purushottamआज हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और वंदे मातरम हमारा राष्ट्रगीत है, इसका प्रमुख योगदान जाता है, पुरुषोतम दास टंडन को. उन्होंने न सिर्फ राजभाषा के रूप में हिंदी को हिंदुस्तान से जोड़ने में अहम भूमिका अदा की, बल्कि वे एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, तेजस्वी वक्ता और समाज सुधारक भी थे. पुरुषोतम दास टंडन को आजाद भारत के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में नई चेतना, नई लहर और नई क्रांति पैदा करने वाला कर्मयोगी कहा जाता है. एक ऋषि के समान अपने सियासी व सार्वजनिक सत्कार्य में लगे रहने के कारण उन्हें आम जनमानस में राजर्षि के नाम से भी जाना जाता है.

पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त 1882 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में हुआ था. इलाहाबाद के ही सिटी एंग्लो वर्नाक्यूलर विद्यालय में ही उन्होंने प्रारंभिक और माध्यमिक पाई. 1897 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. उसी साल 15 साल की अल्पायु में ही उनकी शादी मुरादाबाद निवासी नरोत्तमदास खन्ना की पुत्री चन्द्रमुखी देवी के साथ हो गया. 1899 में उन्होंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की.

इसी साल वे सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किए और कांग्रेस के स्वयंसेवक बने. सन 1900 में वे एक कन्या के पिता बने. आगे की पढ़ाई के लिए उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के म्योर सेण्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया. इसी के साथ वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय हो गए थे. क्रांतिकारी गतिविधियों से जुड़े होने के कारण ही उन्हें 1901 में कॉलेज से निष्कासित कर दिया गया. इसी बीच 1903 में उनके पिता का निधन हो गया. इन सब चुनौतियों को पार करते हुए 1904 में उन्होंने स्नातक कर लिया.

पुरुषोत्तम दास टंडन के राजनीतिक जीवन का प्रारंभ हुआ 1905 में, जब उन्होंने बंगभंग आंदोलन में सक्रियता से भाग लिया. इससे प्रभावित होकर उन्होंने स्वदेशी का व्रत धारण किया और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के रूप में चीनी खाना छोड़ दिया. 1906 में उन्हें इलाहाबाद से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुना गया.

इन सब के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन अपने साहित्यिक जीवन में भी आगे बढ़ रहे थे. यही समय था जब उनकी प्रसिद्ध रचना बन्दर सभा महाकाव्य ‘हिन्दी प्रदीप’ में प्रकाशित हुई. 1907 में उन्होंने इतिहास में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त और इसके बाद एल.एल.बी की उपाधि प्राप्त करने के बाद वकालत प्रारंभ की. पढ़ाई जारी रखते हुए वे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस समय के नामी वकील तेज बहादुर सप्रू के जूनियर बन गए.

पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस पार्टी की उस समिति में शामिल थे, जिसका गठन 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड के अध्ययन के लिए किया गया था. इसके बाद जब असहयोग आंदोलन प्रारम्भ हुआ, तो गांधी जी के आह्वान पर वे 1920 में वकालत के अपने फलते-फूलते पेशे को छोड़कर इसमें शामिल हो गए. सविनय अवज्ञा आंदोलन के सिलसिले में 1930 में वे बस्ती से गिरफ्तार हुए और उन्हें कारावास का दण्ड मिला.

1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन से गांधी जी के वापस लौटने से पहले जिन स्वतंत्रता सेनानियों को गिरफ्तार किया गया था, उनमें जवाहरलाल नेहरू के साथ पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे. 1934 में वे बिहार की प्रादेशिक किसान सभा के अध्यक्ष बने. इसके बाद 31 जुलाई 1937 से 10 अगस्त 1950 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा के प्रवक्ता के रूप में कार्य किया. 1937 में जब धारा सभाओं के चुनाव हुए, तो ग्यारह प्रान्तों में से सात में कांग्रेस को बहुमत मिला.

उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को भारी सफलता मिली और इसका पूरा श्रेय टण्डन जी दिया गया. वे स्वयं प्रयाग नगर से विधानसभा से निर्विरोध विजयी हुए. कुछ समय बाद जब मंत्रिमंडल बना, तो वे सर्वसम्मती से धारासभा के अध्यक्ष (स्पीकर) चुने गए. स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय सहभागिता के कारण 1940 में अंग्रेजी पुलिस ने उन्हें नजरबंद कर लिया और वे एक वर्ष तक जेल में रहे. 1942 में जब वे जेल से छूटे, तो उन्हें लगा कि भारतीय समाज में निराशा छायी हुई है, सभी हताश पड़े हुए हैं.

समाज में नई चेतना का संचार करने के लिए उन्होंने कांग्रेस प्रतिनिधि असेम्बली नामक संस्था की स्थापना की. हालांकि जब प्रान्तीय कमेटियां बनीं तब प्रतिनिधि असेम्बली को भंग कर दिया गया. अगस्त 1942 को टंडन जी फिर से इलाहाबाद में गिरफ्तार हुए और 1944 में जेल से मुक्त हुए. पूरे स्वतंत्रता आंदोलन में वे सात बार जेल गए. टण्डन जी इलाहाबाद नगरपालिका के अध्यक्ष रहे और अपने कार्यकाल के दौरान अनेक साहसी तथा ऐतिहासिक कार्य किए.

टंडन जी 1946 में भारत की संविधान सभा में भी चुने गए. 12 जून 1947 को जब कांग्रेस कार्य समिति ने देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया. 14 जून को जब इस प्रस्ताव को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के समक्ष मंजूरी के लिए रखा गया, तब इसका विरोध करने वालों में से एक पुरुषोत्तम दास टंडन भी थे. उनका कहना था कि विभाजन स्वीकार करने का मतलब होगा अंग्रेजों और मुस्लिम लीग के सामने झुकना.

आजादी के बाद सन 1948 में उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए पट्टाभि सितारमैय्या के विरुद्ध चुनाव लड़ा पर हार गए. सन 1950 में उन्होंने आचार्य जे.बी. कृपलानी को हराकर कांग्रेस अध्यक्ष पद हासिल किया पर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के साथ वैचारिक मतभेद के कारण उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया. टंडन जी का हिंदी भाषा से विशेष लगाव था. 17 फरवरी 1951 को मुजफ्फरनगर सुहृद संघ के 17 वें वार्षिकोत्सव के अवसर पर उन्होंने कहा भी था कि हिंदी के पक्ष को सबल करने के उद्देश्य से ही मैंने कांग्रेस जैसी संस्था में प्रवेश किया, क्योंकि मेरे हृदय पर हिंदी का ही प्रभाव सबसे अधिक था और मैंने उसे ही अपने जीवन का सबसे महान व्रत बनाया.

राजभाषा चयन को लेकर 1949 में हो रही संविधान सभा की बैठक में महात्मा गांधी, पं. नेहरू और डॉ राजेन्द्र प्रसाद समेत अनेक नेता हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे, लेकिन हिंदी के लिए जो लोग मुखरता से आवाज उठा रहे थे पुरुषोत्तम दास टंडन उनमें प्रमुख थे. 11, 12, 13 और 14 दिसम्बर 1949 को जब इस मुद्दे पर गरमागरम बहस हुई और फिर हिंदी और हिन्दुस्तानी को लेकर कांग्रेस में मतदान हुआ, तो हिन्दी को 62 और हिन्दुस्तानी को 32 मत मिले. अंतत: हिन्दी राष्ट्रभाषा और देवनागरी राजलिपि घोषित हुई.

हिन्दी को राष्ट्रभाषा और वन्देमातरम को राष्ट्रगीत स्वीकृत कराने के लिए टण्डन जी ने अपने सहयोगियों के साथ एक और अभियान चलाया था. 1952 में टंडन जी लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1957 में राज्य सभा के लिए निर्वाचित हुए. इसके बाद ख़राब स्वास्थ्य के चलते उन्होंने सक्रीय सार्वजानिक जीवन से संन्यास ले लिया. सन 1961 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया और 1 जुलाई 1962 को ये राजनीतिक व सामाजिक योद्धा सदा के लिए सो गया.

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