हिंदी के प्रख्यात आलोचक और साहित्यकार नामवर सिंह जी अब हमारे बीच नहीं रहे। मंगलवार रात तकरीबन 11।50 बजे आखिरी सांस ली। उनके साथ उनका परिवार साथ था। पिछले एक महीने से उनका इलाज दिल्ली के एम्स ट्रॉमा सेंटर में चल रहा था। उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था जिसके बाद से ही लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर थे।

नामवर सिंह का नाम उन चुनिंदा लोगों में है जिन्होंने हिंदी साहित्य में आलोचना को एक नया आयाम और नई ऊंचाई दी थी। छायावाद, नामवर सिंह और समीक्षा, आलोचना और विचारधारा जैसी किताबें खूब चर्चित रहीं हैं। पृथ्वीराज रासो की भाषा, इतिहास और आलोचना, कहानी नई कहानी, कविता के नये प्रतिमान, दूसरी परंपरा की खोज, वाद विवाद संवाद आदि जैसी आलोचना में उनकी किताबें मशहूर हैं। उनका साक्षात्कार ‘कहना न होगा’ भी सा‍हित्य जगत में लोकप्रिय है।


नामवर सिंह का जन्म वाराणसी के जीयनपुर नामक गांव में 28 जुलाई, 1926 को हुआ। उन्होंने वाराणसी के हीवेट क्षत्रिय स्कूल से मैट्रिक और उदयप्रताप कालेज से इंटरमीडिएट किया। 1941 में कविता से लेखक जीवन की शुरुआत की। उनकी पहली कविता 1941 में ‘क्षत्रियमित्र’ पत्रिका (बनारस) में प्रकाशित हुई।

नामवर सिंह ने 1949 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बीए और 1951 में वहीं से हिन्दी में एमए किया। 1953 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याख्याता के रूप में अस्थायी पद पर नियुक्ति किए गए। 1956 में पी-एच।डी। (‘पृथ्वीराज रासो की भाषा’) किया।

1959 में चकिया चन्दौली के लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार रहे। इसके बाद 1959-60 में सागर विश्वविद्यालय (म।प्र।) के हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर रहे। 1960 से 1965 तक बनारस में रहकर स्वतन्त्र लेखन किया। 1965 में ‘जनयुग’ साप्ताहिक के सम्पादक के रूप में दिल्ली में काम किया। इस दौरान दो साल तक राजकमल प्रकाशन (दिल्ली) के साहित्यिक सलाहकार रहे।

1967 से उन्होंने ‘आलोचना’ त्रैमासिक का सम्पादन शुरू किया। 1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय (राजस्थान) के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष-पद पर प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किए गए। 1971 में ‘कविता के नए प्रतिमान’ पर साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला।

1974 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के भारतीय भाषा केन्द्र में हिन्दी के प्रोफेसर के रूप में योगदान दिया और 1987 में सेवा-मुक्त हुए। फिर वह अगले पांच साल के लिए उनकी जेएनयू में पुनर्नियुक्ति हुई। वह 1993 से 1996 तक राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के अध्यक्ष भी रहे।

यहां पढ़ें उनकी ये मशहूर कविताएं: 

पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल
चाँद था, हम थे, हिला तुमने दिया भर ताल
क्या पता था, किन्तु, प्यासे को मिलेंगे आज
दूर ओठों से, दृगों में संपुटित दो नाल ।

मंह मंह बेल कचेलियाँ

मँह-मँह बेल कचेलियाँ, माधव मास
सुरभि-सुरभि से सुलग रही हर साँस
लुनित सिवान, सँझाती, कुसुम उजास
ससि-पाण्डुर क्षिति में घुलता आकास

फैलाए कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाए बाहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि-दिशि लघु-लघु हाथ !

विजन गिरिपथ पर चटखती
विजन गिरीपथ पर चटखती पत्तियों का लास
हृदय में निर्जल नदी के पत्थरों का हास

‘लौट आ, घर लौट’ गेही की कहीं आवाज़
भींगते से वस्त्र शायद छू गया वातास ।

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