आज भारत के पुनर्जागरण के पुरोधाओं में से एक, राजा राम मोहन राय 22 मई 1772 में जन्मे, जिन्हें ढाई सौ से एक वर्ष अधिक 251 वी जयंती पर विनम्र अभिवादन ! प्लासी की लड़ाई के सिर्फ पंद्रह वर्ष पहले का जन्म हुआ था ! मतलब अंग्रेजी राज की शुरुआत हो चुकी थी ! और राजाराम मोहन राय के पूर्वज मुर्शिदाबाद की नवाबों के सेवा में थे !
23 जून 1757 प्लासी की लड़ाई के बाद ! बंगाल में अंग्रेजी राज पूरी तरह से कायम होने के बाद ! भारत के अन्य हिस्सों में अंग्रेजों ने अपने पैर पसारने की शुरुआत की ! और सौ साल बाद 1857 की लड़ाई के बाद 190 साल एकछत्र राज किया ! इसी दौरान राजा राम मोहन राय, 22 मई 1772, महात्मा ज्योतिबा फुले 1827, और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 26 सितंबर 1820 में पैदा हुए ! जिन्होने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, सामाजिक सुधार के कामों में अपना संपूर्ण जीवन खपा दिया !
उसमें राजा राम मोहन राय, प्लासी की लड़ाई के पंद्रह साल बाद पैदा हुए ! और सबसे हैरानी की बात ! राम मोहन राय के पूर्वज मुर्शिदाबाद के नवाबों की सेवा में थे ! महात्मा ज्योतिबा फुले 1857 के स्वातंत्र्य युद्ध के, तीस साल पहले पैदा हुए हैं ! और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर भी 37 साल पहले ! राजा राम मोहन राय 61 साल की जिंदगी जिए ! ज्योतिबा फुले 63 साल की ! और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर 69 साल !


इस दुनिया में रहते हुए, तीनों महानुभावों ने अपने शुरुआती जीवन के पंद्रह – बीस साल छोड़ दें, तो हिंदु धर्म में सदियों से प्रचलित, सडांध के खिलाफ ! जिसमें सति प्रथा, महिलाओं के शोषण, और जाति-प्रथा के खिलाफ, तीनों ने अपनी जिंदगी खफा दी है ! अन्यथा आज भी महीलाओ को चिता में जलाया गया होता ! और चुल्हा, चौका, और बच्चों को जन्म देने के अलावा, उनकी जिंदगी नही रही होती ! इसलिये भले ही ढाई सौ से अधिक सालों के पस्चात भी ! उन्हें याद करना हमारा कर्तव्य है ! सिर्फ महिलाओं का ही नही ! हम पुरुषों का भी विशेष कर्तव्य है !


जिसमें से, आज राजा राम मोहन राय का 251 वा जन्म दिवस है ! वह अप्रैल 1831 में इंग्लैंड गए थे ! और 27 सितंबर 1833 के दिन लंडन के करीब स्टॅपल्टन हील में, इस दुनिया से चल बसे !
इतिहास के एक सिरे पर, भारत का अतिविशाल भूतकाल ! और अमर्याद भविष्यकाल ! के बीच में राजा राम मोहन राय एक जिंदा सेतू के जैसे खडे थे ! एक तरफ सडी गली पुरातन जाति-व्यवस्था, अंधश्रध्दा, सामंतशाही, रूढी परंपरा के अगणित पहाडो के बीच में ! विकास की पारंपरिक कल्पना, अनेकेश्वरवाद, तो दुसरी तरफ आधुनिक मानवतावाद, विज्ञानाभिमुखता, लोकतंत्र और एकेश्वरवाद को ! आगे बढ़ाने के इतिहासदत्त कार्य राजा राम मोहन राय ने किया है ! और इस कामके लिए, आजसे सवा दो सौ साल पहले ! शुरूआत करने की एकला चलो की कृती ! करने के लिए तत्कालीन परंपरावादी, कर्मठ, कुपमंडुक लोगों के, प्रखर विरोधको सहन करते हुए ! देखकर आज भी मेरे शरीर पर रोंगटे खड़े हो रहे हैं ! 1818 में सति की प्रथा के खिलाफ पहला लेख लिखने के बाद ! तत्कालीन ब्रिटिश शासन का ध्यान आकर्षित किया है ! और पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड बेंटिक ने 1828 में सती की प्रथा के खिलाफ कानून बनाया ! और उसपर पाबंदी लगा दी ! यह राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है !


