- एएमयू में आरक्षण मसले पर दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करने का अभियान
- यूपी के सांसदों-विधायकों को दिल्ली बुलाकर समझाया और काम पर लगाया
- इलाहाबाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एएमयू-रणनीति पर किसी ने कुछ नहीं कहा
उत्तर प्रदेश की अकादमिक राजधानी इलाहाबाद में हुई भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से अधिक अहम वह बैठक थी जो राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह केबुलावे पर 18 जून को दिल्ली में बुलाई गई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश के सारे सांसद और विधायक मौजूद थे. यह भी कह सकते हैं कि सांसदों-विधायकों की उक्त बैठक के असली सूत्रधार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचार-वाहक थे. इस बैठक की जानकारी को सार्वजनिक नहीं किया गया, लेकिन इस बैठक में उत्तर प्रदेश के सभी भाजपा सांसद और सभी भाजपा विधायक अनिवार्य रूप से शामिल हुए. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में चुनावी रणनीतियों पर कोई चर्चा नहीं हुई थी और जो प्रस्ताव पारित हुआ था, उसमें भी उत्तर प्रदेश या अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर कोई उल्लेखनीय जिक्र नहीं हुआ. लेकिन 18 जून को भाजपा सांसदों-विधायकों की जो बैठक दिल्ली में हुई वह उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है और उसकी तासीर पूरे देश में असर दिखाने वाली है. दिल्ली के पटेल चेस्ट ऑडिटोरियम में तीन सत्र में सम्पन्न हुई बैठक में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के महासचिव कृष्ण गोपाल ने सांसदों-विधायकों को पूरे मसले पर विस्तार से अवगत कराया और रणनीति समझाई. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उतरने जा रही भारतीय जनता पार्टी ने दलितों और पिछड़ों को अपने साथ जोड़ने का एएमयू-फार्मूला अख्तियार किया है.
दलितों और ओबीसी समुदाय को भावनात्मक रूप से बसपा, सपा और कांग्रेस से तोड़ कर अपने साथ जोड़ने के इरादे से भारतीय जनता पार्टी ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में राष्ट्रीय आरक्षण नीति लागू किए जाने का मसला उठाने की रणनीति बनाई है. देश के सारे विश्वविद्यालयों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति-जनजाति और ओबीसी के लिए आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था लागू है, लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं है. हालांकि इस मसले पर भारतीय जनता पार्टी की छात्र और युवा इकाइयां लंबे अर्से से संघर्ष करती रही हैं, लेकिन कभी यह चुनावी मुद्दा नहीं रहा. भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि यह मसला व्यापक पैमाने पर दलितों और पिछड़ों के हितों से जुड़ा है, लिहाजा यह मुद्दा उनका ध्यान आकर्षित करेगा और चुनाव के पूर्व इसे व्यापक अभियान के तौर पर उठाया जा सकेगा. एएमयू में छात्रों के नामांकन से लेकर व्याख्याताओं और शिक्षणेतर कर्मचारियों की नियुक्ति तक में आरक्षण की संवैधानिक प्रणाली लागू नहीं है. भाजपा सांसदों और विधायकों की बैठक में इस बात पर जोर दिया गया कि इस मसले पर प्रदेशभर में माहौल बनाया जाए ताकि एएमयू में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने का रास्ता भी प्रशस्त हो और चुनाव के पहले दलितों और पिछड़ा वर्ग के लोगों के बीच सार्थक संदेश भी जाए. सारे सांसदों और विधायकों से इस काम में पूरी गति से जुट जाने को कहा गया है.
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में आरक्षण के मसले पर दिल्ली में हुई सांसदों-विधायकों की बैठक के बारे में भाजपा की तरफ से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया, संघ ने भी आधिकारिक तौर पर इस बैठक के संदर्भ में कुछ नहीं कहा. लेकिन यूपी के सांसदों और विधायकों को संघ के संयुक्त महासचिव कृष्ण गोपाल ने जो बौद्धिकी दी, वह हम आपको जरूर बताएंगे. कृष्ण गोपाल ने कहा कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण की नीति लागू नहीं कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक बड़ा अपराध कर रहा है. एएमयू के अल्पंसख्यक संस्थान के दर्जे पर राजग सरकार का रुख संप्रग सरकार को छोड़ कर बाकी पूर्ववर्ती सरकारों के रुख और 1968 में आए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप है. कृष्ण गोपाल ने कहा कि केंद्र सरकार का रुख वही है जो मौलाना अबुल कलाम आजाद, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री एमसी छागला और सैयद नुरूल हसन का रुख था. तीनों तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी भी वहां थे. हमारा रुख उच्चतम न्यायालय के फैसले जैसा है. हमने फैसला नहीं बदला, बल्कि संप्रग सरकार ने 2005 में ऐसा किया था. मौजूदा केंद्र सरकार ने कोई नया फैसला नहीं लिया है. केंद्र का फैसला वही है जो 1968 में उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की एक पीठ ने दिया था. ऐसा ही फैसला संविधान सभा ने भी लिया था जिसमें डॉ. बाबा साहब अंबेडकर, मौलाना आजाद और कई मुस्लिम नेता शरीक थे.
