ग़रीबी के बारे में जो आंकड़े हैं, वे मुझ जैसे शख्स को शर्म से सिर झुकाने को मजबूर कर रहे हैं. ज़रूरी यह है कि हमें ग़रीबों के लिए ज़रूर कुछ करना चाहिए. मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत हुई, लेकिन ये न तो व्यवस्थित हैं और न इन्हें सही ढंग से संचालित किया जा रहा है. इन योजनाओं के नाम पर बेशुमार पैसा खर्च हुआ और हो रहा है. बेशक, यह योजनाएं सही दिशा में उठाया गया क़दम हैं, लेकिन मनरेगा और खाद्य सुरक्षा में जिस तरह पैसा बहाया जा रहा है, उसके लिए बड़े आर्थिक आधार की ज़रूरत है.
यह मायने नहीं रखता कि सरकार किसकी है. कोई भी सरकार हो, हमें संविधान में उल्लिखित सिद्धांतों पर चलना ही होगा. सरकार को ग़रीबों, छात्रों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, महिलाओं एवं अल्पसंख्यकों के हितों के बारे में सोचना होगा. कॉरपोरेट तरीके से चलकर यह हासिल नहीं हो पाएगा. वास्तव में स्वतंत्रता के मायने क्या हैं? चाहे राजनेता हों, अन्य लोग हों, औद्योगिक घरानों के मुखिया हों या सिविल सोसाइटी के लोग हों, सभी को एक बार फिर से इस प्रश्‍न पर विचार करना चाहिए. क्या हम उसी राह पर चल रहे हैं, जैसा कि संविधान में उल्लिखित है या 1952 से लेकर आज तक संविधान के सभी भागों को धीरे-धीरे विकृत कर रहे हैं? विकृत इस रूप में कि कागजों पर तो हम संविधान के मुताबिक चल रहे हैं, लेकिन हकीकत कुछ और है.
उदाहरण के लिए, संविधान में इस बात का उल्लेख है कि सरकार का चुनाव कैसे होता है, उसके कर्तव्य क्या हैं और सरकार की भूमिका क्या हो. यह भी स्पष्ट है कि चुनी हुई सरकार नीतियां बनाए, वह चाहे राजनीतिक हों, आर्थिक हों या सामाजिक, लेकिन उनका क्रियान्वयन प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से होना चाहिए. इनमें भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं दूसरी सेवाओं के अधिकारी शामिल हैं, जो एक कठिन प्रक्रिया के बाद चयनित होते हैं. इन सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से कुशल लोगों का चयन होता है. इसलिए इन नीतियों के क्रियान्वयन के लिए ये अधिकारी सबसे बेहतर साबित हो सकते हैं, लेकिन क्या उनका सही इस्तेमाल हो रहा है? नहीं. दुर्भाग्य से जो भी राजनीतिक दल चुनकर आए, उन्होंने छोटे-छोटे मुद्दों पर ही अपनी रुचि दिखाई, न कि बड़े एवं ज़रूरी विषयों पर. कोई भी राजनीतिक दल उन आधारभूत विसंगतियों को बदलना नहीं चाहता, जो समूचे देश में व्याप्त हैं.
उदाहरण के तौर पर, जब देश का विभाजन हुआ, तो दुर्भाग्य से जिन्ना ने विभाजन धर्म के आधार पर किया और पाकिस्तान का निर्माण भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए हुआ. लेकिन, विभाजन के दिन से ही यह बात स्पष्ट हो गई थी कि भारत में उससे ज़्यादा मुसलमान रह गए, जितने विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए. यह क्या दर्शाता है? और, जो मुसलमान भारत में ही रह गए, उन्होंने यहीं रहने को क्यों तरजीह दी? इसलिए, क्योंकि महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल एवं मौलाना आज़ाद ने देश की जनता को यह आश्‍वासन दिया था कि पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र हो सकता है, लेकिन भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहेगा और सरकार देश के नागरिकों के लिए धर्म को कभी आधार नहीं बनाएगी. धर्म एक व्यक्तिगत मसला है. इसका केवल इतना-सा मतलब है कि आप ईश्‍वर को स़िर्फ किसी और नाम से याद कर रहे हैं. आप कहीं उसे भगवान कह सकते हैं, कहीं अल्लाह, कहीं जीजस क्राइस्ट, तो कहीं वाहे गुरु. इससे कोई फ़़र्क नहीं पड़ता कि आप उसे किस नाम से बुला रहे हैं. लेकिन, क्या हम उस भावना के साथ चल रहे हैं?
अगर मैं मुसलमान होता (जो कि मैं नहीं हूं) और भारत में रह रहा होता, तो निराश होता, क्योंकि देश के महान नेताओं ने जो वादा किया था, उसे बाद की सरकारों ने निभाया नहीं. हां, यह सही है कि सबने हमें केवल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया. इस देश की कुल आबादी का 15 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों का है, लेकिन उनकी सहभागिता क्या है, यह बड़ा सवाल है. भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में दो प्रतिशत, भारतीय पुलिस सेवा में दो प्रतिशत और कॉरपोरेट जगत में तो बमुश्किल एक या दो प्रतिशत. फिर उन्हें क्या हासिल हुआ? साफ़ है कि मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार नहीं हुआ. उन्हें समान अवसर नहीं मिले. उन्हें शिक्षा नहीं मिल पाई. ज़्यादातर मुसलमान आज भी अशिक्षित हैं. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, एक समाजवादी एवं लोकतांत्रिक देश है. अब यह बेहद ज़रूरी है कि मौजूदा सरकार संविधान में उल्लिखित नीति निर्देशक सिद्धांतों का पालन करे, जिसकी इस समय पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है.
ग़रीबी के बारे में जो आंकड़े हैं, वे मुझ जैसे शख्स को शर्म से सिर झुकाने को मजबूर कर रहे हैं. ज़रूरी यह है कि हमें ग़रीबों के लिए ज़रूर कुछ करना चाहिए. मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत हुई, लेकिन ये न तो व्यवस्थित हैं और न इन्हें सही ढंग से संचालित किया जा रहा है. इन योजनाओं के नाम पर बेशुमार पैसा खर्च हुआ और हो रहा है. बेशक, यह योजनाएं सही दिशा में उठाया गया क़दम हैं, लेकिन मनरेगा और खाद्य सुरक्षा में जिस तरह पैसा बहाया जा रहा है, उसके लिए बड़े आर्थिक आधार की ज़रूरत है. यह भी सोचना होगा कि हम किस तरह से सबसे निचले या ग़रीब तबके को मध्यम वर्ग की श्रेणी में ले आएं. अमीर और अमीर हो रहे हैं, यह कोई समस्या नहीं है. लेकिन, ग़रीब अभी भी वहीं है, जहां पहले था, जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी बढ़ोतरी हो रही है.
देश का मध्यम वर्ग बेहतरी के रास्ते पर है और आपके इर्द-गिर्द मॉल, मोटर गाड़ी, अच्छी सड़कों एवं विदेशी ब्रांड की चमक-दमक है, लेकिन ये सब उस आदमी की किसी भी तरह से मदद नहीं कर सकते, जिसके पास ज़मीन नहीं है. भूमिहीन श्रमिक अभी भी भूमिहीन श्रमिक ही है और गांव का ग़रीब आदमी अभी भी ग़रीब है. वह केवल टीवी पर उभरती हुई तस्वीरों के माध्यम से इस चमक को देख सकता है और यह सब उसके भीतर एक टीस पैदा करता है. इस दौर में संविधान के अनुपालन की बेहद ज़रूरत है.

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