और दुसरी उपलब्धि एकेश्वरवाद के लिए ब्रम्हो समाज की स्थापना ! 20 अगस्त 1820 के दिन ! जिसे आज 203 साल पूरे हो रहे हैं ! 48, चितपूर रोड, रविंद्रनाथ टागौर के जन्मस्थान 7 मई 1861 ठाकुर बाडी के करीब रविंद्रनाथ टागौर के जन्म से 41 साल पहले ! कलकत्ता, इस जगह पर राजा राम मोहन राय ने ब्रम्हो समाज की स्थापना की है !
ब्रम्हो समाज के उद्देश्य और भुमिका, खुद राजा राम मोहन राय ने 5 जनवरी 1830 को तैयार कि है ” विश्वस्त मंडल को यह जगह, इमारत, परिसर इसमें का सामान सब कुछ लोगों के रहने, तथा आमोद – प्रमोद के कार्यक्रम हेतू, किसी भी तरह के भेद-भाव के बीना ! सभी को जिनका, निर्गुण, निराकार, शाश्वत, अनादी- अनंत, ऐसे इश्वर पर विश्वास है ! ऐसे किसी भी धर्म के लोग, इकट्ठे होकर यहां, अपने कार्यक्रम कर सकते हैं ! ऐसा राजा राम मोहन राय ने, आग्रह किया है ! और आगे जाकर उन्होंने अपने एक मित्र को कहा ! “कि मेरी मृत्यु के बाद हिंदुओ ने मेरे पार्थिव शरीर पर अपना हक जताया ! तो मुस्लिम या ख्रिश्चन धर्म के लोगों ने, तो मुझे बहुत खुशी होगी ! क्योंकि मैं खुद को किसी भी धर्म का नहीं मानता हूँ ! मैं खुद विश्वधर्म का हिमायती हूँ !” यह देखकर तत्कालीन महाराष्ट्र के एक समाजसुधारक श्री. महादेव गोविंद रानडे ने कहा था कि ! ” इन दस्तावेजों से अपने को असली अध्यात्मिकता तथा गहरी धार्मिकता और वैश्विक सहनशीलता का परिचय हो रहा है ! और इसका महत्व शायद कुछ शताब्दियों के बाद लोगों की समझ में आयेगा !” लेकिन वर्तमान में भारत में गत चालिस साल से भी अधिक समय से ! जीस तरह के धर्म के इर्द-गिर्द राजनीतिक स्थिति बनी हुई है ! वह देखते हुए लगता है कि मनुष्य की प्रगति का ग्राफ कभी उपर कभी निचे होते रहता है ! और फिलहाल निचे की तरफ जा रहा है !
अठारहवीं शताब्दी के अंत में, राजा राम मोहन राय ! और अठारहवीं शताब्दी के शुरू में महात्मा ज्योतिबा फुले ! और पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे ! समाजसुधारकोकी भुमिकाओ के उपर भी, कुछ लोग उंगलियाँ उठाने वाले हैं ! हिंदुत्ववादीयो के अलावा, स्वघोषित क्रांतिकारी, और अंतिम सत्य का दावा करने वाले ! लोगों का आरोप है “कि अंग्रेजों के खिलाफ इन लोगों ने क्या किया ?”


बिल्कुल वाजिब सवाल है ! हालांकि राजा राम मोहन राय को राजा का खिताब, तत्कालीन दिल्ली के बादशाह अकबर द्वितीय ने ही दिया था ! और वह जिवन आखिर में 15 नवंबर 1830 के दिन जहाज से इंग्लैंड कि यात्रा पर,निकल कर 8 अप्रैल 1831 इंग्लैंड के किनारे पहुंचे थे ! उनके प्रतिनिधिकी हैसियत से ही गयें थे ! और उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने ! उनके छिने गए विशेषाधिकारों को, बहाल करने की, और उनका सालाना भत्ता बढ़ाने की अर्जी, दाखिल करने का काम किया था ! और उनके उस प्रयास से ! अकबर द्वितीय का सालाना भत्ता तीन लाख रुपये ! ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा बढ़ाने की बात भी जगजाहिर है !
