रवीश कुमार सत्ता विरोध के स्वर के हीरो बन चुके हैं । वह वक्त आसान नहीं होगा जब आज की सत्ता रवीश कुमार पर हाथ धरेगी । लेकिन तब होगा क्या । फिलहाल छोड़िए इस बात को और समझिए कि रवीश कुमार कह क्या रहे हैं । रवीश की यात्रा लंबी, सफल और आप के दिमाग को झिंझोड़ देने वाली है । उन्होंने रात नौ बजे को सिर्फ एक आदमी के ‘प्राइम टाइम’ में प्रसिद्ध कर दिया है । जबकि नौ बजे हर किसी का प्राइम टाइम होता है । रवीश ने तमाम जरूरी मुद्दों पर जो लंबी लंबी सीरीज कीं उन तमाम सीरीज ने हर किसी को रवीश कुमार को जानने में अभूतपूर्व मदद की । मैं समझता हूं आज के रवीश का यही मजबूत आधार रहा । इसी के चलते आज की तारीख में रवीश के हर चाहने वाले को रात नौ बजे प्राइम टाइम में सिर्फ रवीश का इंतजार रहता है । कमबख्त यह भी तो एक सिरदर्द जैसा ही है न !
पर आज रवीश क्या कह रहे हैं । जब ndtv के लिए मोदी को किसी भी समय ‘लाइव’ दिखाना मजबूरी बन गया है और कई बार तो प्राइम टाइम की जगह भी , ऐसे में हम अभिव्यक्ति की आजादी के साथ बहुत से तमाम आते खतरों को देख रहे हैं । ताजा उदाहरण जिग्नेश मेवानी का है । लेकिन इस सत्ता के गुरूर पर जरा भी आंच नहीं दिखती। शायद गलत लिखा । लिखना चाहिए कि ऐसी हरकतों से विरोध का स्वर उठाने वालों के पुरुषार्थ की परीक्षा ली जा रही है । और जिस समय कुछ ‘भीषण’ होगा तब देखा जाएगा कि विरोध की भीड़ जंतर-मंतर से निकल कर जंतर-मंतर ही पहुंचती है या कुछ आगे भी जाती है । यह त्रासदी है पर सत्ता जानती है कि जो उसे वोट नहीं देते उनकी विरोध की चीख चिल्लाहट कहां से कहां तक है । रवीश अपने पक्ष में प्राइम टाइम का प्रचार करते हुए एक विज्ञापन में कहते हैं ‘…… सीबीआई को किस तरह के जवाब देने चाहिए । जवाब तो उनका आएगा नहीं । इसलिए नहीं आएगा कि हमारा सवाल सही है ।नफरत का एजेंडा जिस दिन थक जाएगा, भीड़ के पांव में दर्द बहुत होगा । उस दिन लड़खड़ाने से बेहतर है आज अपना सम्भाल लीजिए । रात के नौ बज जाएं तो प्राइम टाइम लगा लीजिए एनडीटीवी इंडिया पर ।’ ‘नफरत का एजेंडा’ ! जी । रवीश का पैगाम सही है । लेकिन एक बार चारों ओर नजर घुमा कर देखिए । आपको भी घेर लिया गया है चारों ओर से और सब धीरे-धीरे अपने तरीकों से गरदन झुका रहे हैं, मान रहे हैं कि सब कुछ बेकार जा रहा है । फैज़ान मुस्तफा जिनके दर्शक कम नहीं हैं वे भी स्वीकारते हैं कि लगता है कि ‘लीगल एवेअरनेस वेब सीरीज’ का इंपेक्ट नहीं पड़ रहा । भाषा सिंह लिखती हैं ‘…. चूंकि न्यायपालिका से लेकर लोकतंत्र के तमाम खंभे इस नफरती हुजूम के आगे नतमस्तक हैं , लिहाजा कहीं से भी इन पर रोक लगाने, लगाम कसने की कोई सूरत फिलहाल नजर तो नहीं आ रही ।’ रवीश भी इस बात को तो जान ही रहे होंगे । शायद इसीलिए उनका तेवर इधर कुछ बदला है । ‘सबका भारत या एकतरफा भारत’ सीरीज में उनकी शैली व्यंग्यात्मक हो गयी है । वे गोदी मीडिया के एंकर और एंकरनियों का मखौल उड़ाते हैं । व्हाट्सएप मैसेजेस के बारे में चेताते हैं । हिंदी मीडियम के बच्चों का इस नफरती दुनिया में इस्तेमाल पर वे मां बापों को चेतावनी देना चाहते हैं । आप कह सकते हैं कि इस सबके सिवा वे और कर भी क्या सकते हैं । पर सबसे बड़ा सवाल है कि चेत कौन रहा है या रवीश की इन बातों का असर किन पर कितना हो रहा है । कोई सर्वे है, नहीं है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि नौजवान बेरोजगार पीढ़ी इन सब बातों से अनजान है ।