भारत में किसानों और किसानी का हाल जानने के लिए किसी रॉकेट साइंस को समझने की जरूरत नहीं है. बस, एक आंकड़ा किसानों की पूरी हकीकत बयान कर देता है. 1951 से लेकर आज तक, भारत की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी लगातार घटती गई. 1951 में कृषि की हिस्सेदारी 50 फीसदी से अधिक थी, जो अब घटते-घटते 12-13 फीसदी तक आ गई है. इसका सीधा सा अर्थ है कि सरकार का ध्यान एग्रीकल्चर से हट कर विनिर्माण और सर्विस सेक्टर की तरफ ज्यादा रहा है. 1991 में जब देश ने उदारीकरण अपनाया, तब से आज तक सरकारी-गैर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश के करीब 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. कुछेक राज्यों को छोड़ कर तकरीबन हर राज्य की स्थिति खराब है. महाराष्ट्र जैसा सर्वाधिक शहरीकृत राज्य तो किसानों का कब्रगाह बनाया गया. मध्य प्रदेश से लेकर गुजरात और तमिलनाडु से लेकर कर्नाटक तक के किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इन सब आत्महत्याओं की कुछ सामान्य वजहें हैं. मसलन, बैंक और महाजनों से लिए गए कर्ज का कुचक्र, फसल का दाम नहीं मिलना, सूखा या बर्बाद हुए फसल का उचित मुआवजा न मिलना. इन मुद्दों को लेकर समय-समय पर किसान, किसान संगठन और राजनीतिक दलों के किसान संगठन आन्दोलन भी करते रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी किसानों की समस्याओं का अंत होता नहीं दिख रहा है. इसकी भी कई वजहें हैं.
इसकी एक वजह है, आन्दोलन और किसान संगठनों की नीति और नीयत. एक तरफ, जहां किसान संगठन दिल्ली तक अपनी बात ठीक से नहीं पहुंचा पाते, वहीं राजनीतिक दलों से जुड़े किसान संगठन इनके मुद्दे को राजनीति के जाल में उलझा देते हैं. राजनीतिक दलों के किसान संगठन इन किसानों का राजनीतिक फायदा उठा लेते हैं और असल मुद्दा जस का तस रह जाता है. हाल के दिनों में तमिलनाडु के किसान दिल्ली आए, लेकिन मीडिया और राजनीतिक दलों ने तब तक उनके ऊपर कोई ध्यान नहीं दिया, जब तक कि उन्होंने कुछ अलग तरीके से आन्दोलन को नया तेवर नहीं दिया. पिछले महीनों राजस्थान में किसानों ने स्वत:स्फूर्त आन्दोलन किया, लेकिन वहां कम्युनिस्ट पार्टी अपना झंडा ले कर पहुंच गई और किसानों के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन को राजनीतिक रंग दे दिया. हाल में योगेन्द्र यादव कई किसान संगठनों के साथ दिल्ली पहुंचे, लेकिन एक बार फिर वही हुआ. चूंकि, वो एक राजनीतिक दल के मुखिया हैं, इसलिए सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान तक नहीं दिया. तो सवाल है कि क्या इस देश के किसान ऐसे ही ठगे जाते रहेंगे और उनकी सामूहिक ताकत का इस्तेमाल यूं ही होता रहेगा?