और जैसा कि मैंने पहले ही लिखा है कि ! “वह उस परिवार में पैदा हुए थे ! जो कि मुर्शिदाबाद के नवाब के नौकरी में थे !” सर सैयद अहमद के पूर्वज उस समय के दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफर की सेवा में थे ! और वह खुद अंग्रेजी न्याय व्यवस्था में जज के पद पर कार्यरत थे ! वैसेही महात्मा गाँधी जी के पिता, करमचंद गांधी पोरबंदर के महाराज के दिवान थे ! और जवाहरलाल नेहरू के पूर्वज ! कश्मीर से आग्रा तत्कालीन बादशाह की सेवा में, स्थानांतरित हुए हैं ! लेकिन कालसापेक्षता का एक सिध्दांत है ! और उसके अनुसार ही, इंसानों के कामकाज का मुल्यांकन करना चाहिए !
जैसा कि महाराष्ट्र में सत्तर के दशक में, एक कम्युनिस्ट इतिहासकार ने ! छत्रपती शिवाजी महाराज को, सामंतवादी राजा कहा था ! और उसी विचारधारा के, कॉम्रेड गोविंद पानसरेजी को, “सच्चा शिवाजी कौन” नाम की पुस्तिका लिखकर प्रायश्चित करना पडा है !
महात्मा गांधीजी के उपर आरोप है कि ! “उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतो के सवाल पर, क्यों ध्यान नहीं दिया ? ” गांधीजी 1893 से 1914 तक बीस साल से भी अधिक समय दक्षिण अफ्रीका में रहे ! ये उनके जीवन के निर्माणकारी वर्ष थे (मोहन से महात्मा का सफर ! ) और इन वर्षों में ही, उनके भीतर उन विविध – विचारों का विकास हुआ, जिनका बाद में न केवल भारत के इतिहास पर, बल्कि सही अर्थों में पूरे संसार पर गहरा असर पड़ा !
लेकिन विडंबना यह है, “कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के कार्यों पर संदेह व्यक्त किए गए !” “कि उन्होंने भारतीय अप्रवासीयो की समस्याओं को तो उठाया, पर अफ्रीकी अश्वेतो के लिए कुछ नहीं किया ! क्योंकि वे वस्तुतः जातिवाद के विरूध्द नही थे !” दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष की सीमा तथा महत्ता, को समझने के लिए उन परिस्थितियों का, संक्षिप्त अवलोकन महत्वपूर्ण होगा, जो उनके सामने थी ! जब 1893 में एक भारतीय फर्म के, दीवानी मुकदमे में कानूनी सलाहकार की हैसियत से ! काम करने के लिए, वे मात्र तेईस वर्ष की आयु में नेटाल पहुंचे ! तो दक्षिण अफ्रीका में, भारतीयों की समस्या के बारे में, वे नहीं के बराबर जानते थे ! यह समस्या, उस समय से लगभग तीस वर्षों पहले पैदा हुई थी ! जब भारत से ‘गिरमिटिया’ मजदूरों को, नेटाल के गन्ना, चाय और काफी के बागानों में, काम करने के लिए लाया गया था ! सर डब्ल्यू. डब्ल्यू. हंटर के शब्दों में “उन मजदूरों की स्थिति, अर्द्ध दासता की स्थिति थी !” उन्हें भारत के सबसे गरीब, और घनी आबादी वाले जिलों से भर्ती किया जाता था ! मुफ्त यात्रा, मुफ्त रहना – खाना ; फिर पहले वर्ष दस शिलिंग का मासिक वेतन, और उसमे प्रतिवर्ष एक शिलिंग की बढोत्तरी, तथा पांच वर्षों की सेवा के बाद, भारत लौटने की मुफ्त सुविधा ! ( विकल्प के रूप में, उस देश में बस जाने की छुट ! ) इन सब प्रलोभनों में फंसकर, हजारों गरीब और अनपढ़ भारतीय, सुदूर नेटाल की ओर आकर्षित हुए !
