aaaaपिछले दो दशकों से झेलम, सतलज, गंगा, घाघरा, शारदा, गोमती, गंडक एवं ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में होने वाले कटान हज़ारों गांवों पर कहर बरपा रही है, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोगों को अपना घर और नदी पर निर्भर आजीविका छोड़कर दूसरे गांव-शहर पलायन करना पड़ा. कटान की समस्या पिछले बीस-बाइस बरसों में और गंभीर हुई है. भारत ही नहीं, पाकिस्तान, नेपाल एवं बांग्लादेश में भी बड़ी संख्या में लोग नदियों के कटान से उपजी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. बड़े-बड़े बांध एवं चेक डैम के निर्माण ने कटान की समस्या बढ़ा दी है. बांधों के चलते नदियों की अविरल एवं निर्मल प्राकृतिक धारा के प्रवाह में रुकावट पैदा हुई है. कटान ने न स़िर्फ लोगों को विस्थापित किया, बल्कि उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं आजीविका के परंपरागत साधनों से भी दूर किया. बड़े पैमाने पर विस्थापन ने न स़िर्फ उनके अस्तित्व, बल्कि उनकी नागरिकता की पहचान का भी संकट खड़ा किया. पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर के गांव सेमरा एवं शिवराय का पुरा के कटान पीड़ित 558 विस्थापित परिवारों के माध्यम से यहां लखीमपुर खीरी, पीलीभीत, सीतापुर, गोंडा, बहराइच, बस्ती, गोरखपुर, देवरिया, पडरौना, महाराजगंज, बलिया, आजमगढ़, मऊ एवं संत कबीर नगर आदि ज़िलों और देश के अन्य राज्यों के कटान पीड़ितों के विस्थापन व पुनर्वास की समस्या समझने की कोशिश की जा रही है.
सेमरा एवं शिवराय का पुरा गांव के 558 परिवार पिछले ढाई वर्षों से सड़क के किनारे, मुहम्मदाबाद स्थित प्राथमिक-उच्च प्राथमिक विद्यालय एवं यूसुफपुर स्थित मंडी समिति में बंजारों जैसा जीवन गुज़ार रहे हैं. कटान की स्थिति का मौक़ा-मुआयना करने बड़े-बड़े नेता और अधिकारी सेमरा गांव आ चुके हैं. इनमें वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह, कांग्रेस की रीता बहुगुणा जोशी,
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव राजीव राय, भाकपा (माले) के ईश्‍वरी प्रसाद कुशवाहा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व सांसद एवं भारतीय खेत-मज़दूर यूनियन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विश्‍वनाथ शास्त्री, इंसाफ़वादी समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष फरीद अहमद ग़ाज़ी, कृषि भूमि बचाव मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष राघवेंद्र कुमार, पूर्व सांसद नीरज शेखर, वर्तमान सांसद भरत सिंह, पूर्व विधायक राजेंद्र यादव, वर्तमान रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा आदि शामिल हैं. इतने कद्दावर नेताओं के आश्‍वासनों के बावजूद कटान पीड़ितों की सुनवाई आज तक दूर की कौड़ी बनी हुई है.
कटान की पीड़ा झेल रहे परिवारों अगर कोई राहत पहुंचा रहा है, तो उस शख्स का नाम है, प्रेमनाथ गुप्ता. यह प्रेमनाथ के गांव बचाव आंदोलन का ही नतीजा है कि अब कटान विस्थापित धारा 52 के प्रकाशन की मांग कर रहे हैं. बीते 20 अक्टूबर को एसडीएम मुहम्मदाबाद की तरफ़ से एक बार फिर कहा गया है कि दहेंदु, बालापुर या जकरौली आदि गांवों में कहीं न कहीं ग्राम समाज की ज़मीन चिन्हित कर ली जाएगी, तभी विस्थापित परिवारों को आवासीय भूमि का आवंटन संभव हो सकेगा. दूसरी ओर गांव बचाव आंदोलन के कुछ सदस्य अपना भविष्य किसी दूसरे गांव की बजाय शेरपुर ग्राम पंचायत के किसी गांव में ही देख रहे हैं. उनका मानना है कि यदि धारा 52 का प्रकाशन हो जाए, तो उन्हें सेमरा या नज़दीकी किसी अन्य गांव में रहने को जगह ज़रूर मिल जाएगी. ऐसे में उन्हें अपने गांव से बिछड़ने का ग़म नहीं होगा और न सांस्कृतिक विक्षोभ और आजीविका छिन जाने का दु:ख. विस्थापित परिवारों का कहना है कि यदि शेरपुर ग्राम पंचायत के संपन्न लोग चाह लें, उन्हें (जिनमें ज़्यादातर दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं) गांव में बसने योग्य ज़मीन मा़ैके पर निकल आएगी.
