111कुछ दिन पहले रायपुर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आरटीआई एक्टिविस्ट गौरीशंकर जैन और छत्तीसगढ़ वित्त निगम के पूर्व अध्यक्ष वीरेंद्र पांडेय ने 10 लाख करोड़ रुपये के चावल खरीद में घाटे की बात कहकर हड़कंम मचा दिया था. इन दोनों एक्टिविस्टों ने आरोप लगाया कि कस्टम मिलिंग व्यवस्था में पिछले बीस सालों में सरकार को 10 लाख करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है. एक्टिविस्ट जैन ने इसकी शिकायत कैग से की है. उनका कहना है कि आयकर और सीबीआई को भी संज्ञान दिया गया है.

दरअसल, सरकार किसानों से धान लेकर उसे कस्टम मिलिंग के लिए राइस मिल को देती है. राइस मिलर्स धान से चावल निकालते हैं. सरकार एक क्विंटल धान के बदले 67 किलो चावल राइस मिलर्स से लेती है, लेकिन बाकी बचे टूटे चावल, कुंडा और भूसी का हिसाब नहीं होता. इसे ही एक्टिविस्ट असली घाटा बता रहे हैं, क्योंकि सरकार धान से चावल निकालने के बदले 30 रुपये का भुगतान अलग से करती है. बाकी बचा हुआ टूटा चावल यानी ब्रोकेन राइस, कुंडा यानी राइस ब्रान और भूसी यानी हस्क राइस राइस मिलर्स, जो मिलर्स के पास रह जाता है, उससे मिलर्स करीब 190 से 250 रुपये का भारी मुनाफा कमाते हैं.
दोनों के आरोप इस लिहाज़ से संगीन हैं कि साल भर अपने खून-पसीने से सींचकर फसल उगाने वाले किसानों को उनके फसल का उचित मूल्य नहीं मिलता. 50 से सौ रुपये समर्थन मूल्य बढ़वाने के लिए उन्हें न जाने कितनी बार आंदोलन करना पड़ता है. लाठियां खानी पड़ती हैं, लेकिन चंद घंटों में धान से चावल निकालने वाले उद्योगपति पूरी मलाई खा रहे हैं. करोड़ों का वारा-न्यारा कर रहे हैं.
आरटीआई एक्टिविस्ट गौरीशंकर जैन की जानकारी के मुताबिक एक क्विंटल धान में 2 किलो टूटा धान 7 किलो कुंडा और 23 भूसी निकलती है. कनकी बाजार में सोलह से बीस रुपये प्रति किलो बिकती है, जबकि कुंडा 13 से चौदह रुपये किलो बिकता है. इसी तरह भूसी 2.3 रुपये किलो बिकती है. इस तरह एक राइस मिल वाला प्रति क्विंटल 190 रुपये से 250 रुपये प्रति किलो बाइ प्रोडक्ट के रूप में मिलता है. इसके बाद सरकार उन्हें 30.40 रुपये प्रति क्विंटल देती है. छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में राज्य सरकारें अलग से 10 रुपये का इनसेंटिव देती हैं. इस तरह प्रति क्विंटल के पीछे 220 से 270 रुपये राइस मिलर्स को मिलता है, जबकि किसान निजी तौर पर राइस मिलर्स सिर्फ भूसी के बदले अपने धान से चावल निकलवा लेता है. रायपुर के किसान रूपम चंद्राकर और द्वारिका साहू ने बताया कि गांव वाले जब राइस मिल जाते हैं, तो किसान अगर राइस मिलर्स को भूसी दे दे, तो उसकी मिलिंग मुफ्त में हो जाती है. अगर किसान भूसी न देना चाहे, तो ज़्यादा से ज़्यादा उसे प्रति क्विंटल करीब 70 रुपये देने पड़ते हैं. यानी सरकार करीब दो सौ रुपये अधिक दे रही है. जैन और पांडेय का कहना है कि धान खरीदी की कस्टम मीलिंग व्यवस्था अपनाने के बाद पूरा हिसाब लगाया जाए कि कितना अतरिक्त भुगतान सरकार ने किया है, तो ये रकम करीब 10 लाख करोड़ रुपये की बैठती है.
