झारखंड में हर पार्टी अपने-अपने हिसाब से समीकरण बनाने में जुट गई है. कांग्रेस ने तो साफ़ कर दिया है कि वह बिहार की तरह झारखंड में भी महा-गठबंधन की कवायद का समर्थन करेगी, ताकि भाजपा को बढ़त लेने से रोका जा सके. इस दिशा में राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अंदरखाने तैयारी भी शुरू कर दी है. दूसरी तरफ़ भाजपा यहां पूरे दम-खम के साथ चुनावी जंग में उतरने और फतह की रणनीति बनाने में जुट गई है. लेकिन, जहां तक सहयोगी दलों को साथ लेने का सवाल है, तो उसे लेकर पार्टी में फिलहाल कोई एक राय नहीं बन पाई है. गठबंधन को लेकर भाजपा में दो धाराएं हैं. एक धारा का मानना है कि राज्य में सत्ता विरोधी लहर है और जनता परिवर्तन करने के लिए बेताब है, इसके अलावा नरेंद्र मोदी का जादू तो चलेगा ही. लेकिन, भाजपा में बहुत सारे ऐसे नेता हैं, जो हाल में बिहार और उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव के नतीजों को लेेकर चिंतित हैं. उनका मानना है कि सहयोगी दलों को साथ लेने में ही भलाई है और सरकार बनाने के लिए भाजपा को अपना दिल बड़ा करना ही होगा. बिहार में भाजपा की सहयोगी रालोसपा एवं लोजपा को पूरा भरोसा है कि झारखंड में भी भाजपा उनकी ताकत और भावना का पूरा सम्मान करेगी.
ग़ौरतलब है कि मौजूदा झारखंड विधानसभा में लोजपा एवं रालोसपा का कोई विधायक नहीं हैं, लेकिन बिहार में लोकसभा चुनाव में इस गठबंधन को आशातीत सफलता मिली. झारखंड में भी इस गठबंधन का पूरा असर पड़ा और बिहार से सटी सीटों पर लोजपा एवं रालोसपा के समर्थकों ने सक्रिय होकर भाजपा का साथ दिया. मौजूदा विधानसभा में भाजपा के 18 विधायक हैं. 81 सदस्यीय विधानसभा में झामुमो के 18, कांग्रेस के 13, झाविमो के 11, आजसू के छह, राजद के पांच एवं जदयू के दो विधायक जीतकर आए थे. यहां यह समझना ज़रूरी है कि आख़िर भाजपा को लोजपा एवं रालोसपा का साथ क्यों चाहिए? सीधा कारण यह है कि बिहार से सटे झारखंड के ज़िलों में कुशवाहा और पासवान बिरादरी के लोग बड़ी संख्या में हैं, जो राजनीतिक तौर पर भी हमेशा सक्रिय रहे हैं. झारखंड विधानसभा की 18 सीटों पर कुशवाहा और पासवान बिरादरी के वोट किसी की हार एवं जीत को तय करते हैं. यही वजह है कि भाजपा का एक खेमा चाहता है कि रामविलास पासवान एवं उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के साथ तालमेल करके यहां चुनाव लड़ा जाए, ताकि इन 18 सीटों पर जीत हासिल की जा सके. इन सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन कभी भी बहुत अच्छा नहीं रहा. यहां पासवान एवं कुशवाहा एक बड़ी राजनीतिक ताकत हैं.
झारखंड के हजारीबाग, कोडरमा, चतरा, पलामू, गिरिडीह एवं देवघर ज़िले के कई ऐसे क्षेत्र हैं, जो बिहार से सटे हुए हैं और बिहार की राजनीति यहां पूरी तरह से प्रभावी है. इसी का परिणाम था कि पूर्व के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान झारखंड मुक्ति मोर्चा से एक विधायक बिहार विधानसभा में पहुंचा था. लालू यादव के नेतृत्व वाले राजद के टिकट पर देवघर से विधायक बने सुरेश पासवान झारखंड में कैबिनेट मंत्री हैं. इसके अलावा कोडरमा की विधायक अन्नपूर्णा देवी, जो कैबिनेट मंत्री पद पर आसीन हैं, राजद से ही चुनाव जीतती आ रही हैं. झारखंड में रालोसपा के लिए भी संभावनाएं कम नहीं हैं. कोयरी-कुशवाहा जाति के मतदाताओं की अच्छी-खासी तादाद झारखंड में है, जो पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुदेश महतो की पार्टी आजसू का साथ देती रही है. अगर उपेंद्र कुशवाहा थोड़ा-सा भी समय झारखंड को देते हैं, तो वह कई नेताओं के लिए सिरदर्द बन सकते हैं.
लगभग 18 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जो बिहार की सीमा से सटे हैं और जहां बिहार की तर्ज पर जाति आधारित राजनीति चलती आई है. झारखंड में पासवानों की संख्या भी काफी है. ऐसे में रामविलास पासवान एवं उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी का तालमेल भाजपा के साथ कायम रहता है, तो उनके विधायक भी आने वाले समय में झारखंड विधानसभा में देखे जा सकते हैं. फिलहाल झारखंड विधानसभा चुनाव की तैयारियों में लगे राजनीतिक दलों के लिए सबसे अच्छी बात यह है कि राज्य में रालोसपा और लोजपा का संगठन अभी तक बहुत मजबूत आकार नहीं ले सका है. इसलिए रालोसपा और लोजपा के शीर्ष नेता पूरे झारखंड की बजाय उन्हीं 18 सीटों पर फोकस करना चाहते हैं, जहां उनका मजबूत आधार है. जानकारों के अनुसार, दोनों ही पार्टियां चाहती हैं कि उनका भाजपा के साथ सीटों का तालमेल हो और मिलजुल कर चुनाव लड़ा जाए. अगर किसी कारण ऐसा नहीं हो पाया, तो यह भी तय है कि रालोसपा और लोजपा यहां अपने बलबूते चुनाव मैदान में कूदेंगी और ऐसे में ऩुकसान भाजपा को हो सकता है.
झारखंड : रालोसपा और लोजपा को कम मत आंकिए
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