नयी पीढ़ी या युवा वर्ग या कहिए न्यू जेनरेशन असमंजस में है। मनमोहन सिंह की नीतियों से उड़ान भरता भारत युवा वर्ग का दिवा स्वप्न है। मोदी ने क्या किया ग्लोबलाइजेशन से उड़ान भरते भारत के प्लेन को ऊंचे परवाज़ दे दिए। बदलती दुनिया में पश्चिम परस्त युवा पीढ़ी को और क्या चाहिए। तो आज की राजनीतिक सामाजिक स्थिति और युवा पीढ़ी की हकीकत क्या है। इसे समझने से पहले गये हफ्ते की बात कर लें।
गया हफ्ता कई लोगों से कई लोगों के इंटरव्यू का रहा। यशवंत सिन्हा और रामचंद्र गुहा से आरफा खानम शेरवानी, यशवंत सिन्हा और विनोद शर्मा से मुकेश कुमार, अपूर्वानंद से नीलू व्यास, श्रवण गर्ग और राजीव रंजन सिंह से आलोक जोशी का इंटरव्यू चर्चा का विषय रहा । इसमें प्रति सप्ताह होने वाले अभय दुबे से संतोष भारतीय के इंटरव्यू को भी जोड़ लीजिए। आरफा खानम शेरवानी से बात करते हुए यशवंत सिन्हा ने मोदी शासन को तो उधेड़ा ही ,विपक्ष की संभावित रणनीति पर भी कुछ अच्छी टिप्पणियां कीं। मुझे लगता है पहली बार किसी ने विपक्ष की सापेक्ष एकता को नकारते हुए स्पष्ट कहा कि इस एकता के झांसे में हमें नहीं पड़ना चाहिए बल्कि भाजपा के खिलाफ जो दल जहां मजबूत है उसे और ताकत दी जानी चाहिए। इसी तरह विपक्ष के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के पचड़े में कतई नहीं पड़ना चाहिए। दरअसल विपक्ष की हरकतों से तंग आ चुके बहुत से लोगों के मन की बात है यह। क्या विपक्ष इसे शब्दशः स्वीकार करेगा या फिर इकठ्ठे होकर, फिर किसी मंच पर हाथों में हाथ डाल ऊपर उठा देगा। नीतीश कुमार तो फिलहाल इसी दौड़ में लगते दिखते हैं। दूसरा इंटरव्यू आरफा ने रामचंद्र गुहा से लिया। इस पर आगे बात करेंगे।
एक इंटरव्यू अपूर्वानंद का बहुत अहम है जो नीलू व्यास ने लिया। अपूर्वानंद ने चार बातें अहम कहीं। एक मतदाता के नशे की दूसरी देश के खतरनाक बिंदु पर पहुंचने की तीसरी मोदी के बजरंग दल के प्रवक्ता बन जाने की और चौथी उनकी टिप्पणी गोदी मीडिया को लेकर थी जिसे वे गोदी मीडिया नहीं मानते। लेकिन बजरंग दल वाली बात को छोड़ क्या बाकी तीनों बातें वैसी ही हैं जैसे अपूर्वानंद कह रहे हैं।‌ पहली बात यह कि किस मतदाता को वे नशे में कह रहे हैं। युवा पीढ़ी तो जैसे हमने शुरु में कहा वह असमंजस में है। खाता पीता वर्ग स्पष्टत: दोनों तरफ बंटा हुआ है। तीसरा वर्ग जो गरीब और सबसे ज्यादा गरीब है वह अपने ही धंधों की उलझनों में इतना फंसा है कि उसे महंगाई सालती जरूर है पर उसमें इतना विवेक नहीं कि इसके लिए वह मोदी को सीधे सीधे जिम्मेदार ठहरा सके । दो बातें हैं एक तो वह 2014 में जैसे मोदी से ‘हिप्नोटाइज़’ हुआ था अभी भी उसी अवस्था में है । 2014 के बाद देश दुनिया में क्या क्या बदला उसे कुछ लेना देना नहीं। दूसरा उसे स्पष्टत: न सरकार का संचालन, लोकतंत्र और नागरिकता के प्रश्नों का कुछ मालूमात है और न किसी ने कभी उसे इसका अहसास कराया। सदियों से यह वर्ग जैसा था आज भी है। इसे नशे में कहना कितना ठीक है। शायद नशे की बात अपूर्वानंद ने मोदी के समर्थकों और अंधभक्तों के लिए कही । तो उनसे किसी तरह के बदलाव की किसी को भी उम्मीद क्यों। उनके दिमागों की भी तो ‘कंडीशनिंग’ कर दी गई है। दूसरी बात उन्होंने आज की भयानक स्थिति को लेकर कही । उन्होंने कहा हमारे पास कोई नुस्खा नहीं है सिवाय लोगों से बात करते रहने के कि हम बहुत खतरनाक बिंदु पर पहुंच गये हैं। उनकी यह बात इस बात को प्रमाणित करती है कि विरोध में जी रहा यह खाता पीता वर्ग अब जमीन से पूरी तरह कट चुका है और वह सिर्फ एक दूसरे से बात ही कर सकता है (यानी एक दूसरे के विरोध की जमीन और तर्क को महज़ मजबूत ही कर सकता है) इस पर तो हम पहले कई बार बल्कि शायद हर बार ही लिखते रहे हैं। किसी भी आंदोलन की अगुवाई करने वाले इस वर्ग की धार अब कुंद होकर ट्विटर और फेसबुक तक रह गई है। तीसरी बात गोदी मीडिया की तो यह तमगा शायद उनके सबसे प्रिय रवीश कुमार का ही दिया हुआ है। और सही दिया है। अपूर्वानंद जो तर्क दे रहे हैं वह बाद की स्थिति का है। जैसे एक सिस्टम बनाया जाता है फिर वह सिस्टम स्वयं ही कार्य करने लगता है। वैसे ही पहले मेन मीडिया को गोदी में बैठने लायक बनाया गया। बाद में वह इतना अपने मालिक की लाइन से आत्मविश्वास में भर गया कि उसी दिशा में उछलकूद करने लगा। अब उसको नियंत्रित करने की जरूरत नहीं और न ही कोई निर्देश देने की । उनका यह कहना कि मोदी का विकल्प कपटी तर्क है यह तो हम भी मानते हैं लेकिन जब इस तर्क की प्रधानता बना ही दी गई है इस सुलझे – अनसुलझे समाज के लिए तो आप क्या करेंगे।
