मैं पिछले दिनों अन्ना हज़ारे की यात्रा में उनके साथ था. मुझे ऐसा लगा कि वे शायद दोबारा इतिहास रचने के रास्ते पर निकल सकते हैं. उनकी यात्रा अमृतसर से शुरू हुई और पंजाब होते हुए हरियाणा पहुंची. हरियाणा के बाद वह उत्तर प्रदेश गई. इस यात्रा में पहली खास चीज यह देखने में आई कि अन्ना हज़ारे का साथ देने के लिए हर उम्र का व्यक्ति आज भी तैयार है. पिलखुआ में 98 साल के एक बुज़ुर्ग ने मरते दम तक अन्ना हज़ारे का साथ देने का वादा किया. 16, 17, 18 साल के युवक आगे बढ़-चढ़कर अन्ना हज़ारे को अपने समर्थन का विश्वास दिला रहे हैं.
अफसोस की बात तो यह है कि जहां पर 8 हज़ार लोगों की मीटिंग हो रही है, वहां कांग्रेस से जुड़े और उसकी मिल्कियत में चल रहे टेलीविज़न चैनल कहते हैं और वह भी ग्राफिक्स के सहारे कि वहां कोई भी नहीं था, जहां पर पहले पूरा हाल भरा रहता था. उन्हें यह समझ में नहीं आता कि झूठ की भी एक हद होती है. सवाल यह है कि अगर वहां उनका कैमरामैन था, तो उन्हें ग्राफिक्स के सहारे की क्या ज़रूरत थी, वे खाली पंडाल दिखाते. उसके बाद उनका कैमरा अन्ना की मीटिंगों में न कभी नज़र आया और न नज़र आएगा. ऐसा लगता है कि इस टेलीविज़न चैनल ने कांग्रेस एवं भाजपा के संयुक्त प्रचार और जो भी इन दोनों के ख़िला़फ हैं, उनकी छवि धूमिल करने का ठेका ले लिया है.
अन्ना हज़ारे युवकों से उनका एक साल मांगते हैं. उनका कहना है कि भ्रष्टाचार, महंगाई एवं बेरोज़गारी सहित देश के जितने भी प्रमुख मुद्दे हैं, जिनमें किसानों की ज़मीन का अधिग्रहण, उनकी आत्महत्या, शिक्षा का टूटा हुआ ताना-बाना, बदली हुई शिक्षा या फिर नष्ट हुआ स्वास्थ्य तंत्र, इन सबके ख़िला़फ लड़ने के लिए वे युवकों में से सिपाही मांग रहे हैं. दरअसल, उनका मानना यह है कि उन्हें अगर एक साल देने वाले एक हज़ार लोग मिल जाएं, तो वे इस मुल्क में मौजूदा राजनीति के ख़िला़फ एक अभियान छेड़ सकते हैं. आज की तारीख़ में अन्ना हज़ारे अकेले ही यह अभियान छेड़े हुए हैं. इस अभियान में उनका साथ जनरल वी के सिंह और सूफी जिलानी कत्ताल दे रहे हैं, लेकिन अन्ना इस लड़ाई को और व्यापक बनाना चाहते हैं.
दरअसल, अन्ना हज़ारे ने एक जुआ खेला है. उन्होंने सितंबर के पहले हफ्ते में दिल्ली में जन-संसद बुलाई है. अपनी यात्रा में वे हर जगह के लोगों को जन-संसद में आने का निमंत्रण भी दे रहे हैं. मैं अगर जन-संसद से कुछ समझा हूं, तो वह यह है कि इस यात्रा के दौरान वे अपने 25 सूत्रीय कार्यक्रम के ऊपर लोगों की राय लेंगे और उसके बाद इस 25 सूत्रीय कार्यक्रम में किन मुद्दों के ऊपर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया जाए, यह वे रामलीला मैदान में तय करेंगे. वहां पर लोगों का सैलाब होगा या हो सकता है कि स़िर्फ कुछ हज़ार लोग ही मौजूद हों. हक़ीक़त में अन्ना हज़ारे ख़ुद कह रहे हैं कि वहां एक हज़ार लोग आएंगे, 10 हज़ार आएंगे, 1 लाख आएंगे या 1 करोड़ आएंगे, उन्हें यह नहीं पता. पर अभी अन्ना हज़ारे का समर्थन देखकर लगता है कि उनके बुलावे पर 1 करोड़ लोग दिल्ली में आ सकते हैं. यह कल्पना करते ही कि 1 करोड़ लोग दिल्ली में आएंगे, तो ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि तब दिल्ली का क्या हाल होगा, सोच कर मन थोड़ा कांप जाता है, लेकिन शायद इस व्यवस्था को जगाने का इसके अलावा और कोई चारा ही नहीं है. यानी इतने लोग दिल्ली में ले आओ कि लोगों की आवाज़ पर ध्यान न देने वाली व्यवस्था चौंक कर अपने को सुधारने में लग जाए. और अगर अन्ना हज़ारे का यह आह्वान सफल हो जाता है और दिल्ली में लोग आ जाते हैं, तो क्या-क्या हो सकता है.
