राज्यसभा सर्वशक्तिमान है. राज्यसभा में देश के चुने हुए बुद्धिजीवी, लोकतंत्र के प्रहरी माने जाने वाले नागरिक, संविधानविद्, वरिष्ठ व्यक्ति जो लोकसभा या राज्यसभा के सदस्य रह चुके हैं, सदस्य होते हैं. उनके चुनाव में यद्यपि राजनैतिक दलों की भूमिका होती है, पर माना जाता है कि देश की बुनियादी समस्याओं पर उनका रुख़ कमोबेश एक जैसा ही होगा और वे दलों के दलालों की तरह नहीं, देश के लोकतंत्र के प्रहरी और जनता के हितों के पहरुओं की तरह काम करेंगे.
यह सर्वशक्तिमान राज्यसभा कमज़ोरों का जमावड़ा बन गई है. देश के ऐसे लोगों के हितों की रक्षा नहीं कर पा रही है, जिनके पास आवाज़ उठाने की ताक़त नहीं है. रंगनाथ मिश्र कमीशन का गठन सच्चर कमीशन से पहले हुआ था. इसके टर्म ऑफ रिफरेंस में सुप्रीम कोर्ट के कहने पर अन्य धर्मों में दलितों की पहचान जुड़ा था. ईसाई संगठन सुप्रीम कोर्ट गए थे कि उनके दलितों को भी आरक्षण की सुविधा मिले, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला लिया था. रंगनाथ मिश्र कमीशन का गठन कमीशन ऑफ इंक्वायरी एक्ट के तहत हुआ था.
रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट सच्चर कमेटी के बाद आई, लेकिन इसकी स़िफारिशें और इसके नतीजे आंख खोलने वाले हैं. जब इस कमीशन की रिपोर्ट संसद में पेश नहीं की गई तो कई लोग सूचना के अधिकार के तहत मुख्य सूचना आयुक्त के पास गए. मुख्य सूचना आयुक्त ने सरकार से कहा कि उसे रिपोर्ट और जानकारी देनी चाहिए. सरकार इसके ख़िला़फ कोर्ट में चली गई. क्यों सरकार इस रिपोर्ट को सदन में नहीं रख रही? ऐसा लग रहा है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट को भी अंगूठा दिखा रही है.
चौबीस नवंबर का दिन राज्यसभा के इतिहास में दु:खद दिन के रूप में देश के लोग याद करेंगे. उस दिन राज्यसभा के सदस्यों ने मांग की कि रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाए. यह मांग अनसुनी कर दी गई, तब सदस्यों ने हंगामा किया. दो बार के स्थगन के बाद सदस्यों को दो-दो मिनट बोलने की इजाज़त दी गई, जिसमें सभी सदस्यों ने कहा कि जब रिपोर्ट चौथी दुनिया ने छाप दी है तो क्यों इसे टेबल नहीं किया जाता.
पहली बार चेयर पर सभापति थे और दूसरी बार उप सभापति. सभापति महोदय स्वयं कमज़ोर वर्ग से आते हैं. उनका नाम भी उप राष्ट्रपति पद के लिए वामपंथी दलों ने सुझाया था, लेकिन लगता है कि उप राष्ट्रपति बनने के बाद (और इसी वजह से वे राज्यसभा के सभापति हैं) उन्होंने अपने को कमज़ोर और ग़रीब तबकों से अलग कर लिया है. वे चाहते तो आसानी से सरकार को निर्देश दे सकते थे कि सरकार बताए कि कब वह रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट को सदन में रखेगी.
उसी दिन लोकसभा में गृहमंत्री चिदंबरम ने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पेश की थी. इसके दो दिन पहले रिपोर्ट एक अख़बार में लीक हो गई थी. चिदंबरम राज्यसभा में उस समय उपस्थित थे, क्यों लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पेश हुई और रंगनाथ मिश्र कमीशन की नहीं, इसे समझना चाहिए. लिब्रहान कमीशन का रिश्ता भावनात्मक सवाल से था, जबकि रंगनाथ मिश्र कमीशन का रिश्ता देश की ज़मीनी हक़ीक़त से. सरकार भावनात्मक सवाल उठा भाजपा को कठघरे में खड़ा करना चाहती थी, जबकि वह ख़ुद खड़ी हो गई, क्योंकि उस समय प्रधानमंत्री कांग्रेस का था. लिब्रहान कमीशन की कार्रवाई रिपोर्ट से भाजपा का फायदा हुआ और भाजपा जो टुकड़ों में बंटी नज़र आ रही थी, ऊपरी तौर पर एक नज़र आने लगी है. भाजपा का साथ कांग्रेस अक्सर देती दिख जाती है, इसीलिए भाजपा भी कांग्रेस का साथ देती है.