1890 तक लगभग चालिस हजार लोग ‘गिरमिटिया मजदूरों ‘ के रूप में लाए जा चुके थे ! गाँधी जी के पहुंचने के तीन साल पहले ! हालांकि सभी युरोपीय मालिक क्रुर नही थे , लेकिन दुर्व्यवहार के आधार पर मालिक बदलना आसान भी नहीं था ! यदि कोई मजदूर पांच वर्षों के बाद अपना इकरारनामा पुनः नही करता था, तो उस पर तरह-तरह के प्रतिबंध लागू किए जाते थे ! बावजूद इसके इनमें से अनेक मजदूरों ने नेटाल में ही बस जाना अधिक पसंद किया ! क्योंकि भारत में उनकी जडे खत्म हो चुकी थी ! उन्होंने जमीन के छोटे – छोटे टुकड़े खरीदे, और सब्जियों को उगाने लगे ! वे बढीया जीवन जीने लगे ! और अपने बच्चों को पढ़ाने भी लगे ; इस बात ने, युरोपीय व्यापारियों में ईर्ष्या को जन्म दिया ! लिहाजा उन्होंने आंदोलन शुरू किया ! और मांग की “कि इकरारनामे का नवीनीकरण न करने वाले, हर भारतीय को वापस भेज दिया जाए !” दूसरे शब्दों में, भारतीय मजदूरों को नेटाल में या, तो अर्द्ध – दासो के रूप में रखा जा सकता था ! या बिल्कुल ही नहीं रखा जा सकता था !
1894 में नेटाल विधानसभा में एक विशेष कानून पारित, और स्वीकृत किया गया ! जिसके तहत लगभग दो सौ भारतीय व्यापारियों को, जो वोट देने के हकदार बन चुके थे, मताधिकार से वंचित कर दिया गया ! भारतीयों के व्यापार और उनके आप्रवास की सुविधाओं में, बड़ी रुकावटें खडी कर दी गई ! कोई भी अनुमति – पत्र के बीना, नेटाल में व्यापार नही कर सकता था ! किसी भी युरोपीयन को व्यापार की यह अनुमति, चाहने भर से मील जाती थी ! पर एक भारतीय आप्रवासी को, यदि यह सुविधा मिलती भी थी तो ! कठिन प्रयास और काफी खर्च करने के बाद ! देश में प्रवेश से पहले, किसी भी युरोपीयन भाषा की योग्यता को अनिवार्य कर दिया गया ! इस तरह आयातित अर्द्ध – दास, गिरमिटिया मजदूरों के सिवाय, भारत से आने वाले अन्य समर्थ आप्रवासियों में से अधिकांश के लिए, दरवाजा बंदप्राय हो गया ! यह सब परिस्थितियों के मद्देनजर, उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की सरकार के, भारतीयों के खिलाफ इतनी अपमानजनक स्थिति को देखते हुए अपनी ” बॅरिस्टर की अच्छी खासी प्रॅक्टीस छोड़कर ! दक्षिण अफ्रीका में भारत से मजदूरों को, जिन्हें कुली से लेकर गिरमिटिया के नाम से जाना जाता था ! और बंधुआ मजदूरों की हालत में, वह दक्षिण अफ्रीका में जीने के लिए मजबूर थे ! और उसमे भी उनके उपर नये – नये-नये कानून बनाकर ! ( एन आर सी के जैसे ! ) ले जाकर, उन्हें उनके मुलभूत, नागरिकों के अधिकारों से, वंचित करने की कृती के, विरोधी काम करने वाले बॅरिस्टर मोहनदास करमचंद गाँधी !