पहली चीज़ तो यह कि अभियान टांय-टांय फिस्स हो सकता है. लोग आएंगे, अन्ना हज़ारे का भाषण सुनेंगे और वापस चले जाएंगे. पर अगर कहीं उनके मन की सच्चाई और तड़प ने नौजवानों को छू लिया, तो फिर ऐसे में इस देश में मौजूदा सिस्टम के ख़िला़फ जन उम्मीदवार खड़े करने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी. दरअसल, अन्ना चाहते हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव में जन उम्मीदवार खड़े हों और हर जगह के लोग अपने बीच का उम्मीदवार ख़ुद तय करें. वे चुनाव में सुधार भी चाहते हैं. उनका मानना है कि राइट टू रिजेक्ट फौरन लागू हो और जनता को यह अधिकार तुरंत मिले. पाकिस्तान में पिछले दिनों वहां के चुनाव आयोग ने अपनी तऱफ से अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए राइट टू रिजेक्ट लागू कर दिया और वहां कोई शोर नहीं हुआ. लेकिन हमारे देश में हमारा चुनाव आयोग चूंकि राजनेताओं के इशारे पर चलता है, इसलिए वह कभी भी कोई सख्त फैसला नहीं ले पाता. चुनाव आयोग को यह ़फैसला लेना चाहिए कि हिंदुस्तान में भी राइट टू रिजेक्ट लागू हो. दूसरा फैसला चुनाव आयोग को यह भी लेना चाहिए कि आम चुनाव से पहले सारे राजनीतिक दलों के चुनाव-चिन्ह रद्द कर दिए जाएं. यानी सारे चुनाव-चिन्ह फ्री हों और उन्हें एक प्रक्रिया के तहत लॉटरी सिस्टम की तरह बांटा जाए. और अगर ऐसा होता है, तो उम्मीदवारों को इस देश के लोगों के सामने जाकर न केवल अपनी ईमानदारी का सुबूत देना पड़ेगा, बल्कि अपने कार्यक्रमों के आधार पर उन्हें समझाना भी पड़ेगा, नहीं तो वे अंतत: चुनाव हार जाएंगे. ऐसे में राइट टू रिजेक्ट और चुनाव-चिन्ह फ्रीज़ करके हर आम चुनाव में नए सिरे से सारे उम्मीदवारों और सारे दलों को नए चुनाव-चिन्ह नए सिरे से आवंटित करना ज़रूरी हो जाता है. मतलब ये दो कार्यक्रम फौरन लागू करने की आवश्यकता है. अन्ना हज़ारे इसमें राइट टू रिजेक्ट पर जोर दे रहे हैं. शायद चुनाव-चिन्ह फ्रीज़ करने और उन्हें नए सिरे से बांटने के सवाल को भी वे जन-संसद में उठाएं. लोग अन्ना हज़ारे की तऱफ बहुत उम्मीद से देख रहे हैं. यह उम्मीद इसीलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि 120 करोड़ लोगों के इस मुल्क में जनता की आवाज़ उठाने वाला कोई भी व्यक्ति रहा ही नहीं. ऐसा लगता है कि सारे राजनीतिक दल एवं उनके नेता एक-दूसरे से कॉम्पीटिशन कर रहे हैं कि कौन जनता के ख़िला़फ ज़्यादा बढ़-चढ़कर बोल सकता है या कौन जनता को ज़्यादा बेवकूफ बना सकता है. सवाल अब सीधे अन्ना हज़ारे और हिंदुस्तान की जनता का है.