आरटीआई एक्टिविस्टों के मुताबिक, ये सिर्फ सरकारी घाटे की कहानी नहीं है, बल्कि राइस मिलर्स का घोटाला भी इसमें शामिल है. कनकी, कुंडा और भूसी से लाखों करोड़ों बनाने वाले राइस मिलर्स इसका हिसाब आयकर विभाग या सेलटैक्स विभाग को नहीं देते, जिससे सरकार को करोड़ों रुपये का चूना लगता है. आरोप है कि मिलर्स अपनी बैलेंस सीट में इसकी मात्रा और कीमतों को लेकर घोटाला करते हैं. आरटीआई एक्टिविस्टों की मांग है कि जब सरकार धान को लेकर समर्थन मूल्य घोषित करती है, तो बाइ प्रोडक्ट्स का क्यों नहीं. आरटीआई एक्टिविस्ट वीरेंद्र पांडेय ने इस पर सवाल उठाते हुए कहा कि ये बीजेपी और कांग्रेस दोनों सरकारों का बड़ा घोटाला है. उन्होंने कहा कि बरदाने की खरीद-बिक्री में भी बड़ा झोलमाल है. बरदाना बाज़ार से महंगे दामों पर ख़रीद कर मिलर्स को वो करीब मुफ्त में दे दिया जाता है. अनुमान है कि इसे मिलाकर सरकार को पिछले दस साल में 10 लाख करा़ेड का चूना लग चुका है. इस मामले में आरटीआई एक्टिविस्टों ने आयकर विभाग, सीबीआई और कैग से लेकर पीएमओ तक चिट्ठी लिखी है और कई एजेंसियों ने जांच का आश्‍वासन दिया है. आरटीआई एक्टिविस्टों का कहना है कि इस मामले में पंजाब सरकार ने मिलरों के खिलाफ जांच शुरू कर दी है कि उन्होंने बाई प्रोडक्ट को लेकर हिसाब-किताब में कितनी गड़बड़ी की है. आरटीआई एक्टिविस्टों ने नीति बनाने की प्रक्रिया को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है. आखिर साल भर की मेहनत के बाद फसल उगाने वाले किसान की मेहनत की कमाई की मलाई उनके धान से चावल निकालने वाले राइस मिलर्स खा रहे हैं.
इस मामले को लेकर आरटीआई एक्टिविस्ट गौरीशंकर अग्रवाल ने 2010 से शिकायत करना शुरू किया. उन्होंने कैग, इन्कम टैक्स, सीबीआई, खाद्य मंत्रालय, वित्त मंत्रालय से लेकर पीएमओ और राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर इस प्रक्रियागत खामी की तरफ ध्यान दिलाया. उन्होंने करीब पांच साल तक लगातार सैक़डों चिट्ठियां लिखकर इस तरफ ध्यान दिलाया, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी. एक विभाग दूसरे विभाग पर डालता रहा. बकौल जैन इस बारे में फरवरी 2015 में प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से सकारात्मक जवाब आया है. जैन का कहना है कि उन्होंने इस मामले को तब पकड़ा, जब उनके इलाके के सैकड़ों राइस मिलर्स को उन्होंने करोड़ों की दौलत का अकूत मालिक बनते देखा. जैन का कहना है कि वे इसके बाद इसकी पड़ताल में जुट गए. उनका कहना है कि वे इस मामले को लेकर तब तक ल़डेंगे, जब तक किसानों को उनका न्याय नहीं मिल जाता. वीरेंद्र पांडेय का कहना है कि अगर सही ढंग से इसकी जांच हो तो ये देश का सबसे बड़ा घोटाला है. एक तरफ ये शर्मनाक बात है कि सरकार किसानों को उनका वाजिब हक नहीं दे पाती, जिसके चलते किसान गरीब से गरीब होता जा रहा है, खेती-किसानी छोड़ रहा है, आत्महत्याएं कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ राइस मिलिंग करने वाले पूंजीपति दिन-ब-दिन मालामाल हो रहे हैं. ये राइस मिलर्स किसानों की खून-पसीने की कमाई खा रहे हैं. अगर सरकार इस व्यवस्था को सुधारती है तो वो किसानों को अतरिक्त पैसा दे सकती है. गौरतलब है कि मोदी सरकार ने राज्यों को दिये जाने वाले बोनस पर रोक लगा दी है.
छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में ये राज्य सरकारों के खिलाफ असंतोष का बड़ा मुद्दा बन चुका है. वीरेंद्र पांडेय का कहना है कि सरकार अगर पैसे बचाए, तो इसी से वो किसानों के बोनस का भुगतान कर सकती है.

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