यह नीतीश कुमार की राजनीतिक खासियत में ही शुमार होगी. अपने दबंग ‘राष्ट्रीय सहयोगी’ भारतीय जनता पार्टी के प्रयास को उन्होंने नाकामयाब कर दिया. बिहार से राज्यसभा की छह सीटों के लिए चुनाव होना था और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के तीन के बदले चार प्रत्याशी उतारने को भाजपा हरसंभव जुगत भिड़ा रही थी, पर इस खेल को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पंक्चर कर दिया. विधानसभा की मौजूदा दलीय संरचना के अनुसार सत्तारूढ़ एनडीए के तीन और विपक्षी महागठबंधन के दो उम्मदीवारों के राज्यसभा जाने में कोई रुकावट नहीं थी. इनमें जनता दल(यू) के दो, भाजपा के एक और मुख्य प्रतिपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के दो हैं. छठी सीट के लिए वोट के लिहाज़ से कांग्रेस सबसे ताकतवर दावेदार थी.
राजद व वामपंथी सदस्यों की मदद से कांग्रेस के खाते में इसका जाना लगभग तय था, पर भाजपा एनडीए की ओर से चौथा उम्मीदवार देकर राजनीतिक संशय का माहौल बना कर धन-बल को हवा देने के पक्ष में थी. संख्या बल के हिसाब से अपने तीन प्रत्याशियों को प्रथम वरीयता के पैंतीस-पैंतीस वोट आवंटित करने के बाद एनडीए के जिम्मे 20 से अधिक वोट अतिरिक्त थे, जबकि कांग्रेस की अपनी ताकत 27 विधायकों की थी और इसे राजद के कोई दस विधायकों का घोषित समर्थन हासिल था. फिर भाकपा (मा.ले.) के तीन विधायक उसके साथ थे. वस्तुतः भाजपा की नज़र कांग्रेस और राजद के बागी विधायकों पर थी. उनसे संपर्क ही नहीं साध लिए गए थे, बल्कि आगे की रणनीति को भी अंतिम टच दिया जा रहा था. खरीद-फरोख़्त के इस खेल में कई दलाल राजनेता पिछले कुछ दिनों से काफी सक्रिय थे, लेकिन नीतीश कुमार इसके लिए सहमत नहीं हुए.
उनके कड़े रुख के कारण भाजपा को तैयारी स्थगित कर देनी पड़ी और उसके धनबली नेता अपनी मांद में वापस चले गए. वह अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकी. वैसे, भाजपा विपक्ष के मनोबल को तोड़ राज्यसभा चुनावों में भी ‘चक्रवर्ती’ कहलाने की रणनीति पर केन्द्र में सत्ताधारी बनने के बाद से ही काम कर रही है. इस संदर्भ में भाजपा ने सबसे बेहतर उदाहरण पिछले साल गुजरात में पेश किया था- अहमद पटेल को राज्यसभा जाने से रोकने की विफल कोशिश कर. इस बार भी उत्तर प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में यही कर रही है, पर बिहार में उसे मुंह की खानी पड़ी. वस्तुतः नीतीश कुमार इन चुनावों में फरीद-फरोख्त के कभी समर्थक नहीं रहे हैं. राज्यसभा और विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से परिषद चुनाव सर्वसम्मत करवाने की उनकी कोशिश रही है और वह इसमें कामयाब होते रहे हैं. उनके कार्यकाल की अनेक विशेषताओं में यह भी एक है.
विधान परिषद के लिए सुशील मोदी की राह आसान
बिहार से राज्यसभा के छह प्रत्याशी मैदान में रहे और सभी का निर्विरोध निर्वाचन भी हो गया. जद (यू) ने अपने पुराने दिग्गज महेन्द्र प्रसाद और वशिष्ठ नारायण सिंह व भाजपा ने केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को उम्मीदवारी दी. महेन्द्र प्रसाद कोई चार दशक से संसद के सदस्य हैं और संसद की कार्यवाही में अपनी ‘मूक-भागीदारी’ के लिए ख्यात हैं. दिल्ली स्थित उनके सरकारी बंगले के परिसर से कटहल चोरी के मामले में वे समाचार पत्रों की सुर्खियां बने थे.
जद(यू) या कोई अन्य राजनीतिक दल महेन्द्र प्रसाद (आम बोलचाल की भाषा में किंग महेन्द्र) को गैर-राजनीतिक कारणों से ही तरज़ीह देते और संसद भेजते रहे हैं. दल के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह को फिर से उम्मीदवारी देने का राजनीतिक कारण जो हो, पर सबसे बड़ा कारण दल के सुप्रीमो नीतीश कुमार का पुराना और अति विश्वासपात्र सहयोगी होना ही रहा है. एनडीए के तीसरे नेता रविशंकर प्रसाद को लेकर हालांकि भाजपा के भीतर काफी खलबली है, पर केन्द्रीय नेतृत्व के फैसले व प्रदेश के कुछ नेताओं के निजी हित के कारण उन्हें किसी मुखर विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है. हालांकि यह सही है कि एनडीए के उम्मीदवारों में सबसे सक्रिय व मुखर राजनेता वही हैं.