उल्लेखनीय है कि केंद्र की भाजपा सरकार ने इस साल अप्रैल में सर्वोच्च न्यायालय से कहा था कि वह एएमयू को गैर अल्पसंख्यक संस्थान करार देने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली संप्रग सरकार के समय दाखिल याचिका वापस ले लेगी. एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का मसला हो या वहां आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं करने का मुद्दा रहा हो, इसे गरम करने की भूमिका पहले से चल रही है. आपको याद ही होगा कि केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री थावरचंद गहलोत ने मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को कुछ दिनों पहले पत्र लिखकर एएमयू में आरक्षण की संवैधानिक प्रक्रिया शुरू कराने की मांग की थी. गहलोत ने मीडिया से भी कहा था कि उनके मंत्रालय को जामिया और एएमयू, दोनों विश्वविद्यालयों के बारे में प्रतिवेदन मिलते रहे हैं, जिनमें यह शिकायत की जाती रही है कि अल्पसंख्यक स्टेटस की आड़ में दलित-आदिवासी और ओबीसी छात्रों को संविधान प्रदत्त आरक्षण और अन्य सुविधाएं सिरे से नकारी जा रही हैं.
यानी, यह साफ है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले एएमयू में दलितों और ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने का मसला गरमाया जाएगा और आरक्षण-कार्ड को नए स्टाइल से चुनावी बिसात पर फेंका जाएगा. लेकिन इस मसले को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से दूर रखा गया और हफ्तेभर बाद दिल्ली में बैठक बुला कर इस पर रणनीति तैयार करने पर विचार-विमर्श किया गया. जबकि इलाहाबाद में होने वाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक पर देशभर की निगाह लगी हुई थी. राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम नागरिकों को भी उम्मीद थी कि कार्यकारिणी में उत्तर प्रदेश का भावी मुख्यमंत्री कौन होगा, उसके बारे में घोषणा की जाएगी. विधानसभा चुनाव में भाजपा का चेहरा कौन होगा, इसे लेकर कुछ अंतरविरोध ही सामने आए, पार्टी ने इस पर कोई आधिकारिक राय जाहिर नहीं की. लोगों को यह लग रहा था कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर केंद्रित होगा, लेकिन वह भी नहीं हुआ. भाजपा कार्यकारिणी असम विधानसभा चुनाव में जीत और केरल में संघर्ष को लेकर आत्मरतिगान ही करती रही. लेकिन इलाहाबाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यूपी-केंद्रित भाषण से यह जरूर स्पष्ट हुआ कि भाजपा किस इरादे से चुनाव में उतरने वाली है. यूपी चुनाव में उतरने के पहले केंद्र की भाजपा सरकार के मुखिया ने यह साफ कर दिया कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की लड़ाई सपा और बसपा से ही होगी, अन्य कोई भी दल उसके रास्ते में नहीं है. भाजपा यह मान चुकी है कि कांग्रेस की यूपी में कोई बिसात नहीं है. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में कई वरिष्ठ नेताओं के मौद्रिक संकेत भी आने वाले दिनों के राजनीतिक रिश्ते बता रके थे. मसलन, कौन नेता अब नेतृत्व से नाराज नहीं है, या नेतृत्व किस नेता के साथ तनाव खत्म कर बेहतर रिश्ते की तरफ बढ़ रहा है.