अपने एक साल के अफ्रीका के रहने के, शुरूआती एग्रीमेंट के खत्म होने के बाद ! विदाई समारोह में ! भारतीय मूल के लोगों के खिलाफ, दक्षिण अफ्रीका की सरकार के, नऐ कानून की खबर ! जो किसी स्थानीय अंग्रेजी अखबार में बहुत ही संक्षेप में छपी खबर की ओर ! उसी कार्यक्रम में शामिल किसी भारतीय ने गांधी जी का ध्यान आकर्षित किया ! और गांधी जी ने कहा “कि इस कानून के अनुसार आप सबके विवाह गैरकानूनी करार दिए जा रहे हैं ! और दक्षिण अफ्रीका के नागरिकों के जैसा मतदान का अधिकार समाप्त किया जाएगा !” (जो वर्तमान केंद्र सरकारने एन आर सी के तहत भारत में आज करने का फैसला लिया है !) और उस एन आर सी के खिलाफ, आंदोलन करने के लिए ! विशेष रूप से, गांधीजी के विदाई समारोह में ! शामिल लोगों ने आग्रह करते हुए !” उन्होेंने और कुछ दिनों के लिए दक्षिण अफ्रीका में रहकर, भारतीयोंके सवालों को लेकर मार्गदर्शन करना चाहिए !” इस अनुरोध पर एक साल के लिए गए ! बॅरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ! इक्कीस साल दक्षिण अफ्रीका में रहने के लिए मजबूर हुए !
जिसमें उन्होंने 1906 के , अपने ऐतिहासिक सत्याग्रह की खोज की ! और दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले, भारतीयों की लगभग सभी मांगों को लेकर, बीस साल के उपर, जो लड़ाई लड़ी ! और कामयाबी हासिल करने के बाद ! याने उम्र के 45 साल की उम्र, पार करने के बाद भारत लौटे हैं ! ( यही है, मोहन से महात्मा का सफर ! ) और उनके इस काम को देखते हुए, दक्षिण अफ्रीका कांग्रेस ने, अपने आदर्श के रूप में महात्मा गांधी को नजर के सामने रख कर ही ! रंगभेद के खिलाफ अपनी लड़ाई को लडने का निर्णय लिया ! खुद दक्षिण अफ्रीका के अश्वेतो के नेता नेल्सन मंडेला ! और अमेरिका के मार्टिन ल्युथर किंग जूनिअर उन्हें, अपने आंदोलन के आदर्श के रूप में देखते थे !
और हमारे अपने ही देश के कुछ लोगों, को गांधी ने यह क्यों किया? वह क्यों नहीं किया ? जैसी बाल कि खाल निकालने के अलावा, और क्या योगदान दिया है ? फिर उनकी शारीरिक हत्या करने वाले लोगों में, और आप में क्या फर्क रह जाता है ? महात्मा गाँधी जी के कार्यशैली की खासियत थी कि ! वह जिस मुद्दे को लेकर काम करते थे ! अर्जुन के जैसे, उसी पर अपनी पूरी क्षमता से, एकाग्र होकर काम करते थे ! इसलिए कई मुद्दों पर उन्होेंने यह क्यों नहीं किया? और वह क्यों नहीं किया? जैसे सवालों का सामना करना पड़ रहा है !
वहीं बात महात्मा ज्योतिबा फुले, 1857 के युद्ध के समय गिनकर तीस साल की उम्र के थे ! और उन्होंने 1957 की, लडाई लडने वाले पुणे के पेशवाओ की ! 1818 में पेशवाई समाप्त होने की, भीमा – कोरेगांव की लड़ाई में, अंग्रेजों की जित होने पर, खुशी जाहिर की है ! और डॉ. बाबा साहब अंबेडकरजी ने तो, उसे महार रेजिमेंट के, शौर्य दिवस के रूप मे मनाने की शुरुआत की है !