केन्द्रीय कानून मंत्री की चौथी बार की यह उम्मीदवारी विधान परिषद चुनावों के समय सुशील कुमार मोदी की राह आसान कर देगी. भाजपा की परिपाटी के अनुसार उच्च सदन में किसी भी नेता को दो बार ही उम्मीदवारी दी जा सकती है. पिछली बार रविशंकर प्रसाद की उम्मीदवारी के समय भी यह मसला उठा था. उस समय भी केन्द्रीय नेतृत्व का ही हवाला दिया गया था. श्री मोदी का विधान परिषद में यह दूसरा कार्यकाल है. तीसरे कार्यकाल आने के पहले खलबली आरंभ हो गई है. पर, भाजपा के बागी नेताओं के सामने अब रविशंकर प्रसाद की नजीर रहेगी- चार टर्म बनाम तीन टर्म.
महागठबंधन ने इसके बरक्स नए चेहरे को मौका दिया. राजद ने कटिहार मेडिकल कॉलेज के प्रमोटर और कभी शिक्षा माफिया के नाम से ख्यात अशफाक करीम व दल के तेज-तर्रार राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज कुमार झा को और कांग्रेस ने पूर्व मंत्री अखिलेश सिंह को राज्यसभा भेजा है. अखिलेश सिंह तो लोकसभा के सदस्य और केन्द्र में मंत्री भी रह चुके हैं, मनोज कुमार झा व अशफाक करीम पहली बार किसी सदन में कदम रख रहे हैं. अशफाक करीम राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद की पसंद हैं और उनके मनोनयन के पीछे कई राजनीतिक व गैर-राजनीतिक कारण बताए जा रहे हैं. राजनीतिक कारण तो साफ है कि राजद सुप्रीमो अपने मुस्लिम मतदाता समूह को साथ रखने की हरसंभव कोशिश कर ‘माय’ समीकरण को लाभ पहुंचाना चाहते हैं.
हालांकि इस समुदाय और राजद के भीतर करीम को लेकर उदासीनता का भाव ज्यादा दिख रहा है. राजद के अनेक अल्पसंख्यक नेताओं की समझ है कि अशफाक करीम से उस समीकरण को कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है, क्योंकि सामाजिक क्रियाकलाप में उनकी किसी भूमिका को लोग आदर के साथ याद नहीं करते. राजद के अनेक नेताओं व सूबे के राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जिन कारणों से जद(यू) व इसके नेतृत्व के लिए किंग महेन्द्र जरूरी हैं, उन्हीं कारणों ने अशफाक करीम को मौका दिलाया है. पर, लालू प्रसाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी व राजद के फिलहाल सबसे बड़े नेता तेजस्वी प्रसाद यादव पर बड़ी जिम्मेवारी आ गई है- अशफाक करीम को लेकर बने माहौल को साफ करने की.
एक काम तेजस्वी की प्रतीक्षा कर रहा है- मनोज झा की उम्मीदवारी को सार्थक साबित करने की. 1994 के बाद बिहार से पहली बार किसी मैथिल ब्राह्मण को राज्यसभा जाने का अवसर पिछड़ावादी दल से मिला है और इसका श्रेय तेजस्वी को ही जाता है. मनोज झा उनकी पसंद ही नहीं, जिद भी थे. राज्यसभा जानेवालों की फेहरिस्त में राजद की ओर से राबड़ी देवी सहित कई मुखर-नामचीन नेताओं के नाम थे. पर, लड्डू आया ब्राह्मण के हाथ, सो जिम्मेवारी मनोज झा की तो बढ़ी ही, तेजस्वी की भी बढ़ी है- दोनों को इस चयन को कई स्तरों पर सार्थक साबित करना है. कांग्रेस के नवनिर्वाचित सांसद अखिलेश सिंह की जिम्मेवारी तो इन सभी की तुलना में ज्यादा बड़ी है.
