महंगाई एक बड़ा मसला है और लोगों का कांग्रेस से मोहभंग का एक बड़ा कारण भी. महंगाई ने सबको प्रभावित किया है. किसी ने कहा है कि महंगाई कराधान का एक सबसे ख़तरनाक रूप है. यह एकमात्र ऐसा कराधान है, जो संसद की अनुमति के बगैर लगता है. एक व्यक्ति जिसकी निश्चित आय है, वह चाहे बड़ी मात्रा में टैक्स दे या फिर महंगी वस्तुएं खरीदे, दोनों में क्या फर्क है? वास्तव में महंगाई वह शांत कराधान है, जो आम आदमी को मार देती है. आज वास्तव में महंगाई सबसे बड़ी समस्या है और विडंबना यह है कि राहुल गांधी इस विषय पर कोई राय नहीं रखते हैं. जैसा है, वैसे ही चलता जा रहा है, हर स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर भी.
लोकसभा चुनावों में अब चार महीने ही बचे हैं. इस संदर्भ में आधिकारिक सूचना भी संभवत: 22 फरवरी के आसपास संसद सत्र की समाप्ति के बाद जारी कर दी जाएगी. चुनावी सरगर्मियां तेज हो गई हैं. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार के संदर्भ में कई राज्यों का दौरा कर रहे हैं, लेकिन अब ऐसा महसूस किया जा रहा है कि वह एक जैसी ही बातें हर जगह कर रहे हैं. उनके पास नया कहने के लिए बमुश्किल ही कुछ बचा है. दूसरी तरफ़ कांग्रेस पार्टी एकाएक खुद में कुछ नयापन दिखा रही है. पार्टी के उपाध्यक्ष राहुल गांधी अब आक्रामक छवि अख्तियार कर रहे हैं और अपने हावभाव में भी जोश प्रकट कर रहे हैं. बावजूद इसके ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने अब काफी देर कर दी है. कांग्रेस पार्टी अब जो कोशिशें कर रही है, उसका मई में होने लोकसभा चुनावों पर कोई खास असर पड़ेगा, ऐसा लग नहीं रहा है.
राहुल गांधी को इन प्रयासों की शुरुआत तीन साल पहले ही कर देनी चाहिए थी. वास्तव में जब अन्ना हजारे रामलीला मैदान में जनलोकपाल को लेकर अनशन कर रहे थे, तब राहुल गांधी ने लोकसभा में इस मसले पर हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि जनलोकपाल को संवैधानिक दर्जा मिलना चाहिए, लेकिन यह बात वहीं ख़त्म हो गई. हो सकता है कि वह उस समय कांग्रेस अध्यक्ष या फिर किसी और के दबाव में रहे हों. उस दौर में उन्हें वे क़दम उठाने चाहिए थे, जो वह आज उठा रहे हैं. मुझे लगता है कि पिछले दो-ढाई वर्षों में परिस्थितियां काफी बदल सकती थीं. राहुल गांधी युवा पीढ़ी के नेता हैं और ऐसे में अगर वह व्यवस्था में बदलाव की बात करते, तो उनकी एक विश्वसनीयता भी रहती, लेकिन बीते दो वर्षों में कई घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा हुआ. हां, यह ज़रूर है कि पहले दागी सांसदों-विधायकों के अध्यादेश के मुद्दे पर अपनी जोरदार राय रखकर और फिर जनलोकपाल बिल को पास कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर राहुल गांधी ने सही दिशा हासिल की, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. देश की जनता अब यह मानने को तैयार ही नहीं है कि कांग्रेस मुद्दों को लेकर गंभीर भी है.
दूसरी तरफ़ भारतीय जनता पार्टी के पास दक्षिण भारत और पूर्व में बड़ा जनाधार नहीं है, इसलिए अगर वह उत्तर भारतीय राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करती भी है, तो भी 170-175 सीटों पर आकर ही ठहर जाएगी. ऐसी स्थिति में भी वह नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का
दावेदार बना रही है, जो कि हास्यास्पद लगता है. अगर भाजपा को लगता है कि वास्तव में नरेंद्र मोदी के कारण उसे सीटें मिल रही हैं, तो बिना 272 सीटों के वह नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री कैसे बनाएगी? व्यवहारिक तौर पर देखा जाए, तो भारतीय जनता पार्टी को चुनावों में जो सीटें मिल रही हैं, वे पार्टी या फिर किसी और व्यक्ति विशेष के नाम पर नहीं मिल रही हैं. वे सीटें भाजपा कैडर और कांग्रेस विरोधी लहर के कारण मिल रही हैं. राजस्थान का उदाहरण लीजिए. विधानसभा चुनावों में यहां पर भारतीय जनता पार्टी को 199 सीटों में से 163 सीटें अशोक गहलोत की अयोग्यता के कारण नहीं, बल्कि कांग्रेस विरोधी लहर और केंद्र में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार की नकारात्मक छवि बनने की वजह से मिलीं.
महंगाई एक बड़ा मसला है और लोगों का कांग्रेस से मोहभंग का एक बड़ा कारण भी. महंगाई ने सबको प्रभावित किया है. किसी ने कहा है कि महंगाई कराधान का एक सबसे ख़तरनाक रूप है. यह एकमात्र ऐसा कराधान है, जो संसद की अनुमति के बगैर लगता है. एक व्यक्ति जिसकी निश्चित आय है, वह चाहे बड़ी मात्रा में टैक्स दे या फिर महंगी वस्तुएं खरीदे, दोनों में क्या फर्क है? वास्तव में महंगाई वह शांत कराधान है, जो आम आदमी को मार देती है. आज वास्तव में महंगाई सबसे बड़ी समस्या है और विडंबना यह है कि राहुल गांधी इस विषय पर कोई राय नहीं रखते हैं. जैसा है, वैसे ही चलता जा रहा है, हर स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर भी.