बहरहाल, उत्तर प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनाव को केंद्र में रख कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण को देखें तो यह बिल्कुल साफ है कि भाजपा इस बार चुनाव में अन्य सारे राजनीतिक दलों को उस दांव पर रखने की कोशिश जरूर करेगी कि सारे दल यह सार्वजनिक शपथ लें कि अगर जीते तो अपने शासनकाल में भ्रष्टाचार की एक भी शिकायत नहीं आने देंगे और अगर एक भी शिकायत आई तो कुर्सी छोड़ देंगे. राजनीतिक दलों के लिए यह मुश्किल चुनौती होगी, लेकिन विधानसभा चुनाव के दरम्यान यह मसला सामने आने वाला है कि मोदी के इतने दिन के शासनकाल में भ्रष्टाचार का कौन सा मुद्दा सामने आया और मोदी के पूर्ववर्ती शासनकाल में इतना ही शासन-अवधि में भ्रष्टाचार के कितने मामले उजागर हुए थे. भ्रष्टाचार का मसला विकास के दावों के साथ-साथ जुड़ा हुआ है. आम नागरिक यह समझते हैं कि भ्रष्टाचार के बिना ही विकास असली विकास है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बाकी बातें तो वैसी ही चलताऊ राजनीति-प्रेरित रहीं, मसलन, यूपी में विकास की गंगा बहा देंगे, वंचित गांवों में बिजली पहुंचा देंगे, कर्जा चुका देंगे… वगैरह, वगैरह. लेकिन मोदी के भाषण का केंद्रीय संदेश यही रहा कि अगर पांच साल में हमने प्रदेश का कोई नुकसान किया तो हमें लात मारकर निकाल देना. स्पष्ट है कि मोदी ने यह चुनौती दूसरे दलों के सामने भी फेंकी. उन्होंने कहा भी कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच प्रदेश को लूटने को लेकर साठगांठ है. मोदी ने विकासवाद को मूल मंत्र बताया और कहा कि जहां-जहां भाजपा की सरकार है, उन प्रदेशों में खुशहाली है.
सम्प्रदायवाद को कोसने वाले नरेंद्र मोदी के समक्ष ही उसी मंच से भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कैराना से हिंदुओं के पलायन का मसला उठा दिया और लोगों को उकसाते हुए सपा को उखाड़ कर फेंकने की अपील की. भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी सम्पूर्ण रूप से असम विधानसभा चुनाव में मिली जीत में डूबती उतराती रही. जो प्रस्ताव पारित हुआ वह भी असम जीत की चाशनी में ही डूबा हुआ था. भाजपा ने असम जीत के नाम पर खुद के अकेली राष्ट्र-व्यापी पार्टी होने का खम ठोका और घोषित किया कि भाजपा ही भारत का वर्तमान है और भविष्य दोनों है. प्रस्ताव में असम में मिली जीत के अलावा केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी में मत-प्रतिशत बढ़ने पर संतोष जताया गया, लेकिन जहां विधानसभा चुनाव सामने है, प्रस्ताव में उसकी कोई चर्चा ही नहीं है.
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का तानाबाना
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर लंबे अर्से से तर्क और प्रतितर्क दिए जा रहे हैं. इन तर्कों और प्रतितर्कों के जाल में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना का मसला भी उलझा हुआ है. तकनीकी तौर पर यह बात खारिज हो चुकी है कि एएमयू की स्थापना सर सैयद अहमद खान ने की थी. इस्लामी अध्ययन के विद्वान और समाजसेवी सर सैयद अहमद खान ने शिक्षा में पिछड़े मुस्लिम समुदाय के लिए एक संस्थान बनाने की कल्पना की थी. मई 1872 में उनके द्वारा एक समिति का गठन किया गया था जिसका नाम था मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी. समिति के प्रयासों से मई 1873 में छोटे बच्चों के एक स्कूल की स्थापना की गई, जो 1876 में हाई स्कूल बना. वर्ष 1877 में तत्कालीन वायसराय लार्ड लिटन ने मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की नींव रखी. 1898 में जब सर सैयद की मृत्यु हुई, तब तक यह कॉलेज एक समृद्ध संस्थान के रूप में अपनी पहचान बना चुका था. माना जाता है कि सर सैयद का मूल उद्देश्य एक मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाने का था. लेकिन मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाने की मांग उनकी मृत्यु के बाद ही मजबूत हुई. 1911 में एक मुस्लिम यूनिवर्सिटी एसोसिएशन बना और 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का गठन कर दिया गया. 1920 के एएमयू एक्ट में यह प्रावधान था कि यूनिवर्सिटी की कोर्ट (सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई) में सभी सदस्य अनिवार्य रूप से मुस्लिम ही होंगे. आज़ादी के बाद जब देश में भारतीय संविधान लागू हुआ तब 1920 के एएमयू एक्ट में कुछ जरूरी संशोधन किए गए. इन संशोधनों के जरिए यूनिवर्सिटी के कोर्ट में सभी सदस्यों के मुस्लिम होने की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई, साथ ही इस्लामिक पढ़ाई की अनिवार्यता को भी खत्म कर दिया गया. 1951 और 1965 में ये संशोधन इसलिए किए गए थे क्योंकि एएमयू एक्ट के पुराने प्रावधान भारतीय संविधान के प्रावधानों के विपरीत थे. लेकिन इसके खिलाफ यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने इस मामले में सुनवाई की. यहां मुस्लिम समुदाय ने अपने तर्क दिए, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों के आधार पर यह माना ही नहीं कि एएमयू की स्थापना सर सैयद अहमद ने की थी. सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि एएमयू की स्थापना तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने की थी. अदालत ने मामले को तकनीकी तौर पर जांचा-परखा. लेकिन भावनात्मक रूप से देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि एएमयू की स्थापना सर सैयद के प्रयासों के परिणाम के बतौर ही सामने आई. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले को विशुद्ध तकनीकी तौर पर देखा और 1967 में यह फैसला सुना दिया कि एएमयू की स्थापना मुस्लिम समुदाय ने नहीं, बल्कि तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने की थी. सुप्रीम कोर्ट की संवैधनिक पीठ ने यह देखा कि जिस एएमयू एक्ट के तहत एएमयू का गठन हुआ था वह एक संसदीय अधिनियम था, जिसे तत्कालीन सरकार ने पारित किया था. मुस्लिम समुदाय 1920 में एक निजी विश्वविद्यालय की स्थापना कर सकता था, क्योंकि उस दौर में ऐसा कोई कानून नहीं था जो उसे ऐसा करने से रोकता. ऐसा कानून 1956 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के गठन के बाद बना. अब यूजीसी की अनुमति के बिना कोई भी विश्वविद्यालय स्थापित नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि यदि मुस्लिम समुदाय ने निजी विश्वविद्यालय की जगह संसदीय अधिनियम के जरिए स्थापित हुए विश्वविद्यालय को चुना था तो यह कैसे माना जा सकता है कि इसकी स्थापना एक समुदाय विशेष ने की थी! न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी लिखा कि यह हो सकता है कि 1920 का अधिनियम मुस्लिम अल्पसंख्यकों के प्रयासों से ही पारित हुआ हो. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि इस अधिनियम से जो यूनिवर्सिटी स्थापित हुई, वह मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने स्थापित की थी. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के साथ ही घोषित रूप से एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा छिन गया. विडंबना यह है कि 1977 में जनता पार्टी की सरकार के उस मंत्रिमंडल ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने के लिए संशोधन को मंजूरी दी थी, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल थे. यह संशोधन सदन के पटल पर लाया गया था लेकिन इसके पारित होने से पहले ही जनता पार्टी की सरकार गिर गई. 1981 में कांग्रेस सरकार ने एएमयू एक्ट में संशोधन कर दिया. इन संशोधनों से 1967 का सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पलट दिया गया और 1920 के मूल एक्ट की प्रस्तावना में भी बदलाव कर दिया गया. 1920 के एक्ट में दी गई यूनिवर्सिटी की परिभाषा को भी इस संशोधन के जरिए बदल दिया गया. मूल एक्ट में लिखा गया था, यूनिवर्सिटी मतलब अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी. लेकिन 1981 में इसे संशोधित कर लिखा गया, यूनिवर्सिटी मतलब भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित किया गया शैक्षिक संस्थान, जिसका जन्म मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज अलीगढ़ के रूप में हुआ था और जिसे बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बदल दिया गया.1981 के संशोधन का किसी भी दल ने विरोध नहीं किया था. तब जनता पार्टी ने भी इसका समर्थन किया था. उस दौर में भाजपा के उपाध्यक्ष रहे राम जेठमलानी और जनता पार्टी के सांसद रहे सुब्रमण्यम स्वामी भी संशोधनों के समर्थन में थे. वर्ष 2005 में एएमयू के एक फैसले ने फिर से विवाद गरमा दिया. एएमयू ने 2005 से मेडिकल के पोस्ट ग्रैजुएट पाठ्यक्रमों में मुस्लिम छात्रों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था कर दी. एएमयू के इस फैसले को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी गई. अक्टूबर 2005 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा फिर खारिज कर दिया और सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले को सही करार देते हुए 1981 के संशोधनों को असंवैधानिक करार दे दिया. 50 प्रतिशत मुस्लिम छात्रों को आरक्षण देने के फैसले पर भी रोक लगा दी गई. केंद्र की तत्कालीन मनमोहन सरकार ने इस फैसले के विरोध में अपील दाखिल की. लेकिन हाईकोर्ट की डबल बेंच ने पूर्व के फैसले को सही ठहराया और माना कि एएमयू की स्थापना मुस्लिम समुदाय ने नहीं, बल्कि तत्कालीन सरकार ने की थी, लिहाजा उसे अल्पसंख्यक का दर्जा नहीं दिया जा सकता. इस फैसले के खिलाफ भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल की, जो अभी लंबित है. मौजूदा केंद्र सरकार ने उस अपील को वापस लेने का फैसला किया है, यानी इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला ही मान्य रहेगा. भाजपानीत केंद्र सरकार का यह फैसला ऐसे समय में लिया गया है जब उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव नजदीक है. स्वाभाविक है कि केंद्र के इस फैसले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होगा, लेकिन इस बार के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का जाल अकादमिक है और सोची-समझी रणनीति से बुना जा रहा है.