राहुल गांधी ने अपराधियों को संरक्षण देने वाले अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने की बात आम जनता को भ्रष्टचार मुक्त समाज देने के लिए की या इसके पीछे उनका अपना कोई मक़सद है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को पलटने के लिए राजनीतिक दलों ने अध्यादेश जारी कर दिया, जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय राजनीतिक माहौल को स्वस्थ बनाना चाहता था, यह एक ग़लत क़दम था.
देशभर में राजनेता एक बार फिर अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और उनके ख़िलाफ़ की जा रही कार्रवाइयों को लेकर ख़बरों में हैं. सत्रह वर्ष पुराने एक मामले में लालू प्रसाद यादव को झारखंड के एक न्यायालय ने सज़ा सुनाई है. दूसरी तरफ़ मुलायम सिंह यादव और मायावती को आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई ने क्लीन चिट दे दी. ये सभी प्रकरण एक बार फिर से अन्ना हजारे की उस मांग को सही ठहराते हैं, जिसके तहत वे कहते हैं कि सत्ता के हाथों में केंद्रित भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए एक स्वतंत्र मशीनरी की आवश्यकता है. इससे निपटने के लिए उन्होंने लोकपाल बनाने का सुझाव दिया था, जो कि श्रीमती इंदिरा गांधी या उनके पहले से ही लंबित चला आ रहा है. हमेशा की तरह यह सरकार भी इस मसले को टालती रही और अभी तक कोई हल नहीं निकला. दिन-ब-दिन बढ़ रहे घोटालों के बाद देश की जनता का विश्वास राजनीतिक संस्थाओं के प्रति कमज़ोर हो रहा है. इसे दोबारा से हासिल करने की ज़रूरत है. इसलिए यह ज़रूरी है कि इस विश्वास को हासिल करने के लिए एक मैकेनिज़्म बनाया जाए. इसके लिए सबसे अच्छा विचार तो यह है कि इसकी शुरुआत लोकपाल से की जाए और इस व्यवस्था के साथ जैसा कि अन्ना हजारे ने मांग की है कि सभी सरकारी कर्मचारियों को इसके भीतर लाया जाए, जिनकी संख्या लाखों में होगी. अगर लोकपाल की शुरुआत केवल मंत्रियों के लिए ही की जाती है, तब भी लोगों के भरोसे को फिर से हासिल करने के लिए यह शुरुआती प्रयास तो साबित होगा ही, बशर्ते वह लोकपाल सत्तारूढ़ सरकार के प्रति उत्तरदायी न होकर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति जवाबदेह हो. अगर आय से अधिक संपत्ति का मसला है, तो सीबीआई को भी हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, क्योंकि सीबीआई के पास ऐसा कोई भी मैकेनिज़्म या ज़रिया नहीं है, जिससे वह सही ढंग से जांच कर पाए.
सरकार चाहे कुछ भी दावा करे, सच्चाई तो यह है कि सीबीआई के अधिकारी भी पुलिसकर्मी ही हैं, जो कई बार संबंधित राज्य सरकार या केंद्र सरकार से प्रभावित होकर यानी उनके दबाव में काम करते हैं. अगर सीबीआई को स्वायत्त संस्था नहीं बनाया जा सकता, जिसके कि समर्थन और विरोध में भी तर्क दिया जा सकता है, तो सबसे बेहतर यह होगा कि लोकपाल केवल केंद्रीय स्तर या राज्य स्तर के मंत्रियों के लिए बनाया जाए. इनकी संख्या तकरीबन एक हज़ार से अधिक या उससे भी कम होगी, लेकिन इस स्थिति में लोकपाल को सभी मामलों की जांच करनी चाहिए और किसी भी मामले को सीबीसी, सीबीआई या अन्य किसी संस्था के पास नहीं भेजना चाहिए. जो शिकायतें जनलोकपाल के संज्ञान में लाई जाएं, उनका भी एक पैमाना होना चाहिए, क्योंकि एक-एक व्यक्ति की शिकायतों का निपटारा कर पाना संभव नहीं है और ऐसे में काम कभी ख़त्म ही नहीं हो पाएगा. अगर शिकायत जायज़ है, तब लोकपाल इसे संज्ञान में लेकर उस पर जांच बैठा सकता है. जांच के नतीजे सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखे जाएंगे और संबंधित सभी व्यक्तियों पर लागू होंगे. इस तरह से गठित लोकपाल का दफ्तर दिल्ली में हो सकता है, जो अपने आप में संपूर्ण होगा और उसके पास वही शक्तियां होंगी, जो कि न्यायालय के पास होती हैं. लोकपाल को पुलिस अधिकारियों का भी सहयोग मिलना चाहिए, लेकिन इनमें वे अधिकारी शामिल नहीं होने चाहिए, जो राज्य के अपने वरिष्ठ को रिपोर्ट करते हों, सीबीआई को रिपोर्ट करते हों या किसी अन्य राजनीतिक संस्था के प्रति जवाबदेह हों.