क्योंकि पुणे के पेशवाई में, दलित, महिला एवं पिछड़ी जातियों के लोगों के उपर, जो अत्याचार शुरू थे ! उनसे मुक्ति के रूप में, अंग्रेजों के राज का समर्थन किया है ! और कम – अधिक प्रमाणमे हजारों सालों से, भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण को ! शक, हूणों से लेकर, आर्य, तुर्की, मुघलो से लेकर, पर्शियन, डच, फ्रेंच, पुर्तगाली और अंग्रेजों तक ! तथाकथित हिंदु कट्टरपंथियों के तरफसे चलाए जा रही ! सडी – गली छुआछूत तथा जाति – प्रथा के कारण !(जिसमें अस्पृशोंको गले में मटका और कमर में झाडू बांधकर चलने से लेकर उनकी छाया तक नहीं पडनी चाहिए जैसे अमानवीय बंधन लादे हुए थे ! ) यह मनुष्य की आत्मसम्मान की कदम – कदम पर धज्जियाँ उडाने के समय, किससे उस समय के सत्ताधारी वर्ग के प्रति वफादारी की उम्मीद कर सकते हो ? ) बहुसंख्यक आबादी को लगता होगा कि! “यह वर्तमान बर्बर सत्ताधारियों के बनिस्बत ! नया जो भी कोई आक्रमणकारी होगा, शायद बेहतर होगा ! इस आशा में मुकदर्शक बने होंगे !” और मनुस्मृति के अनुसार “पांच हजार वर्ष पुराने, आदर्श संविधान के अनुसार, क्षत्रियों को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के लोगों को, शस्त्रधारीं होने की मनाही जो थी !
यह बात कुछ हदतक, मुस्लिम और अंग्रेजी राज में भी सही है ! जिसके बारे मे स्वामी विवेकानंद ने भी ! भारत में इस्लाम और ख्रिश्चन धर्म के आगमन के कारणों के बारे में कहा है कि ! ” हमारे समाज में चली आ रही उचनिच की,और छुआछूत जैसे, जाति – प्रथा के कारण हिंदू धर्म के कुछ लोगों ने, मुक्ति के रूप में इन धर्मों का स्विकार किया है !”


और इसीलिये राजा राम मोहन राय, पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर और महात्मा फुले तथा महात्मा गाँधी को देखते हुए ! मै समझ सकता हूँ ! कि उन्होंने कौन सी बात को ? प्राथमिकता दी है ! हालांकि इन सभी महानुभावों ने अपने जीवनकाल में कुछ तो कृति कार्य किए हैं ! लेकिन जो अनाम मूकदर्शक, या कुछ मिरजाफर जैसे बेईमानी करने वाले, लोगों के बारे में आलोचकों की क्या राय है ? आज से तीन सौ, या सौ- दो – सौ साल पहले, इन लोगों ने, अपनी व्यक्तिगत जिंदगी जीने के बजाय ! समाज सुधार के कारण, कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद ! आज स्त्री शिक्षा से लेकर, सति जाने की, कुप्रथाओं को रोकने के लिए, इन्हें याद करे ! या इन्होंने अंग्रेजी राज का समर्थन किया ! यह बोलते – लिखने की बात कहाँ तक उचित है ? सुना है कि “सति के आंकड़ों के बारे में राजा राम मोहन राय ने अतिशयोक्ति की है !” ऐसा भी तर्क कुछ लोग दे रहे हैं ! तो मै बताना चाहुंगा की तत्कालिन ईसाई मिशनरी विल्यम कैरी के अनुसार 1803 में राजधानी कलकत्ता के चालिस किलोमीटर के दायरे में 438 सति की घटनाओं का रेकॉर्ड है ! और 1815 – 1818 के बिचमे, अकेले बंगाल में 438 की जगह से 839 तक महिलाओं को, सति पर चढाए जाने का रेकॉर्ड है ! और इसी कारण से भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने, बंगाल सति विनियमन 1829 को अधिनियम पारित किया ! और सति प्रथा के अलावा, हिंदु विधवाओं के पुनर्विवाह अधिनियम 1870, और सहमति अधिनियम 1891, लॉर्ड डलहौजी ने पारित किया है ! खैर आकडे तो बहुत ही चौकाने वाले हैं ! वह बात दिगर है ! लेकिन एक भी औरत को अपने पति के निधन के बाद, चिता पर चढने की घटना भी ! मेरी नजर में अमानवीय और बर्बरता का उदाहरण को सहने वाले ! लोगों की असंवेदनशीलता का लक्षण मानता हूँ !
अभि कुछ वर्षों पहले, शायद अस्सी वाले दशक में ! राजस्थान के देवरिया की, रुपकँवर के सति जाने की बात के खिलाफ ( 1979-80 के दौरान ) ! और समर्थन में प्रदर्शन हुए हैं ! और उसके बाद देश के कुछ हिस्सों में सति मंदिर बनने की घटना मुझे याद है ! उस समय अमरावती में, छात्र युवा संघर्ष वाहीनी के तरफसे, हम लोगों ने उस मंदिर निर्माण के खिलाफ प्रदर्शन किया है !