बिहार से कोई डेढ़ दशक बाद कांग्रेस के किसी नेता को राज्यसभा जाने का मौका मिला है. अखिलेश कांग्रेस की राजनीति में नए होने के बावजूद बेहतर रणनीतिकार हैं और वह अपनी सार्थकता साबित करेंगे, उनके समर्थकों को भरोसा है. उथल-पुथल भरी पृष्ठभूमि में उन्हें राज्यसभा भेजा गया है. अशोक चौधरी कांग्रेस को तोड़ने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस के दलित विरोधी होने का माहौल बनाया जा रहा है. राज्यसभा की इस सीट के दावेदारों में पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार भी थीं. इन सब के बावजूद अखिलेश सिंह को आगे किया गया है. सो, उन्हें हर राजनीतिक कसौटी पर खुद को खरा साबित करना होगा.
पिछड़ावादी दलों में पिछड़ों को जगह नहीं
राज्यसभा के इस चुनाव की एक विशेषता पिछड़ावादी राजनीति के केन्द्र बिहार में पिछड़ा-दलित को मौका न मिलना है. सूबे में किसी राजनीतिक दल ने पिछड़ा या अतिपिछड़ा या दलित समुदाय को राज्यसभा में भेजे जाने लायक नहीं समझा. ऐसी बात नहीं कि इन समुदायों से सक्षम उम्मीदवार मैदान में नहीं थे. सभी दलों में ऐसे लोग थे, पर दल के नेतृत्व की नज़र उन पर गई ही नहीं. एनडीए ने यथास्थिति को ही तरज़ीह दी, ऐसा बहुतों का कहना है. पर यह आधा सत्य है. मूक भागीदार भेजने की क्या विवशता हो सकती है, वह भी लगातार तीन बार-यह कोई भी समझ सकता है.
दूसरी महागठबंधन ने अपने समर्थक समूहों की सामाजिक जरूरतों के बदले नए लोगों का चयन किया. हालांकि यह चयन भी किसी एक दिशा में नहीं है. एक तरफ धनबली अशफाक करीम हैं, तो दूसरी तरफ प्रखर प्रवक्ता मनोज झा. कांग्रेस ने अखिलेश सिंह के बहाने ऊंची जाति के भीतर पैठ बनाने की कोशिश की है. बिहार के पिछड़ावादी दल महिलाओं के बारे में बहुधा नहीं ही सोचते हैं. हालांकि महागठबंधन की ओर से राबड़ी देवी व मीरा कुमार जैसी दिग्गज राजनेत्री को राज्यसभा भेजे जाने की चर्चा काफी रही. चर्चा तो जीतनराम मांझी के पुत्र के नाम की भी रही.
पटना के राजनीतिक हलकों में यह समाचार काफी गर्म रहा कि जीतनराम मांझी अपने पुत्र को राजनीतिक हैसियत दिलाने के लिए ही महागठबंधन के साथ आए हैं. यह खबर तब तक चलती रही, जब तक उम्मीदवारों के नामों की घोषणा न हो गई. सूबे के राजनीतिक हलकों में ऐसा मान भी लिया गया था. सूबे के पिछड़ा- अतिपिछड़ा- दलित- महिला समुदायों की नज़र अब विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनावों पर टिक गई है. इन तबकों को उम्मीद है कि परिषद चुनावों में उन्हें बेहतर भागीदारी मिलेगी. देखना है, विधान परिषद के द्विवार्षिक चुनावों में क्या होता है. इन समुदायों को उस अवसर की तलाश है.
आर्थिक हैसियत और गणेश परिक्रमा ही योग्यता
राज्यसभा व विधान परिषद की संरचना की अवधारणा रही है कि इन सदनों में गंभीर बहस होती है, वह कानून बनाने का अवसर हो या जन-समस्याओं का. लिहाजा इनमें वैसे ही राजनेता भेजे जाने चाहिए. यह भी कि, आम चुनावों में जिन गंभीर राजनेताओं की जीत संशयपूर्ण हो, उन्हें इन सदनों की उम्मीदवारी दी जाए ताकि उनके अनुभव-जनित गंभीर विचार से सत्ता लाभान्वित हो. पर, ये अब सिद्धांत की बातें रह गई हैं. इन चुनावों में प्रत्याशियों की ‘आर्थिक हैसियत’ और ‘गणेश परिक्रमा’ के उसके कौशल ही योग्यता के बुनियादी आधार बनते जा रहे हैं. बिहार का अनुभव है कि इसके राज्यसभा के अधिकतर सदस्यों की आवाज सूबे को बहुधा सुनाई नहीं पड़ती. इसी तरह विधान परिषद के अधिकतर ‘सुप्रीमो-भक्त’ सदस्य मसले उठाने के बदले हंगामे के कारण चर्चा में होते हैं. ये और ऐसे राजनेता ऊपरी सदन की मूल अवधारणा और उसकी जरूरतों को कतई पूरी नहीं करते. पर, जाको पिया माने, सोई सुहागिन.