अन्ना हज़ारे के पास पैसा नहीं है, बावजूद इसके वे देश में घूम रहे हैं. सच तो यह है कि उनके पास संगठित समर्थन नहीं है, असंगठित समर्थन है, लेकिन अगर यह असंगठित समर्थन कहीं संगठित हो गया, तो यह देश के सारे राजनीतिक दलों के लिए ख़तरा उत्पन्न कर देगा. अन्ना यह भी कह रहे हैं कि लेखक हो, पत्रकार हो, नाटककार हो, कवि हो, शिक्षक हो, डॉक्टर हो या वकील, इन सबको अपने-अपने दायरे से निकलना चाहिए और देश के लिए कुछ करना चाहिए. अन्ना की अपील लोग सुन रहे हैं. मैंने देखा कि बहुत सारे पत्रकार, ख़ासकर उन संस्थानों के पत्रकार, जिनके संपादक अपने ऊपर सवालिया निशान ओढ़े घूम रहे हैं, कुछ हथियारों की दलाली के संदर्भ में और कुछ मंत्रियों के पब्लिक रिलेशन ऑफिसर का रोल निभाने में, ऐसे अख़बारों के पत्रकारों ने अन्ना को अपना समर्थन देने का वादा किया है. उनके समर्थन में जब पुलिस एवं फौज के लोग शामिल हो जाएं, अधिकारी-छोटे कर्मचारी शामिल हो जाएं और अगर हम कहें कि अन्ना हम आपके साथ हैं, तो फिर हमें यह मानना चाहिए कि आम जनता की आशा अभी मिटी नहीं है. मैंने लोगों को अन्ना हज़ारे का भाषण हाथ जोड़कर सुनते हुए देखा है. इसका मतलब यही है कि लोग अन्ना हज़ारे में एक संत का दर्शन कर रहे हैं, जो व्यवस्था परिवर्तन की भाषा बोल रहे हैं और उनका साथ देने के लिए जैन मुनि, सनातनी साधु, बौद्ध एवं पादरी यानी हर तरह के लोग सामने आ रहे हैं. एक सूफी संत तो उनके साथ ही चल रहे हैं. इसीलिए अन्ना हज़ारे को कमज़ोर नहीं समझना चाहिए और उनके अगले क़दमों को ध्यानपूर्वक देखना चाहिए.
हां, एक बात ज़रूर है कि मीडिया उन्हें नज़रअंदाज़ कर रहा है. अ़फसोस की बात तो यह है कि जहां पर 8 हज़ार लोगों की मीटिंग हो रही है, वहां कांग्रेस से जुड़े और उसकी मिल्कियत में चल रहे टेलीविज़न चैनल कहते हैं और वह भी ग्राफिक्स के सहारे कि वहां कोई भी नहीं था, जहां पर पहले पूरा हाल भरा रहता था. उन्हें यह समझ में नहीं आता कि झूठ की भी एक हद होती है. सवाल यह है कि अगर वहां उनका कैमरामैन था, तो उन्हें ग्राफिक्स के सहारे की क्या ज़रूरत थी, वे खाली पंडाल दिखाते. उसके बाद उनका कैमरा अन्ना की मीटिंगों में न कभी नज़र आया और न नज़र आएगा. ऐसा लगता है कि इस टेलीविज़न चैनल ने कांग्रेस एवं भाजपा के संयुक्त प्रचार और जो भी इन दोनों के ख़िला़फ हैं, उनकी छवि धूमिल करने का ठेका ले लिया है. इस ग्रुप के पास मैगज़ीन है, अख़बार है और अथाह पैसा भी है, जिससे टेलीविज़न चैनल ख़रीदे जा रहे हैं, लेकिन कोई भी टेलीविज़न चैनल आम लोगों के बीच साख नहीं बना पा रहा है. हालांकि अन्ना हज़ारे के ऊपर इन चीज़ों का कोई असर ही नहीं पड़ रहा है. वह निरंतर चलते जा रहे हैं, चलते जा रहे हैं और चलते जा रहे हैं…