर अश्लील कार्य एवं अश्लील गीत गाने के लिए धारा-294 और 3 माह क़ैद या जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. महिला की शालीनता भंग करने की मंशा से की गई अश्लील हरकत के लिए धारा-354 और 2 वर्ष की सज़ा, महिला के साथ अश्लील हरकत करना या अपशब्द कहने पर धारा-509 और 1 वर्ष की सज़ा, बलात्कार के लिए धारा-376 लगाई जाती है और 10 वर्ष तक की सज़ा या उम्रक़ैद मिलती है. महिला की सहमति के बग़ैर गर्भपात कराना भी उतना ही बड़ा अपराध है, जिसके लिए अभियुक्त को धारा-313 के तहत आजीवन कारावास या 10 वर्ष क़ैद और जुर्माने की कड़ी सज़ा का प्रावधान है.
सरकार ने महिलाओं को पुरुषों के अत्याचार, हिंसा और अन्याय से बचाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन तो किया, पर वह अपने मक़सद में ज़्यादा सफल नहीं हो पा रहा है. यह ठीक है कि आयोग में शिकायत दर्ज कराने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ रही है, लेकिन यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि आयोग में शिकायत लेकर पहुंचने वाली महिलाओं में अधिकांश संख्या उनकी है, जो न केवल पढ़ी-लिखी हैं, बल्कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ अपने अधिकारों को पहचानती भी हैं. लेकिन गांवों की अनपढ़, कम पढ़ी-लिखी और दबी-कुचली महिलाओं की आवाज़ इस आयोग में नहीं सुनी जाती.
राष्ट्रीय महिला आयोग यह कहकर उनकी आवाज़ अनसुनी कर देता है कि उनके लिए राज्यों में आयोग है, पर राज्यों के आयोग किस भरोसे चल रहे हैं और इस मामले में राष्ट्रीय महिला आयोग क्या क़दम उठा रहा है, इस सवाल पर आयोग पल्ला झाड़ लेता है. किसी घटना के होने पर महिला आयोग तुरंत प्रतिक्रिया तो देता है, लेकिन वास्तव में वह उस मामले में कोई ठोस कार्रवाई नहीं करता है. आरुषि हत्याकांड मामला हमारे सामने है. इस मामले में तो आयोग की कार्यशैली पर ही सवाल उठ गए. आयोग में शिकायतों का ढेर लगा है, लेकिन निपटाने वाला कोई नहीं है. इसलिए सरकार के सामने इस मसले पर बेशुमार चुनौतियां हैं और इन क़ानूनों के अलावा भी कुछ बातें बेहद ज़रूरी हैं, ताकि महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों में कमी आ सके. मसलन सरकार द्वारा महिलाओं के संरक्षण का क़ानून पारित होना चाहिए. सरकार महिलाओं से संबंधित इन प्रकरणों के बेशुमार मामलों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन करे. सबसे खास और अहम बात कि खुद महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों.

काटजू का विवादित बयान

महिला अधिकारों के हनन और उससे जुड़े क़ानूनों को लेकर न स़िर्फ हमारा पुरुषवादी समाज, बल्कि हमारी न्यायपालिका में सर्वोच्च पदों पर बैठे न्यायाधीशों तक का नज़रिया हैरान कर देने वाला है. आमतौर पर यह धारणा है कि इस देश की अदालतें वीमेन फ्रेंडली हैं, लेकिन हक़ीक़त में ऐसा है नहीं. इस बात का एक बड़ा ज्वलंत प्रमाण भी मौजूद है. हम आपको एक वाक़िया बताते हैं. लिव इन रिलेशनशिप के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट में 21 अक्टूबर, 2010 को सुनवाई चल रही थी. सुनवाई के बाद जस्टिस मार्कंडेय काटजू और टीएस ठाकुर ने अपनी राय दी कि अगर एक मर्द अपनी यौन भूख मिटाने के लिए कोई रखैल या नौकरानी रखता है और इसके बदले उसकी आर्थिक क़ीमत चुकाता है, तो हमारी राय में इस रिश्ते में विवाह की प्रकृति का कोई संबंध नहीं है और एक रात गुज़ारने या सप्ताहांत बिताने वाली महिलाओं को घरेलू हिंसा क़ानून-2005 के तहत कोई भी सुरक्षा पाने का हक़ नहीं है. अगर वे इस क़ानून के तहत मिलने वाले फायदे उठाना चाहती हैं तो उन्हें हमारे द्वारा उल्लेख की गईं शर्तों के हिसाब से सबूतों के साथ साबित करना होगा. जस्टिस काटजू ने अपना फैसला तो सुना दिया, पर उन्होंने बात यहीं खत्म नहीं की. अगले ही दिन किसी और मामले की सुनवाई के दौरान महिलाओं के खिला़फ घरेलू हिंसा क़ानून को ज़मीन पर उतारने में मुख्य भूमिका निभाने वाली उप महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह जब अदालत में ख़डी हुईं, तब जस्टिस काटजू ने बड़े ही व्यंग्यात्मक लहजे में उनसे कहा कि कहिए, घरेलू हिंसा क़ानून की सर्जक, क्या कहना है. जस्टिस काटजू का यह कटाक्ष उप महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह को अंदर तक भेद गया. वह एक न्यायाधीश के इस तरीक़े के संबोधन से अचंभित तो हुईं, लेकिन चुप नहीं रहीं. इंदिरा जयसिंह ने रखैल या एक रात गुज़ारने जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने वाले दोनों जजों को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि किसी भी मामले में ऐसे जजों की बेंच के सामने कोई बात कहने की बजाय मैं बाहर जाना पसंद करूंगी.
देश में महिला अधिकारों के हनन की खौ़फनाक तस्वीर पेश करने के लिए यह एक उदाहरण का़फी है. जब न्यायपालिका में बेहद उच्च पदस्थ और रुतबे वाली जागरूक और जुझारू उप महाधिवक्ता इंदिरा जयसिंह को भरी अदालत में माननीय जजों से कटाक्ष का सामना करना प़ड सकता है, तो फिर एक आम महिला की बिसात ही क्या. इसलिए सबसे ज़रूरी यही है कि महिलाएं खुद अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों. अपने साथ हो रहे अत्याचार के खिला़फ आवाज़ उठाएं. क़ानून की जानकारी हासिल करें और उनका वाजिब इस्तेमाल करें.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here