बीते 30 मई को राजापुर के गांधी मैदान में करीब 15,000 गांववाले इस परियोजना को वापस करने की मांग को लेकर जमा हुए थे. इसमें पुरुषो और युवाओं के साथ महिलाओं ने भी भारी संख्या में भाग लिया. स्थानीय मछुआरा समुदाय पूरी तरह से इसका विरोध कर रहा है. इस समुदाय के ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं और उनके पास सिर्फ उनके मकान ही हैं.
वर्तमान समय में हमारा देश जमीन की घटती उर्वरा शक्ति से लेकर बाढ़-सूखे और बेरोजगारी तक की गंभीर समस्याओं के दौर से गुजर रहा है. ऐसे में कोशिश यह होनी चाहिए थी कि जो क्षेत्र इन सभी समस्याओं से अछूते हैं, उन्हें और भी सशक्त बनाने की दिशा में काम हो, लेकिन हो रहा है ठीक इसका उल्टा. महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले का नाणार अपनी उपजाऊ जमीन और आम और धान की रिकॉर्ड उत्पादन के लिए मशहूर है. इस इलाके में पर्याप्त बारिश होती है, यही कारण है कि यहां के किसान विदर्भ और मराठवाड़ा के किसानों की अपेक्षा खुशहाल हैं. बिना सरकारी सहायता के ही यहां के किसान अच्छा उत्पादन करते हैं और आत्मनिर्भर हैं. इस इलाके की महता इस बात से समझी जा सकती है कि महाराष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद में अकेले कोंकण 41 प्रतिशत का योगदान करता है.
इस इलाके में किसी भी व्यक्ति के पास 100 से कम आम के पेड़ नहीं हैं. सिर्फ अल्फांसो आम से ही यहां के एक साधारण परिवार की हर साल की आमदनी 6-10 लाख रुपए है. पिछले साल इस इलाके के 17 गांवों में रिकॉर्ड 54 हजार मीट्रिक टन आम की बिक्री हुई थी. केवल आम से होने वाली ये आमदनी ही यहां के लोगों के जीवनयापन के लिए पर्याप्त है. आम और धान, रागी, तुअर दाल आदि से इतर भारत की मनोहारी पश्चिमी समुद्री तटरेखा वाला यह क्षेत्र मछली उत्पादन और पर्यटन गतिविधियों के हिसाब से भी लोगों की आजीविका से जुड़ा है.
लेकिन अब इस इलाके के ग्रामीणों के सुख-चैन को औद्योगीकरण की नजर लग गई है. जिस जमीन की उपज के जरिए यहां के लोग खुशीपूर्वक जीवनयापन कर रहे हैं, उस जमीन पर विश्व का सबसे बड़ा रिफाइनरी प्रोजेक्ट प्रस्तावित है. इस रिफाइनरी के निर्माण की खबर ने यहां के बाशिंदों की नींदें उड़ा दी है. दरअसल, भारत सरकार और सऊदी अरामको ने रत्नागिरी रिफाइनरी सह पेट्रोकेमिकल परियोजना में संयुक्त रूप से निवेश करने के समझौते पर हस्ताक्षर किया है. सऊदी अरामको दुनिया की सबसे बड़ी तेल उत्पादक कंपनी है. कहा जा रहा है कि यह प्रोजेक्ट 2022 तक शुरू हो जाएगा.
यह दुनिया की सबसे बड़ी सिंगल लोकेशन तेल रिफाइनरी परियोजना होगी, जिसके पास प्रतिवर्ष 60 मिलियन टन कच्चे तेल के प्रसंस्करण की क्षमता होगी. सरकार की नजर में कोंकण की 720 किलोमीटर लंबी तट रेखा इस विशालकाय रिफाइनरी के लिए आदर्श जगह है. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने इस प्रोजेक्ट को लेकर कहा था कि ये प्रोजेक्ट नया इतिहास रचेगा और देश की जनता के लिए फायदेमंद होगा. 3 लाख करोड़ की अनुमानित लागत वाली इस रिफाइनरी परियोजना के जरिए एक लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार देने की बात कही जा रही है. लेकिन अपने जमीनी उत्पादन से हाथ धोने के शर्त पर स्थानीय लोगों को यह प्रोजेक्ट स्वीकार नहीं है.