राज्यसभा के सभापति ने लोकसभा में रखी गई लिब्रहान कमीशन की तर्ज़ पर रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट रखने का निर्देश नहीं दिया, अगर उस दिन वे निर्देश दे देते तो कमीशन द्वारा पहचाने गए क्रिश्चियन समाज और मुस्लिम समाज के दलितों के लिए आरक्षण का फायदा उठाने का दरवाज़ा खुल जाता. देश का ईसाई और मुस्लिम समाज तथा इनके सबसे कमज़ोर दलित वर्ग के लोग अभी कितने ख़ून के आंसू गिराएंगे, कहा नहीं जा सकता और इसकी ज़िम्मेदारी राज्यसभा के सभापति की होगी.
क्या हुआ राज्यसभा के सर्वशक्तिमान सांसदों की ताक़त का, लगभग हर दल के सांसद चाहते थे कि यह रिपोर्ट सदन के पटल पर रखी जाए, पर वे न सरकार को तैयार कर सके और न ही चेयर पर दबाव डाल सके. क्या राज्यसभा, जिस पर लोकतंत्र को संभालने की ज़िम्मेवारी है, उच्च सदन कहा जाता है, शक्तिहीनों और निर्वीर्य लोगों के बैठने का एक क्लब भर रह गया है? क्या राज्यसभा से जनता को अपना भरोसा ख़त्म कर लेना चाहिए?
राज्यसभा के सदस्यों को हम बताना चाहते हैं कि वे किस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ को सदन में रखवाने में विफल रहे. ईसाई समाज और मुस्लिम समाज के दलितों को आरक्षण का लाभ मिले, इसके लिए एम करुणानिधि ने प्रधानमंत्री को आठ फरवरी 2006 को एक पत्र लिखा, जिसका उत्तर प्रधानमंत्री ने 28 फरवरी 2008 को दिया, जिसमें उन्होंने वायदा किया कि वे इन सवालों पर ध्यान देंगे. प्रकाश करात ने 11 अगस्त 2005 में, मायावती ने 2 सितंबर 2005 और 30 अगस्त 2007 में दो बार प्रधानमंत्री को लिखा. रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 14 सितंबर 2007 और रामविलास पासवान ने रसायन व उर्वरक मंत्री के नाते 29 मई 2006 को प्रधानमंत्री को ख़त लिखा. श्रीमती जयललिता ने तो मुख्यमंत्री के नाते 28 नवंबर 1995 को तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंहा राव को ख़त लिख दिया था. श्री ए बी वर्धन ने 8 अक्टूबर 2007 को डॉ. मैरी जान को लिखकर वायदा किया कि उनकी पार्टी के सांसद कांस्टीट्यूशन (शेड्यूलकास्ट) ऑर्डर 1950 अमेंडमेंट बिल 1996 सदन में रखने के लिए सरकार पर दबाव बनाएगी. जनता दल (यू) ने इस आशय का प्रस्ताव मई 2009 में पास किया. राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों को हम पुनः बताना चाहते हैं कि जिन लोगों ने प्रधानमंत्री को खत लिखे हैं, उन्हीं की इच्छा से आप इस माननीय सदन के सदस्य बने हैं. कम से कम उनकी इच्छा का मान तो रखिए.
सबसे मजेदार बात है कि वर्तमान क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्मस कमीशन केचेयरमैन के नाते 6 अगस्त 2007 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ख़त लिखा, जिसे हम यहां छाप रहे हैं. अब वे ख़ुद क़ानून मंत्री हैं, क्या वे अपने ख़त और सोनिया गांधी के सम्मान के लिए इस रिपोर्ट को सदन में जल्दी से जल्दी रखेंगे? आंध्र प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी ने सोनिया गांधी को खत लिखकर इस पर तत्काल कार्रवाई की मांग की थी. हम इस खत को भी राज्यसभा के सदस्यों की जानकारी के लिए छाप रहे हैं.