किसान संगठन नहीं, किसान महासंघ
लेकिन ये भी एक सच है कि किसी समस्या को अधिक दिनों तक दबा कर या कहें कि बहला-फुसला कर नहीं रखा जा सकता है. चौथी दुनिया ने जब देश के किसान संगठनों, उनके आन्दोलन, उनकी रणनीति के बारे में जानकारी जुटाई, तो एक अहम तथ्य ये पता चला कि काफी शांति से, बिना शोर मचाए, इस देश के 50 से ज्यादा किसान संगठन (गैर-राजनीतिक) एक बड़े किसान आन्दोलन की तैयारी में जुटे हुए हैं. इस आन्दोलन का चरित्र, इसकी रणनीति, इसकी तैयारी, इसका नेतृत्व अब तक के किसी भी किसान आन्दोलन से बिल्कुल अलग है. पिछले कुछ महीनों से राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, यूपी, मध्य प्रदेश के गांवों में इस आन्दोलन की खामोशी से तैयारी चल रही है. इसी महीने मध्य प्रदेश के मन्दसौर से किसान जागृति यात्रा शुरू हो रही है, जो देश के 19 राज्यों से होकर गुजरेगी. इसका समापन हरियाणा के कुरुक्षेत्र में होगा. दरअसल, हम बात कर रहे हैं राष्ट्रीय किसान महासंघ की. इस किसान महासंघ में देश के 65 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं, जो एक नीति, एक मांग, एक नारे के तहत दिसंबर से देशव्यापी आन्दोलन शुरू कर रहे हैं और अगले साल 23 फरवरी को दिल्ली घेराव का कार्यक्रम बना चुके हैं. इस महासंघ में एक कोर कमेटी है, जिसके सात सदस्य हैं. किसान महासंघ से जुड़े लोग बताते हैं कि इस बार आर-पार की लड़ाई होगी.
20 दिन में ग्वालियर से दिल्ली
राष्ट्रीय किसान महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक शिवकुमार शर्मा उर्फ कक्का जी चौथी दुनिया के इस संवाददाता से बात करते हुए बताते हैं कि मध्य प्रदेश के तकरीबन 50 हजार लोग दिल्ली घेराव के लिए ग्वालियर से पैदल मार्च करेंगे और 19 से 20 दिनों में दिल्ली पहुंच जाएंगे. वे बताते हैं कि जहां भी हमें रोका जाएगा, हम वहीं बैठ कर अपना धरना जारी रखेंगे. यह पूछने पर कि 50 हजार लोगों कि दिल्ली लाने के लिए जो पैसा लगेगा, उसका इंतजाम कैसे होगा, शिवकुमार शर्मा बताते हैं कि ये पैसा हम ग्राम समितियों से इकठ्ठा कर रहे हैं. किसान खुद गांव-गांव जाकर लोगों को इसके बारे में समझा रहे हैं. किसान खुद अपने घरों से चावल, आटा, दाल, तेल, कपड़े, ट्रैक्टर आदि का इंतजाम कर रहे हैं, यानि इस आन्दोलन पर जो भी खर्च आएगा, वो किसान खुद अपनी जेब से वहन करेगा.
पहले जयपुर फिर दिल्ली घेराव
राष्ट्रीय किसान महासंघ के कोर कमेटी के सदस्य और राजस्थान के गंगानगर के रहने वाले सत्यवीर सिंह चौथी दुनिया से बात करते हुए बताते हैं कि 23 फरवरी के दिल्ली घेराव के लिए हम अभी से राजस्थान के गांव-गांव जाकर किसानों को प्रेरित कर रहे हैं. उम्मीद है कि राजस्थान से कम से कम 20 हजार किसान दिल्ली के लिए कूच करेंगे. सत्यवीर सिंह बताते हैं कि उससे पहले 23 दिसंबर को हम जयपुर का भी घेराव करेंगे. राजस्थान के गांव-गांव से किसान 23 दिसंबर को जयपुर आएंगे. जयपुर घेराव के मकसद के बारे में वे बताते हैं कि चूंकि कर्ज से मुक्ति राज्य सरकार का विषय है, इसलिए हम चाहते हैं कि राजस्थान सरकार कर्ज माफी की घोषणा करे और साथ ही विधान सभा से एमएसपी पर 50 फीसदी अतिरिक्त मूल्य के लिए एक बिल पास कर केन्द्र सरकार को भेजे. 