आम आदमी पार्टी को राजनीति में एक बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है. अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच कोई बड़ा अंतर नहीं है. एक हद तक यह ठीक भी है, लेकिन केजरीवाल इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं है कि वह वास्तव में व्यवस्था में किस तरह का बदलाव करना चाहते हैं. स्थिति तब और दु:खद हो जाती है, जब मीडिया भी इसका सही ढंग से विश्लेषण नहीं करता. उनकी सरकार का एक मंत्री पुलिस को कार्रवाई करने को कहता है और स्थितियां बिगड़ जाती हैं. यहां मसला यह नहीं है कि मंत्री को स्वयं यह क़दम उठाना चाहिए था या नहीं? असल मसला तो यह है कि इसकी प्रक्रिया क्या है? अगर गलत परंपरा बनने लगेगी, तो आप उसे कैसे संभालेंगे? केजरीवाल ने खुले तौर पर आरोप लगाया कि एसएचओ (स्टेशन हाउस ऑफिसर) घूस लेते हैं. कुछ लोगों ने जांच की मांग की. वास्तव में यह जांच का मसला नहीं है. क्या किसी ने इससे मना किया? गृहमंत्री ने भी इसके लिए मना नहीं किया, क्योंकि कहीं न कहीं, कोई न कोई दिक्कत तो है, यह हर कोई मान रहा है.
दिल्ली में पुलिस द्विभाजन के रूप में है. मुख्यमंत्री का पुलिस पर अधिकार नहीं है. पुलिस उपराज्यपाल और केंद्र के अधीन है. मुंबई में एकसत्तात्मक व्यवस्था है. दिल्ली में ऐसा नहीं है, यहां दोहरी सत्तात्मक व्यवस्था है. मैं यह नहीं कह रहा हूं कि दिल्ली में पुलिस को मुख्यमंत्री के अधीन रहना चाहिए, क्योंकि मैं यह नहीं जानता कि वहां पर इसकी प्रक्रिया क्या है? लेकिन एक बात तो तय है कि दिल्ली पुलिस में गड़बड़ ज़रूर है. अपराध बढ़ता ही जा रहा है. हां, यह ज़रूर है कि दिल्ली में बड़ी जनसंख्या निवास करती है, वहां पर बेहतर मौ़के हैं, संभ्रांत लोग हैं. ऐसे में अपराध की संभावना भी बढ़ती है, लेकिन इस अपराध की एक बड़ी वजह पुलिसिया कार्रवाई का अभाव भी है. दिल्ली पुलिस के
एसएचओ इस बात के लिए बदनाम हैं कि पहले तो वे कार्रवाई ही नहीं करते और करते भी हैं, तो पक्षपाती तौर पर. ऐसे में केजरीवाल जो कह रहे हैं, वह कोई नई बात नहीं है. हर कोई इससे अवगत है. हो सकता है कि वह धरने पर बैठकर इस मसले पर लोगों का ध्यान खींचना चाहते हों, लेकिन देश में व्याप्त समस्याओं का हल धरने से नहीं होने वाला.
देश के वरिष्ठ लोगों, संभवत: प्रधानमंत्री को चाहिए कि वह एक कमेटी बनाएं, जो जनता की बेहतरी के लिए व्यवस्था में बदलाव लाने की दिशा में काम करे. इसकी शुरुआत वह दिल्ली पुलिस से कर सकते हैं. एक मंत्री अगर इस प्रकरण को लोगों की निगाह में लाया है, तो इस मौ़के का फायदा उठाइए और इस समस्या को ठीक करिए. जहां पर भी अपराध होता है, ऐसा देखा गया कि अपराध इसलिए हुआ, क्योंकि पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की. सिविल सोसाइटी के लोग, देश के नामी-गिरामी वकील एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता सभी क़ानून मंत्री में दोष खोज रहे हैं. भले ही वह क़ानून मंत्री हैं, लेकिन उसके पहले देश के नागरिक भी तो हैं, उस क्षेत्र के विधायक भी हैं. ठीक है, हो सकता है कि जो प्रक्रिया उन्होंने अपनाई, वह गलत थी, तो वास्तविकता क्या थी, इस पर भी गौर करना चाहिए. क्या वहां पर कोई ड्रग रैकेट था? ठीक है कि क़ानून मंत्री रेसिस्ट हैं, यह कहा जा रहा है, लेकिन अगर युगांडा और नाइजीरिया के नागरिक ड्रग्स के अवैध कारोबार में लिप्त हैं, तब उनके ख़िलाफ कार्रवाई करना रेसिज्म नहीं है. वास्तव में पिछले 10-15 वर्षों के भीतर सिस्टम पूरी तरह से असफल हो गया है और यह सब कुछ सुनियोजित तरीके से हुआ है. आप किससे कहने जाएंगे? हर अधिकारी एक जैसा है. हर कमिश्नर, जो कि दिल्ली आता है, वैसा ही हो जाता है. अब यह प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी है कि वह गृहमंत्री से बात करें या फिर उन्हें चाहिए कि वह गृहमंत्री को ही बदलें. इस मुद्दे पर और गंभीर होने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से जुड़ा मसला है. 16 दिसंबर, 2012 के दुष्कर्म प्रकरण के बाद भी दिल्ली में न जाने कितने बलात्कार हुए! ज़रूरी है कि कुछ बड़े उठाए जाएं. नहीं तो कम से कम कोशिश ही की जाए, वरना राहुल गांधी के प्रयासों के कोई मायने नहीं रह जाएंगे..
राहुल गांधी के इन प्रयासों से क्या हासिल होगा
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