राज्यसभा के सदस्यों की जानकारी के लिए हम बता दें कि आंध्र प्रदेश विधानसभा ने 25 अगस्त 2009 को एक प्रस्ताव पास कर दलित क्रिश्चियन को शेड्यूल कास्ट स्टेटस देने की मांग केंद्र सरकार से की है. उत्तर प्रदेश सरकार ने 5 दिसंबर 2006 को केंद्र सरकार से दलित मुस्लिम और दलित क्रिश्चियन को शेड्यूल कास्ट का दर्ज़ा देने की मांग की. भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भी 7 जुलाई 2007 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर मांग का समर्थन किया था.
इतना ही नहीं, राज्यसभा के जो सांसद अपने राजनैतिक दल से निर्देशित होते हैं, उन्हें हम बताना चाहते हैं कि उनके दलों ने किस सन् में अपने चुनाव घोषणापत्र में इस मांग का समर्थन कर सरकार बनने पर इसका क़ानून बनाने का वायदा किया है. कांग्रेस पार्टी ने सन् 2004 के चुनाव घोषणापत्र में, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवाद) ने 2009 में, सीपीआई ने 2009 में, बहुजन समाजवादी पार्टी ने 2009 में, लोक जनशक्ति पार्टी ने 2009 में, डीएमके ने 2009 में, एआईडीएमके ने 2009 में, जनता दल (यू) ने 2009 में, तेलगूदेशम ने 2009 में, एमडीएमके ने 2009 में, वीसीके (विदुथलाई चिरुथैगल काट्ची) ने 2009 में और प्रजा राज्यम पार्टी ने भी 2009 के चुनाव घोषणापत्र में इस वायदे का उल्लेख किया है. सरकार द्वारा नियुक्त किए गए सच्चर कमीशन ने सोशल इकनॉमिक एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ द मुस्लिम कम्युनिटी ऑफ इंडिया के पेज 201-202 पर तथा नेशनल कमीशन फॉर माइनॉरिटी ने कन्क्लूजंस एंड रिकमेंडेशंस नंबर 8 में इन मांगों की स़िफारिश की है.
महामहिम सभापति राज्यसभा जी, राज्यसभा सदस्यों को कमज़ोर और नपुंसक मत बनाइए, इनकी मांगों पर ध्यान दीजिए और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट को सदन के पटल पर पेश कराइए. क्योंकि जब तक रिपोर्ट पेश नहीं होगी, सरकार बताएगी नहीं कि वह इस पर क्या कार्रवाई करने जा रही है. जिस मांग के समर्थन में सारे दलों के अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, दलों के घोषणापत्र हों, उस मांग को अनदेखा कर, सरकार को निर्देश न दे, आप उस विचारधारा का भी अपमान कर रहे हैं जिसने आपको राज्यसभा के सभापति पद तक पहुंचाया है.
राज्यसभा के सदस्यों को शायद इस बात का एहसास होगा कि देश की जनता सर्वोपरि है और उसके कमज़ोर वर्गों की आवाज़ और उसके हितों को अनदेखा करने का काम यदि ये खुद करेंगे तो उनसे सवाल पूछने का काम स़िर्फ और स़िर्फ आज़ाद और निर्भीक प्रेस करेगा. क्या यह रिपोर्ट राज्यसभा में पेश हो पाएगी माननीय सभापति जी राज्यसभा, और क्या माननीय राज्यसभा सदस्यों आप में अभी भी कुछ ताक़त या शर्म बची है जो आप लोकसभा सदस्यों की तरह, जैसे उन्होंने लिब्रहान कमीशन की रिपोर्ट पेश करवा ली, रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट पेश करवा सकते हैं? क्या फर्क़ है दोनों में, दोनों कमीशन हैं, दोनों की रिपोर्ट अ़खबारों में छपी, एक की अंग्रेज़ी में और एक की हिंदी में. क्या हिंदी के अ़खबार में छपी रिपोर्ट की महत्ता कम हो जाती है? देश की जनता के कमज़ोर वर्ग, ईसाई और मुस्लिम समाज से जुड़े दलित सवाल का जवाब चाहते हैं. राज्यसभा के सदस्यों अली अनवर, अमर सिंह, सीताराम येचुरी, तारिक अनवर, वेंकैया नायडू, अहलूवालिया, जयंती नटराजन और डी राजा सहित उन सभी से सवाल कि रिपोर्ट पेश कराइए, नहीं तो जनता से मा़फी मांगिए कि हम आपके विश्वास के लायक नहीं हैं.