23 दिसंबर के बाद राजस्थान के गांवों से किसान दिल्ली कूच की तैयारी करेंगे. दिल्ली कूच की तैयारी के बारे में सत्यवीर सिंह बताते हैं कि 20 हजार लोगों के लिए किसान और राष्ट्रीय किसान महासंघ के सदस्य अपने स्तर पर ही तैयारी कर रहे हैं. किसान आपस में सहयोग कर रहे हैं. ये किसान खुद अपना खाना, कपड़ा और लंगर लेकर चलेंगे और अपने ट्रैक्टर से यहां पहुंचेंगे. ट्रैक्टर के डीजल के लिए किसान गांव-गांव से चन्दा इकट्ठा कर रहे हैं. हर 500 किसानों का एक लीडर होगा, जो इन लोगों के खाने-पीने की जिम्मेदारी लेगा. वे कहते हैं कि ये हमारी निर्णायक लड़ाई होगी. वे कहते हैं कि अभी देश भर में दो तरह के किसान आन्दोलन की धाराएं हैं. एक राजनीतिक संगठनों/दलों से जुड़ी हुई और दूसरी हमारी, जो बिल्कुल गैर राजनीतिक है. ये विशुद्ध रूप से किसानों का, किसानों के लिए और किसानों के द्वारा चलाया जा रहा जनांदोलन है.
हरियाणा से भी निकलेगा कारवां
गुरनाम सिंह हरियाणा से हैं. वे भी राष्ट्रीय किसान महासंघ के कोर कमेटी के सदस्य हैं. वे बताते हैं कि हरियाणा में 2 दिसंबर से ही किसानों की बैठकें जारी है. इस बैठक में हम महासंघ के सदस्यों को अलग-अलग जिला आवंटित कर रहे हैं. ये सदस्य अपने-अपने जिलों में जाकर किसानों से मिलेंगे और दिल्ली घेराव के लिए बैठकें करेंगे. ये सदस्य गांवों से ट्रैक्टर, खाना, कपड़ा, तिरपाल आदि भी जुटाएंगे. मन्दसौर से निकले वाली किसान जागृति यात्रा का समापन चूंकि हरियाणा के कुरुक्षेत्र में होगा, इसलिए उसकी तैयारी भी हरियाणा के किसान ही कर रहे हैं. गुरनाम सिंह बताते हैं कि किसान जागृति यात्रा का मकसद है कि देश भर के किसानों को दिल्ली घेराव के लिए एकजुट किया जाए. हरियाणा के अलावा, उत्तर प्रदेश, पंजाब और देश के बाकी राज्यों के किसान भी दिल्ली घेराव के लिए धीरे-धीरे अपनी तैयारियों को अंजाम दे रहे हैं, जिसकी खबर अभी तक राष्ट्रीय मीडिया में कहीं नहीं आई है. किसान जागृति यात्रा मन्दसौर से शुरू हो रही है. मन्दसौर में ही किसान आन्दोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में एक दर्जन से अधिक किसानों की मौत हो गई थी. जाहिर है, इस यात्रा की शुरुआत के लिए मन्दसौर का चुनाव भी प्रतीकात्मक रूप से काफी महत्वपूर्ण होगा.
द. भारत के किसान करेंगे राजमार्ग जाम
किसान महासंघ के राष्ट्रीय संयोजक शिवकुमार शर्मा बताते हैं कि किसान महासंघ में दक्षिण भारत के किसान संगठन भी शामिल हैं. चूंकि वे पैदल चल कर दिल्ली नहीं आ सकते, इसलिए ट्रेन से आएंगे. इस वजह से दक्षिण भारत के किसान कम संख्या में ही दिल्ली आ सकेंगे, लेकिन महासंघ ने दक्षिण भारत के किसानों के लिए आन्दोलन का एक नया तरीका निकाला है. शर्मा बताते हैं कि दक्षिण भारत के किसान संगठन भी मजबूत हैं. उन्हें कहा गया है कि वे उत्तर भारत की तरफ आने वाले राजमार्ग को जाम कर दें, यानि एक तरफ जहां उत्तर भारत के लोग दिल्ली घेराव के लिए कूच करेंगे, वहीं दक्षिण भारत के किसान उत्तर भारत की तरफ आने वाले राजमार्ग को जाम करेंगे. शर्मा बताते हैं कि इससे हम सरकार पर दबाव बना पाने में सफल होंगे. इसके लिए दिसंबर के पहले सप्ताह में शर्मा ने दक्षिण भारत के किसान संगठनों के साथ बैठकें भी की हैं.