यह एक नया प्रयोग होगा. नई समस्याओं के लिए नये निदान की ज़रूरत होती है. हम उस दौर में रह रहे हैं, जिसमें राजनेता काफ़ी ताक़तवर हैं. ऐसे में यह कहना ग़लत होगा कि अगर हम चाहें तो उन्हें अपने बीच से हटा सकते हैं. उनके समर्थन में एक बड़ा वोट बैंक है, जिसके चलते वे फिर से सत्ता में आ सकते हैं. कुछ तो सत्ता में पहले से ही काबिज हैं, कुछ दोबारा सत्ता में आ सकते हैं. इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि जो जनप्रतिनिधि अभी जनता के समक्ष हैं, वे किसी भी संदेह से परे हों. राहुल गांधी ने अपराधियों को संरक्षण देने वाले अध्यादेश को फाड़कर फेंक देने की बात आम जनता को भ्रष्टचार मुक्त समाज देने के लिए की या इसके पीछे उनका अपना कोई मक़सद है, यह महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय को पलटने के लिए राजनीतिक दलों ने अध्यादेश जारी कर दिया, जिसके माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय राजनीतिक माहौल को स्वस्थ बनाना चाहता था, यह एक ग़लत क़दम था.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भी एक सवालिया निशान है. कोर्ट के मुताबिक, अगर कोई व्यक्ति आरोपी साबित हो जाता है, तो वह अयोग्य साबित हो जाएगा, लेकिन सवाल यह है कि आरोप किसके द्वारा साबित किया गया है. अगर निर्णय निचले न्यायालयों का है, तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि निर्णय ग़लत हो सकता है, क्योंकि निचले न्यायालयों की न्यायप्रणाली पर सवालिया निशान लगते रहे हैं. निचली न्यायपालिका किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं है. वह केवल अपने प्रदेश के मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह है. इसलिए हो सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विपक्षी दल के किसी विधायक के ऊपर बेबुनियादी इल्ज़ाम लगाकर उन्हें अपराधी साबित कराकर जेल भिजवा दें. इससे उस विधायक का राजनीतिक करियर ख़त्म हो जाएगा.
यह सब कुछ उच्च न्यायालय के स्तर पर होना चाहिए. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में संशोधन की आवश्यकता है और यह संशोधन है कि अगर हाईकोर्ट ने किसी को आरोपी साबित किया है, तब उसे पद से बेदख़ल किया जाए, न कि निचली अदालतों के निर्णय के आधार पर.
यह कुछ आवश्यक क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है. आगामी लोकसभा चुनाव में अभी भी छह महीने का व़क्त है. अगर कांग्रेस पार्टी सत्ता में वापस आना चाहती है, अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में वापस आना चाहती है, तो इन पार्टियों को यह मुद्दे उठाने चाहिए. एक सर्वदलीय बैठक बुलाई जानी चाहिए और अगर कोई भी पार्टी इन संशोधनों के ख़िलाफ़ जाती है, तो वह जनता की निगाह में अपने आप गिर जाएगी. समय आ गया है कि राजनेता अपनी छवि सुधारें, जिससे कि लोगों की नज़रों में उनकी छवि एक नैतिक व्यक्ति के रूप में और बढ़े. साथ ही उनके अधीन काम कर रहे नौकरशाहों के मन में उस नेता के प्रति भय हो. बजाए इसके, जिस तरह से मौजूदा समय में हर कोई एक-दूसरे से लाभ उठाने की कोशिश में लगा हुआ है.