हालांकि औरतों को जलाने का संबंध संपत्तियों को लेकर ही है ! और इसलिए राजा राम मोहन राय ने उस समय ! औरतों को संपत्ति में कानूनी रूप से, अधिकारो की भी मांग की है ! और आज से दो सौ साल पहले ! 1823 में अखबारों के प्रतिबंध के, खिलाफ भी उन्होंने और द्वारकानाथ टागौर, प्रसन्न कुमार टागौर के संयुक्त तत्वावधान में ! इंग्लैंड के राजा को उस प्रतिबंध के खिलाफ, याचिका दायर की है ! और उस याचिका का लेखन खुद राजा राम मोहन राय ने ही किया था !
सर सैयद अहमद ने, (जन्म 17 अक्तुबर 1817 – मृत्यु 27 मार्च 1898 ) अपनी आंखों से 1857 का युद्ध, अपने उम्र के चालीसवें साल में ! देखा था ! और उसके बाद, अंग्रेजों के मुसलमानों के खिलाफ जुल्मों को भी ! और उन्हें लगा कि “इससे अंग्रेज संपूर्ण रूप से मुसलमानों का खात्मा कर सकते है !” तो वह खुद अंग्रेजी राज में जज की नौकरी में थे ! और साथ ही अलिगढ स्कूल की स्थापना 1875 में करके, अपनी कौम को आधुनिक शिक्षा तथा वैज्ञानिक सोच के लिए ! विशेष रूप से कोशिश किऐ ! और कुछ हदतक उन्हें, अपने उद्देश्यों में कामयाबी हासिल हुई है ! आज वही अलिगढ स्कूल, भारतीय उपमहाद्वीप में, बेहतरीन शिक्षा का केंद्र के रूप में मान्यता प्राप्त है ! उस समय के कट्टरपंथी मौलवियों ने, हमेशा सर सैयद अहमद को अंग्रेजों के दलाल के रूप में, देखते हुए उनका विरोध किया है !
क्या राजा राम मोहन राय या पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर, महात्मा फुले, महात्मा गांधी को ! हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी लोगों की आलोचना नहीं सहनी पडी ? यहां तक कि हिंदु कट्टरपंथियोंने ही 30 जनवरी 1948 के दिन ! महात्मा गाँधी जी की शारीरिक हत्या के बाद ! अब वैचारिक हत्या का प्रयास जारी है ! और हम उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के, निग्रो के लिए क्या किया ? यही सवाल करते रहेंगे ? वैसे ही राजा राम मोहन राय ने लॉर्ड बेंटिक की मदत से सती की प्रथा का कानून पारित नही किया होता तो अबतक भारत की आधी आबादी महिलाओं में से कितनी महीलाओ को आग के हवाले कर दिया होता ? वैसे भी मां के गर्भ में ही बच्ची देखकर गर्भपात करने के लिए विशेष रूप से हरियाणा, पंजाब तथा राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह प्रॅक्टिस बदस्तूर जारी है ! और इसिलिये केरल छोड़कर भारत के सभी क्षेत्रों में लड़कियों का अनुपात कम होने की वजह क्या है ? क्या हम सिर्फ राज राम मोहन राय और सभी सामाजिक परिवर्तन करने वाले महानुभावों की जयंती – पुण्यस्मरण मनाने के अलावा उन्होंने जिन सामाजिक बदलाव के लिए अपने संपूर्ण जीवन को खपा दिया उस काम को आगे बढ़ाना यही सही श्रद्धांजली हो सकती है ?
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया इसी तरह से चलते रहती है ! यह तारतम्यता की आवश्यकता है ! आज राजा राम मोहन राय के 251 वे जन्मदिन पर बंगाल के पुनर्जागरण के पुरोधा की स्मृति को विनम्र अभिवादन !
डॉ. सुरेश खैरनार 22 , मई 2023, नागपुर.jayanti

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