स़िर्फ दो मांगें, न कम, न ज्यादा
शिवकुमार शर्मा आन्दोलन की मांग के बारे में बताते हैं कि इस बार हमने अपनी रणनीति बदल ली है. पहले किसान संगठन एक साथ कई सारी मांग लेकर सरकार के पास जाते थे. सरकार चालाकी से उनमें से कुछ कम महत्वपूर्ण मांगें मान लेती थी और महत्वपूर्ण मांगों को नजरअन्दाज कर देती थी. लेकिन, इस बार हमने राष्ट्रीय किसान महासंघ की तरफ से सिर्फ दो ही मांगें रखी हैं. पहली, किसानों की पूर्ण कर्ज मुक्ति और दूसरा फसल का सही दाम. वे इसके बारे में बताते हैं कि सरकार छिटपुट रूप से किसी राज्य के कुछ किसानों का कुछ कर्ज माफ कर देती है. हमने ये मांग रखी है कि पूरे देश के किसानों का एक साथ संपूर्ण कर्ज मुक्ति की जाए, ताकि किसान कर्ज और कर्ज के सूद के दुष्चक्र से बच सकें. फसल का सही दाम क्या हो, इस बारे में वे कहते हैं कि खुद नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपने भाषणों में कहा था कि हम किसानों को उनकी लागत पर 50 फीसदी अतिरिक्त मुनाफा देकर एमएसपी तय करेंगे, ये स्वामीनाथन कमिटी की सिफारिश भी है. हम वही वादा पूरा होते देखना चाहते हैं. उनका कहना है कि सरकार ने हमें फसल का सही दाम कभी नहीं दिया, इसी वजह से किसान कर्जदार हुए.
बहरहाल, किसान महासंघ द्वारा दिल्ली घेराव की तैयारियों का नतीजा क्या निकलता है, ये तो आने वाले समय में ही पता चलेगा. लेकिन किसानों से की गई वादाखिलाफी का ही नतीजा है कि आज किसान एकजुट हो रहे हैं. वैसे भी, विकास के जिस मॉडल को हमने अपनाया है, उसमें किसानों के लिए कोई जगह नहीं है. ऐसे में, किसानों की लगातार बिगड़ती हालत ने उन्हें इस हाल में पहुंचा दिया है, जहां उनके पास करो या मरो के अलावा कोई चारा नहीं बचता है.
प्रधानमंत्री जी ने एमएसपी पर लागत का 50 फीसदी अतिरिक्त देने का जो वादा किया था, उसे तत्काल पूरा किया जाना चाहिए. किसानों के फसल के दाम नहीं मिलने से ही आज किसानों की ये दुर्दशा हो रही है.
-विनोद सिंह, अध्यक्ष, किसान मंच
हमने इस आन्दोलन को पूरी तरह से गैर राजनीतिक रखा है. आन्दोलन के लिए एक-एक पैसा किसान खुद अपने स्तर पर, अपने बीच से जुटा रहे हैं. ये हमारे लिए निर्णायक लड़ाई होगी. हमने सिर्फ दो मांगें रखी हैं, ताकि सरकार से आर-पार की बातचीत हो सके.
-शिवकुमार शर्मा, राष्ट्रीय संयोजक, राष्ट्रीय किसान महासंघ
कहां गई स्वामीनाथन आयोग की स़िफारिशें
- सीलिंग सरप्लस और बंजर भूमि का वितरण.