कटान पीड़ितों में ऐसे भी लोग हैं, जो पुनर्वास की समस्या को भूमि के रूप में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन पर नियंत्रण के रूप में देखते-समझते हैं. शिवकुमार एवं श्रीनारायण सरीखे लोगों को लगता है कि यदि वे गांव में बस जाएंगे, तो वहां उपलब्ध ज़मीनों पर नियंत्रण में उनकी भी हिस्सेदारी सुनिश्‍चित होने लगेगी. अफ़सोस की बात यह है कि देश और समाज के ज़िम्मेदार लोगों के पास कटान पीड़ितों की पीड़ा पर विचार करने और उन्हें राहत पहुंचाने के लिए समय नहीं हैं. प्रेमनाथ का गांव बचाव आंदोलन हर दूसरे दिन अपनी गतिविधियों से अख़बारों की सुर्खियां बनता है. गांव बचाओ आंदोलन एवं मीडिया के माध्यम से वह ज़िला और मंडल स्तर की पैरवी के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री के साथ-साथ दर्जनों मंत्रियों को कटान पीड़ितों की समस्या से अवगत करा चुके हैं. वह केंद्रीय जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्री, रेल राज्य मंत्री के अलावा प्रधानमंत्री को भी पत्र लिख चुके हैं. उनके पत्रों के सहानुभूतिपूर्ण जवाब भी आए हैं.
कटान पीड़ितों के पुनर्वास के लिए मनोज कुमार राय, प्रेमनाथ गुप्ता एवं अन्य दो बनाम उत्तर प्रदेश राज्य नाम से एक पीआईएल (नं0-47610/2014) भी डाली गई, जिसकी सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश दिलीप गुप्ता एवं पीकेएस बघेल की खंडपीठ ने बीते 10 अक्टूबर को ज़िलाधिकारी ग़ाज़ीपुर को दो माह के अंदर कटान पीड़ितों की समस्याओं का निपटारा करने का निर्देश दिया है. गांव बचाओ आंदोलन का ध्यान इस समय पूरी तरह ग्राम पंचायत शेरपुर में धारा 52 के प्रकाशन पर केंद्रित है. क़ाबिले जिक्र है कि शेरपुर के ग्रामीणों ने 18 अगस्त, 1942 को गांधी जी के करो या मरो के नारे पर एक साथ 11 शहादतें दी थीं. इस ग्राम पंचायत के एक पुरवा शिवराय का पुरा का संपूर्ण और सेमरा का लगभग 70 प्रतिशत हिस्सा नदी के कटान में विलीन हो चुका है. शेष बचे गांव को बचाने एवं बेघर हुए परिवारों के पुनर्वास का अब तक कोई प्रयास सफल नहीं हुआ, जबकि विस्थापितों के पुनर्वास के लिए भूमि खरीद कर नि:शुल्क आवंटन कराए जाने के संबंध में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से सभी मंडलायुक्तों एवं ज़िलाधिकारियों को निर्देश दिए जा चुके हैं (देखें शासनादेश संख्या-2010/1-10-12-33(37)/12, टीसी).
प्रेमनाथ कहते हैं कि इस ऐतिहासिक गांव में आज भी ग्राम समाज की सैकड़ों एकड़ ज़मीन पड़ी हुई है, जिसे साधन संपन्न एवं दबंग लोगों ने कब्जा रखा है. उन्होंने उक्त ज़मीनों पर अपना कब्जा बरकरार रखने के लिए धारा 52 का प्रकाशन बरसों से प्रभावित कर रखा है. भूमि सुधार एवं चकबंदी के विशेष जानकार लखनऊ निवासी जगत नारायण बताते हैं कि जब देश में भूमि सुधार लागू हुआ, तो जमींदारों ने अपनी ज़मीनें तकनीकी रूप न स़िर्फ अपने नाबालिग बच्चों, बल्कि गाय-भैंस और कुत्तों-बिल्लियों तक के नाम कर दीं, ताकि ज़मीनों पर उनका कब्जा बना रहे और वे उन पर होने वाली खेती का लाभ बदस्तूर उठाते रहें. किसी भी ग्राम सभा में भूमि के छोटे या बड़े टुकड़े यानी चक की उपलब्धता का प्रमाणन इस बात से होता है कि वहां धारा 52 का प्रकाशन हुआ है या नहीं. रा़ेजगार हक़ अभियान के अजय शर्मा कहते हैं कि देश में लगभग 90 प्रतिशत ग्राम पंचायतों में धारा 52 का प्रकाशन हो चुका है, लेकिन उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में चकबंदी विभाग इस काम में बहुत पीछे है.
उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े ज़िले लखीमपुर खीरी के फूल बेहड़ ब्लॉक स्थित बेड़हा सुतिया गांव (जंगल नंबर एक) के सैकड़ों कटान पीड़ित परिवार पिछले बीस-बाइस वर्षों से नदी के पास सड़क के दोनों ओर झुग्गी-झोंपड़ी में रहने के लिए मजबूर हैं. उनके पुनर्वास की मांग आज तक पूरी नहीं हो सकी है. विडंबना देखिए, सरकार कॉरपोरेट घरानों के लिए विशेष आर्थिक जोन (सेज) को मूर्त रूप देने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां बनाती हैं, लेकिन बाढ़ या कटान जैसी आपदा से होने वाला विस्थापन कम करने और विस्थापित परिवारों के पुनर्वास के लिए उसके पास कोई ठोस नीति नहीं है. ज़रूरत इस बात की है कि सेमरा जैसे तमाम गांव, जहां पर दैवीय आपदा एवं मानव हस्तक्षेप जनित विस्थापन की समस्या है, वहां के विस्थापितों के लिए सरकार एक ठोस राहत एवं पुनर्वास नीति बनाए. ऐसा नीतिगत क़दम उठाए, जिससे भूमि एवं नदी जल संसाधन के अमानवीय दोहन पर रोक लगे. तभी बाढ़ और कटान की समस्या का उचित समाधान हो सकेगा.

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