पुरातत्व एवं उत्खनन विभाग की उपेक्षा के कारण बेगूसराय जिल के प्राचीन प्रशासनिक केन्द्र, धार्मिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्व के स्थल लुप्त होते जा रहे हैं. जिले में शुंगकाल, कल्वकाल, मौर्यकाल, गुप्तकाल, पालवंश, सेनवंश एवं मुगलकालीन शासन के स्पष्ट प्रमाण बिखरे पड़े हैं. जिले के प्रसिद्ध स्थलों पर से पर्दा नहीं हटने के कारण इन अवशेषों को सुरक्षित रखने और इनकी ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के प्रयासों पर विपरीत असर पड़ रहा है. ऐतिहासिक स्थलों में जयमंगलागढ़, नौलागढ़, जयमंगला देवी के मंदिर, एशिया प्रसिद्ध ताजा जलस्त्रोत से निर्मित काबर झील, पचम्बा का चामुंडा देवी का मंदिर, वीरपुर (वरैयपुरा) की आदमकद सूर्य प्रतिमा एवं विशालकाय वसहा बैल (नन्दी), गौतम बुद्ध का ‘आपण निगम’ एवं हरसाई स्तूप मुख्य हैं.
प्राचीनकाल में गंगा नदी की जलधारा बेगूसराय जिले में उत्तरायण बहती थी, जिसके किनारे को बृहत तट कहा जाता था. कालान्तर में बृहत तट का क्षय होते गया और आज वह बीहट नाम से जाना जाता है. पहले गंगा नदी की जलधारा सिमरिया, बीहट एवं महना के पूरब सिंघौल, केशावे, उलाव एवं नागदह और मसूरियाडीह, कोला चौर से होते हुए गंडक नदी में जाकर मिलती थी, जिसका उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है. तब जलमार्ग ही तीर्थाटन एवं व्यापार का प्रमुख मार्ग था. बौद्ध साहित्य के अनुसार जिले का जयमंगलागढ़, गंगा, बागमती (वेगमती) एवं गंडक नदी का संगम स्थल था. वह बड़ा व्यवसायिक केन्द्र था जिसे ‘आपण निगम’ (जलधारा से घिरा बाजार) कहा जाता था.
वह आपण निगम वर्तमान में काबर झील के मध्य में अवस्थित जयमंगलागढ़ है. गौतम बुद्ध राजगृह से अपनी जन्मभूमि जाते समय इसी जलमार्ग से गुजरे थे और आपण निगम (जयमंगला गढ़) में इनका ठहराव हुआ था. ठहराव के दौरान इन्होंने अपने शिष्यों को उपदेश दिया था और ‘विनय पिटक’ (बौद्धोें के नियम) के एक अध्याय की रचना की थी. यहां एक विद्यापीठ भी था, जिसमें ‘शैल’ एवं ‘केलय’ नाम के बौद्ध भिक्षु शिक्षक थे. इसकी पुष्टि राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा रचित ‘त्रिपट’ से होती है. भगवान बुद्ध यहां से प्रस्थान करते समय उक्त दोनों शिष्यों को बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए छोड़ गए थे. नदियों का यह संगम स्थल व्यापारियों के ठहरने के लिए उत्तम एवं सुरक्षित था.
जयमंगलागढ़, गढ़पुरा, सुघरन, मसूरियाडीह, योगियाडीह, चिरैयाडीह, वीरपुर, वरैयपुरा, नौलागढ़, असरारी, रानीडीह, भगवानपुर, समसाघाट, मंसूरचक आदि स्थानों को देखने से स्पष्ट होता है कि ये सब टीले पर बसे हुए हैं. इन क्षेत्रों से ऐसी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, जो इसके प्रशासनिक एवं धार्मिक केन्द्र होने के प्रमाण देती हैं और सम्राट अशोक के शासन तथा गौतम बुद्ध के प्रभाव क्षेत्र को दर्शाती हैं. यह भूभाग तत्कालीन मगध साम्राज्य का महत्वपूर्ण अंग था. गौतम बुद्ध के काल में जयमंगलागढ़ शाक्त तांत्रिक गढ़ था.
जहां एशिया प्रसिद्ध ताजा जलश्रोत से निर्मित काबर झील के मध्य में 52 शक्तिपीठों में से एक की अधिष्ठात्री मंगला देवी का मंदिर है, जो देश के प्राचीन मंदिरों में से एक है. इसे ‘जागृत’ स्थल एवं सिद्ध शक्तिपीठ माना जाता है. जयमंगलागढ़ मंदिर के दक्षिणी द्वार के पास खुदाई में नवग्रह की मूर्तियां भी मिली थीं. यहां तीन हरसांई स्तूप है, जिसमें भगवान बुद्ध का अवशेष बताया जाता है.
यह निर्विवाद है कि अतीत में इस गढ़ का निर्माण किसी शक्तिशाली एवं प्रभावशाली राजा द्वारा कराया गया होगा. गढ़ के चारो ओर झील का पानी होना किसी सुरक्षित दुर्ग का प्रतीक है. मसूरियाडीह के ऊपरी सतह से गुप्तकालीन मुहर प्राप्त हुआ है, जिसपर त्रिशूल एवं समुद्र अंकित है, जो शैवधर्म प्रधान प्रशासनिक केन्द्र का प्रतीक है. नौलागढ़ से गेरूआ रंग का मृदंगम एवं मूर्ति, चांदी का सिक्का तथा नाद वाला कुंआ मिला है. यह गुप्तकालीन शासन का संकेत देता है. वीरपुर (वरैयपुरा) से काले पत्थर की आदमकद सूर्य की प्रतिमा एवं विशालकाय वसहा प्राप्त हुआ है, जो पालनकालीन सभ्यता का प्रतीक है.
सिंघौल में एक टीले पर रखे चबूतरे पर चार स्तूप के भग्नावशेष प्राप्त हुए हैं, जो बौद्धकालीन हैं और यहां बौद्ध बिहार होने का संकेत देते हैं. पचम्बा में चामुंडा देवी की मूर्ति प्राप्त हुई है. वरैयपुरा में काले पत्थर की मूर्ति, दरवाजा, खिड़की, चौखट एवं स्तम्भ मिला है, जो पालकालीन सत्ता का संकेत देता है. यहां कुछ हरे रंग के बर्तन भी मिले हैं, जो मुगलकालीन शासन की ओर इशारा करते हैं. ऐतिहासिकता के इतने प्रमाण होने के बावजूद, पुरातत्व एवं उत्खनन विभाग यहां खनन एवं खोज करने के प्रति उदासीन है.