- मुख्य कृषि भूमि और जंगल कॉरपोरेट क्षेत्र को ग़ैर कृषि प्रयोजनों के लिए देने पर रोक.
- आदिवासियों और चरवाहों को जंगल में चराई का अधिकार.
- एक राष्ट्रीय भूमि उपयोग सलाहकार सेवा की स्थापना.
- कृषि भूमि की बिक्री विनियमित करने के लिए एक तंत्र की स्थापना.
- सस्ता स्वास्थ्य बीमा, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को पुनर्जीवित किया जाए.
- माइक्रोफाइनांस नीतियों का पुनर्गठन, जो आजीविका वित्त के तौर पर काम करे.
- सस्ती क़ीमत, सही समय-स्थान पर गुणवत्ता युक्त बीजों और अन्य सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करना.
- कम जोखिम और कम लागत वाली प्रौद्योगिकी, जो किसानों को अधिकतम आय प्रदान करने में मदद कर सके.
- जीवन रक्षक फसलों के मामले में बाज़ार हस्तक्षेप योजना की आवश्यकता.
- अंतरराष्ट्रीय मूल्यों से किसानों की रक्षा के लिए आयात शुल्क पर तेजी से कार्रवाई की आवश्यकता.
- न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के कार्यान्वयन में सुधार. धान और गेहूं के अलावा अन्य फसलों के लिए भी न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था की जानी चाहिए.
- न्यूनतम समर्थन मूल्य उत्पादन की औसत लागत की तुलना में कम से कम 50 फीसद अधिक होनी चाहिए.
- ऐसे बदलाव की ज़रूरत है, जो घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय बाज़ार के लिए स्थानीय उत्पाद की ग्रेडिंग, ब्रांडिंग, पैकेजिंग और विकास को बढ़ावा दे.
आखिर, सरकार क्यों नहीं सुनती इनकी
सरकार जिस समय मूडीज के आंकड़ों को मुद्दा बनाकर विपक्ष के सवालों पर हावी हो रही थी, उसी समय देशभर के हजारों किसान अपनी समस्याओं को लेकर दिल्ली के संसद मार्ग से आवाज उठा रहे थे. लेकिन किसानों की आवाज न तो सरकार को सुनाई दी और न ही विपक्ष ने उनके साथ खड़े होकर अपने लोकतांत्रिक धर्म का निर्वहन करना उचित समझा. मीडिया ने भी इसे प्रमुखता से नहीं उठाया. ऐसा भी नहीं था कि यह किसी एक संगठन के मुट्ठी भर लोगों का प्रदर्शन था, इसमें 20 से अधिक राज्यों से 184 किसान संगठनों के करीब 50 हजार लोग जुटे थे, लेकिन फिर भी इनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती बनकर रह गई. अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के बैनर तले हुए इस आंदोलन के लिए 19 नवंबर को ही देशभर के किसान रामलीला मैदान में एकत्रित हो गए थे. वहां से 20 नवंबर को पदयात्रा करते हुए सभी किसान संसद मार्ग पहुंचे. इन किसानों की मुख्य मांगों में स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू कराना और किसानों को उनकी कुल लागत का 50 फीसदी मुनाफा मुहैया कराना शामिल है. जब ये किसान संसद मार्ग पहुंचे, तो वहां पहले से सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर की अध्यक्षता में महिला किसानों की संसद शुरू थी. इस किसान संसद में केवल महिलाएं थीं, जिनमें ज्यादातर वे थीं, जिनके परिवार के किसी सदस्य ने आत्महत्या की है. इस संसद ने किसानों के हित वाले दो बिल पास किए.