जब यहां के लोगों को इस प्रोजेक्ट के बारे में कुछ पता नहीं था, तब से ही दूसरे राज्यों के लोग यहां आकर जमीनें खरीदने लगे थे. मई 2017 से जनवरी 2018 के बीच ही नाणार और उसके आसपास के इलाकों की करीब 559 एकड़ जमीन खरीदी गई. गौर करने वाली बात यह है कि खरीदारों का इस इलाके से कोई ताल्लुक नहीं है. जाहिर है, 18 मई 2017 को एमआईडीसी द्वारा रिफ़ाइनरी प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन अधिग्रहण का नोटिफ़िकेशन जारी करने से पहले ही उन लोगों को इस प्रोजेक्ट के बारे में पता था और उन लोगों ने औने-पौने दामों में स्थानीय लोगों से जमीन खरीद ली. अब जब सरकार की तरफ से अधिग्रहण हो रहा है, तो वे लोग जमीनें बेचकर करीब 200 फीसदी का मुनाफा कमा रहे हैं. हालांकि स्थानीय लोग किसी भी कीमत पर इस प्रोजेक्ट के लिए अपनी जमीनें नहीं देना चाहते.
इस इलाके में रिफाइनरी प्रोजेक्ट का भारी विरोध हो रहा है. बीते 30 मई को राजापुर के गांधी मैदान में करीब 15,000 गांववाले इस परियोजना को वापस करने की मांग को लेकर जमा हुए थे. इसमें पुरुषो और युवाओं के साथ महिलाओं ने भी भारी संख्या में भाग लिया. स्थानीय मछुआरा समुदाय पूरी तरह से इसका विरोध कर रहा है. इस समुदाय के ज्यादातर लोग भूमिहीन हैं और उनके पास सिर्फ उनके मकान ही हैं. एक बार विस्थापित हो जाने पर उन्हें आजीविका भी गंवानी पड़ेगी और समुद्री तटों से भी उनका संपर्क टूट जाएगा.
वहीं, जो लोग खेती-किसानी के जरिए आत्मनिर्भर हैं उनका कहना है कि सरकार हमें आखिर कौन सी नौकरी देगी? यहां का सबसे गरीब व्यक्ति भी 4-5 श्रमिकों को काम देता है. गांववालों का दावा है कि रत्नागिरि में ही सिर्फ एक लाख से ज्यादा प्रवासी मजदूर हैं, जो अल्फांसो आम के बगीचों में काम करते हैं. इस मुद्दे पर राजनीति भी तेज होने लगी है. सत्ताधारी पार्टी भाजपा के अलावा सभी दल इस रिफाइनरी प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं. सरकार में शामिल शिवसेना तो इस मुद्दे पर दो टूक बोल चुकी है कि इस प्रोजेक्ट को किसी भी कीमत पर कोंकण में आने नहीं दिया जाएगा. राज ठाकरे और शरद पवार भी इस प्रोजेक्ट के विरोध में हैं.
बर्बादी कैसे लाएगी आबादी…
इस परियोजना के लिए 14 लाख से ज्यादा आम के पेड़ और करीब छह लाख काजू के पेड़ काटे जाएंगे, साथ ही वो 500 एकड़ जमीन भी इस प्रोजेक्ट की भेंट चढ़ जाएगी, जिसमें लहलहाने वाली धान की फसल यहां के लोगों के जीविकोपार्जन का प्रमुख साधन है. प्रोजेक्ट का नकारात्मक प्रभाव इस इलाके की वनस्पतियों, जीव-जंतुओं और नाजुक तटीय पर्यावरण पर भी पड़ेगा. 15,000 एकड़ के क्षेत्र में प्रस्तावित इस रिफाइनरी प्रोजेक्ट पर काम शुरू होने की स्थिति में 17 गांवों के किसानों और मछुआरों का विस्थापन तय है. कोंकण तट पर बसे इन गांवों में से 15 गांव रत्नागिरी और दो गांव बगल के सिंधुदुर्ग में स्थित हैं. इस परियोजना के लिए जरूरी 14,675 एकड़ (5.870 हेक्टेयर) जमीन में से सरकार के पास सिर्फ 126 एकड़ (52 हेक्टेयर) जमीन ही है. बाकी जमीन का अधिग्रहण किया जाना है. परियोजना के लिए जिन 17 गांवों को चुना गया है, वे हैं- नानर, सागवे, तारल, करसिंघेवाड़ी, वडापल्ले, विल्लये, दत्तावाड़ी, पडेकावाड़ी, कटरादेवी, करविने, चौके, उपाडे, पडवे, सखर, गोठीवारे, गिरये और रामेश्वर. इन गांवों के भीतर भी कई छोटे-छोटे राजस्व गांव हैं.