एक मजेदार इंटरव्यू रामचंद्र गुहा का है जो आरफा खानम ने लिया। गुहा और अपूर्वानंद दोनों की बात करने की शैली अलग है। शायद कन्नड़वासी गुहा हिंदी में उतने सहज नहीं हैं और बहुत जल्दी जल्दी बोलते हैं। वे अंग्रेजी में ही बोलते और लिखते हैं। उसी में वे सहज भी रहते हैं। हिंदी पट्टी के अपूर्वानंद बहुत इत्मीनान से शब्दों को सहेज सहेज कर बोलते हैं। दोनों में कुछ मुद्दों पर वैचारिक विरोध भी है ऐसा कई बार देखने को मिला। खैर । रामचंद्र गुहा ने कर्नाटक में जीत पर जो कुछ कहा वह सराहनीय है। वह उनका राज्य है जिसे वे भलीभांति समझते हैं। ऐसे में गिरीश कर्नाड की याद भी आती है और गौरी लंकेश व कलबुर्गी जी की भी। इंटरव्यू में मजेदार वह पक्ष रहा जब आरफा ने राहुल गांधी की प्रशंसा की । इसके जवाब में रामचंद्र गुहा ने जो कुछ कहा उससे कम से कम मैं तो बहुत संतुष्ट हुआ। उन्होंने आरफा को यह कह कर भी आईना दिखाया कि आप राहुल गांधी के पक्ष में कितनी झुकी हुई हैं यह मैं अच्छी तरह जानता हूं। बहुत बार देखा है। जब आरफा ने यह कहा कि चलिए इस पर फिर कभी फिर बात करेंगे तो गुहा ने स्पष्ट किया कि मुझसे तो मत ही कीजिएगा। दरअसल मैं भी अरसे से सोच रहा था कि आरफा को कोई समझाए कि राहुल गांधी की इतनी तरफदारी (मैं अंधभक्ति नहीं कह रहा) अच्छी नहीं। 2018 से यही देखा जा रहा है कि आरफा किस कदर कांग्रेस के प्रति उतनी झुकी नहीं हैं जितनी राहुल के लिए । शायद गुहा भी वैसा ही सोचते हैं जैसा अभी तक हमें लगता है कि राहुल गांधी अभी भी वह परिपक्वता नहीं पा सके हैं जो एक ‘मैच्योर पॉलिटीशियन’ में होती है। आज चौतरफा राहुल गांधी ही राहुल गांधी हैं । हर कोई उन्हें जरूरत से ज्यादा गम्भीरता से लेने लगा है खासतौर पर कर्नाटक की जीत के बाद। लेकिन हम भूल जाते हैं कि कर्नाटक में जिस तरह प्रियंका ने मोदी को कदम कदम पर पैदल किया है उतना राहुल गांधी की कोई भूमिका नहीं सिवाय ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को छोड़ कर। आज भी हमें राहुल गांधी पढ़ी हुई और समझाई गई स्क्रिप्ट पढ़ने वाले राजनेता ज्यादा लगते हैं। एक सवाल के जवाब में पलट कर आरफा ने कहा कि वे मनमोहन सिंह के मंत्रिमंडल में इसलिए नहीं शामिल हुए कि कहीं दखलंदाजी का आरोप न लगे तो कृपया यह बताएं कि मनमोहन सिंह के अध्यादेश को सरेआम प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ देना क्या था और किस हैसियत से था। आरफा को चाहिए वे संतुलित पत्रकारिता करते दिखें । मोदी का विरोध जरूरी है पर कोई एजेंडा लक्षित नहीं होना चाहिए। राहुल के प्रति ऐसी भक्ति ‘सत्य हिंदी’ के अंबरीष कुमार में भी दिखाई देती है। खैर यह बहस लंबी है।
यह लेख भी लंबा हो रहा है। हम अपनी बात पर लौटें। संक्षेप में कहा जाए तो आज यह स्थिति बन गई है कि अब मोदी का समर्थन और विरोध एक खास तरह की मानसिक अवस्था में पहुंच चुका है। जब किसी सिक्के को खूब घिसा जाए तो उसके कोई मायने रह नहीं जाते इसी तरह देश की मौजूदा समस्याएं हैं। अब लड़ाई सिर्फ ऊपर ऊपर की है। जो सतह पर साफ दिखाई देती है। इस सरकार की 2024 में रवानगी न हुई तो देश में आने वाले समय में गृहयुद्ध तय है। इसे विस्तार से समझना होगा।
कई और भी बातें रह गई हैं। कल का ‘सिनेमा संवाद’ बड़ा दिलचस्प रहा ‘द केरला स्टोरी’ के बहाने कट्टरता से फिल्मों की सफलता पर। इसलिए इसे कल छुआ जाए तो अच्छा। कल केरला स्टोरी पर बात ….. (क्रमशः)

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