किसान संसद में स्वराज इंडिया के राष्ट्रीय संयोजक योगेंद्र यादव ने कहा कि हम इस किसान मुक्ति संसद से प्रण लेकर जा रहे हैं कि हम किसानों के हक़ और अधिकार हासिल करने के संघर्ष को और तेज करेंगे. हम सच्चाई और ईमान और देश बचाने के रास्ते पर हैं. किसान बचेगा, तभी देश बचेगा. आज किसान विरोध नहीं विकल्प देने आया है. मेरठ से आए किसान विरेंद्र सिंह ने कहा कि हम अब सरकार के आश्वासन से आजिज आ चुके हैं. हम कई वर्षों से सरकारों की बातों पर यकीन करके जी रहे हैं, लेकिन कोई भी सरकार हमारी बदहाली दूर नहीं कर सकी. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले भाजपा के जो लोग हमसे वोट मांगने आए थे, उन्होंने कहा था कि हमारी सरकार आई, तो हम गन्ना की कीमतों में भारी बढ़ोतरी करेंगे. लेकिन हुआ क्या? 10 रुपए बढ़ाए गए. प्रदर्शन के दौरान ही संसद मार्ग पर अपने गांव के 10 लोगों के साथ बैठकर सत्तू खा रही मुजफ्फरपुर से आई तेतरी देवी ने बताया कि बिहार में आई बाढ़ में फसल तो बर्बाद हुआ ही, उनका घर भी बह गया. उन्होंने बताया कि हमें राहत के नाम पर बस चीऊरा मीठा (चूड़ा-गुड़) ही मिला है अब तक. लखन सिंह अपने 5 साल के पोते के साथ इस किसान मुक्ति संसद में आए थे. उनके बेटे सुरजीत ने पिछले साल आत्महत्या कर ली थी. वे अपने बेटे के बारे में बताते हुए भावुक हो गए. उन्होंने बताया कि हमारे पास अपने कुछ खेत हैं, लेकिन फिर भी हम दाने-दाने के लिए मोहताज हैं. पंजाब सरकार द्वारा की गई कर्जमाफी के फायदों के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि वो कर्जमाफी ऊंट के मुंह में जीरा के समान है.
किसान किस तरह आज व्यवस्था और सत्ता के हर दरवाजे से निराश लौटकर हताश हो चुके हैं, इसे जमुई से आए किसान रामसूरत की दशा से समझा जा सकता है. रामसूरत की जमीन पर 5 साल पहले दबंगों ने कब्जा कर लिया था, तब से अब तक वे जिला से लेकर राज्य और केंद्र तक अपनी फरियाद पहुंचा चुके हैं, लेकिन हुआ कुछ नहीं. सर पर हाथ रखे हताश रामसूरत अपनी ही भाषा में अपनी दशा बताते हुए कहते हैं- ‘केकरा से करीं अरजिया हो, सगरो बटमार’ यानि वे अब अपनी अर्जी लेकर कहां जाएं, यहां तो चारों तरफ चोर ही बैठे हैं. उम्र के अंतिम पड़ाव में इस किसान को किसानों की एकजुटता में कुछ उम्मीद नजर आ रही है, लेकिन किसान आंदोलन के नाम पर हुआ यह भव्य सियासी विरोध कुछ सवाल भी खड़े करता है. सवाल यह कि जिस किसान के पास खाने के लिए अन्न नहीं हैं, उसके सवालों को जगह देने के लिए भव्य मंच और कारपेट का खर्च कहां से आया. कौन है इतने बड़े खर्च के पीछे, किसान तो नहीं ही हो सकते, क्योंकि हमने जब वहां आए किसानों से बात की, तो पता चला कि उनके रहने-खाने का पूरा इंतजाम उनके किसान नेताओं की तरफ से ही किया गया है. किसानों की समस्याओं को मंच देने के नाम पर हुआ शाही खर्च सवाल तो खड़े करता ही है. कहीं ऐसा न हो कि किसानों की यह आखिरी उम्मीद भी ‘बटमार’ ही निकले.