वह बहकी हुई है, नफरत की सदियों पुरानी ढंकी हुई आग में आज खेल रही है । ये पीढ़ी अपने अभिभावकों से दूर जा पड़ी है । सत्ता सफल है अपने इरादों में । मोदी का तंत्र एक पूरे किले जैसा आज हम देख रहे हैं । तेजी से गुजरते वक्त के साथ हर कोई बेबस और लाचार सा लग रहा है । मोदी न हिटलर की छवि बनाना चाहते हैं न इंदिरा गांधी और उनकी इमरजेंसी की । वे इन सबके भीतर से अपने की रूपों के साथ प्रकट होना चाहते हैं। वे मानते हैं कि गरीब जनता उन्हें भगवान समझती है । और कुछ समय बाद जिस दिन राम मंदिर बन जाएगा और श्रद्धालु उसमें पूजा करने लगेंगे उस दिन मोदी को ‘प्रकट रूप में’ ‘राम का अवतार’ स्वीकार लिया जाएगा। अब सोशल मीडिया की बहसों का कोई अर्थ नहीं रह गया है । सारे पत्रकार निरर्थक से जान पड़ते हैं । आप कितनी भी मोदी की आलोचना कीजिए । कहिए कि मोदी ने गलत तथ्य प्रस्तुत किये, झूठ बोला , गलत आंकड़े बताये , सच्चाई यह है कि कोई आपकी सच्चाई नहीं सुनने वाला । क्योंकि इन सबसे ऊपर है मोदी की कनैक्टिविटी।जिसका कोई तोड़ आपके पास नहीं है ।आपको अपनी दुकान चलानी है, तब तक चलाते रहिए जब तक आप पर वज्रपात नहीं होता । एक एक कर पत्ता गिरेगा । क्योंकि वे जान गये हैं कि आपकी पहुंच जंतर-मंतर से जंतर-मंतर तक है । इसके बाद एक दूसरे पर लानत मलानत करके आपको हो जाना है । ब्रेख्त की (शायद) उस कविता को सार्थक बनाना है जिसे आजकल की लोग खूब दोहराते हैं कि पहले वे उनके लिए आए थे फिर उनके लिए फिर …. खैर …. तो इस पूरी बात का मतलब क्या हुआ । यही कि रवीश कुमार की मेहनत (इन दिनों की) और सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफार्म हालात को बदलने के लिए तो नाकाफी हैं । बल्कि नामुमकिन से दिख रहे हैं। बड़े से बड़ा कौन ऐसा पत्रकार या चिंतक है जो दावा कर सके कि आज के इस माहौल की मैंने ‘हूबहू’ कल्पना पहले से कर ली थी । कोई नहीं है । मोदी के आने से हालात बद्तर होंगे यह सामान्य सी गणना थी पर मौजूदा वक्त का दृश्य तो अपनी आंखों में किसी ने नहीं संजोया था । यह वैसे ही है जैसे आपके घर में कोई अनजाना आ घुसे और धीरे-धीरे आपके दिल दिमाग को इस कदर जकड़ ले कि आपको कुछ सूझे ही नहीं । मौजूदा वक्त ऐसा ही है ।
फिर भी रवीश कुमार को सुनते जाएं । अपूर्वानंद और अभय दुबे के तर्कपूर्ण विश्लेषण सुने । क्योंकि आपको सुनना अच्छा लगता है । शीबा असलम और आरफा खानम की तहरीर अच्छी लगती है । संतोष भारतीय जब अखिलेंद्र प्रताप सिंह से बातचीत करते हैं तो अच्छा लगता है । मुकेश कुमार के कार्यक्रम , आशुतोष के इंटरव्यू और आलोक जोशी की आवाज और तकरीर अच्छी लगती है । और कांग्रेस – पीके पर छपाक- छपाक कार्यक्रम भाते हैं । अनिल त्यागी और श्रवण गर्ग को भी न सुना जाए तो कुछ मिस हुआ लगता है । सबको सुनिए पर इतना जानते हुए कि सब बेकार है । बस अब इतना समझ कर ही कि रस लेना है तो रस ले रहे हैं ।
धर्म संसदें और होंगी और आपकी छाती पर होंगी । और आप कुछ भी कर सकने में लूले लंगड़े साबित होंगे । यह निराशाजनक लेख नहीं है । यह वैसा सब है जो हो रहा है और होता दिख रहा है । रवीश कुमार का प्राइम टाइम चलता रहना चाहिए । कहते हैं न – ‘शो मस्ट गो आन’ ।
रवीश कुमार कहिन …..
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