मोदी सरकार तब शायद अपनी तीसरी सालगिरह के लिए आंकड़े दुरुस्त कर रही होगी, जब दिल्ली-हरिद्वार रेलखंड पर स्थित नजीबाबाद स्टेशन पर एक विदेशी पर्यटक की परेशानी स्वच्छता को लेकर सरकारी दावों की पोल खोल रही थी. बीते 14 मई को नजीबाबाद स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार कर रहा एक विदेशी पर्यटक कुरकुरे का खाली रैपर लिए घूमता रहा, लेकिन उसे कोई डस्टबिन नहीं मिल सका, जिसमें वो खाली रैपर डाल सके.
अंत में उसे रैपर को अपने पॉकेट में रखना पड़ा. ये परेशानी सिर्फ उस विदेशी पर्यटक की ही नहीं है, अपने आस-पास हम भी इस समस्या का सामना करते हैं. कई लोग सिर्फ इसलिए ही इधर उधर कूड़ा फेंक देते हैं, क्योंकि उन्हें जरूरत के समय डस्टबिन नहीं मिलता. हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि मोदी सरकार द्वारा स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत के बाद लोगों में साफ-सफाई को लेकर जागरुकता बढ़ी है. लेकिन कई मोर्चों पर सरकार अपनी भागीदारी में पीछे है. जमीनी स्तर पर काम किए जाने की जगह आंकड़ों में सफलता दिखाने की होड़ ज्यादा है.
दावों से दूर हक़ीक़त
स्वच्छ भारत अभियान की वेबसाइट बताती है कि इस अभियान के अंतर्गत अब तक 31,14,249 निजी और 1,15,786 सार्वजनिक शौचालय बनाए जा चुके हैं. हालांकि देश के अलग-अगल भागों से शौचालय निर्माण में हुई अनियमितता और सिर्फ कागजों में शौचालय निर्माण की खबरें वेबसाइट पर दी गई इस संख्या पर संदेह खड़े करती हैं. वेबसाइट की मानें तो देश के 647 शहरों को खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा चुका है. लेकिन इन दावों की पड़ताल हाल ही में आई एक रिपोर्ट से की जा सकती है. प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी के एक ब्लॉक बडगांव के 80 में से 15 पंचायतों को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया गया है.
लेकिन हाल ही में खबर आई थी कि उन सभी गांवों में लोग आज भी खुले में शौच जाते हैं. कारण ये है कि 3.36 करोड़ की लागत से यहां जिन 2,800 शौचालयों का निर्माण हुआ है, उनमें से कुछ तो सिर्फ कागजों पर ही बने हैं. जो बने हैं उनमें से अधिकतर सिर्फ ढांचा भर हैं, उनमें आज तक शौचालय का सीट नहीं लगा है. दरअसल, सरकारी अधिकारियों की तरफ से लोगों को निर्देश दिया गया था कि वे पहले शौचालय निर्माण करा लें, फिर राशि मिलेगी. ज्यादातर ग्रामिणों ने सरकारी दबाव में किसी भी तरह से रुपए की व्यवस्था कर शौचालय का ढांचा तो बनवा लिया, लेकिन सरकार की तरफ से मिलने वाली राशि की राह देखते रह गए.
ये सिर्फ वाराणसी की ही सच्चाई नहीं है. छत्तीसगढ़ के अंदी में तो शौचालय निर्माण के लिए कर्ज लिए हुए पैसे ना चुका पाने के एवज में लोगों को महाजन के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ रहा है. अक्टूबर 2016 में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च द्वारा किए गए सर्वे में भी ये बात सामने आई थी कि सरकार जिन शौचालय निर्माण को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, उनमें से 26 फीसदी सिर्फ कागजों पर ही बने हैं और निर्मित शौचालयों में से भी 36 फीसदी उपयोग के लायक नहीं हैं.
खुले में शौच की मिल रही है सज़ा
स्वच्छ भारत अभियान को लेकर किसी तरह डेड लाइन पूरा करने में जुटे अधिकारी शौचालय विहिन लोगों के साथ अपराधियों जैसा सलूक करने लगे हैं. छत्तीसगढ़ के अंदी गांव में शौच कर रही एक महिला की फोटो अधिकारियों ने सार्वजनिक कर दी, तो वहीं राजस्थान के सवाई माधोपुर के कलेक्टर ने खुले में शौच करने वालों को राशन से वंचित रखने का खुला फरमान दे दिया.
शौचालय नहीं बनवाने के कारण अधिकारियों द्वारा मनरेगा स्कीम के फायदे से वंचित किए गए तमिलनाडु के तूतीकोरिन के एक 70 वर्षीय बुजुर्ग को तो अपना अधिकार पाने के लिए मद्रास हाई कोर्ट का शरण लेना पड़ा. वहीं, इंदौर में अधिकारियों ने ये व्यवस्था करा दी कि खुले में शौच करता कोई दिखे, तो मंदिर के लाउडस्पीकर से उसकी कमेंट्री की जाय.
स्वच्छता सर्वेक्षण की स्वच्छता ही संदेहास्पद
सरकार और व्यवस्था के लिए ये बेहद ही शर्मनाक है कि सफाई के मामले में किसी शहर को उच्च स्थान देने के लिए सर्वेक्षण अधिकारी घूस मांगें. स्वच्छता सर्वेक्षण की जिस रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद सरकार अपनी पीठ थपथपा रहा है, उसके बारे में खबर आई थी कि सर्वेक्षण करने वाली टीम ने बेहतर रैंकिंग देने के लिए औरंगाबाद नगर निगम के अधिकारियों से रिश्वत मांगी थी. हालांकि मामला सामने आने के बाद क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) ने सर्वेक्षण करने वाली टीम को निलंबित कर दिया.
लेकिन इस सच्चाई ने सर्वेक्षण की विश्वसनियता पर तो सवाल उठा ही दिया. इस सर्वेक्षण रिपोर्ट पर भी सवाल उठ रहे हैं. रिपोर्ट में दी गई कई शहरों की रैंकिंग उनकी असलियत से अलग है. लखनऊ, पटना और बनारस के बारे में जानने वाला कोई भी बता सकता है कि सफाई के मामले में इनका क्रम क्या हो सकता है. लेकिन रिपोर्ट में बनारस को पटना और लखनऊ से बहुत ऊपर रखा गया है. बनारस को जहां 32वें स्थान पर रखा गया है, वहीं लखनऊ को 269वां और पटना को 262वां स्थान मिला है.
स्वच्छता कर से मिले पैसे का इस्तेमाल प्रचार में
वित्त राज्य मंत्री संतोष गंगवार ने जुलाई 2016 में राज्यसभा में एक प्रश्न का जवाब देते हुए कहा था कि वित्त वर्ष 2015-16 में स्वच्छ भारत सेस से सरकार के पास 3,901.78 करोड़ रुपए आए. वहीं, इस साल 20 मार्च को कोयला और ऊर्जा राज्य मंत्री पियूष गोयल ने कहा था कि क्लीन इन्वायरमेंट सेस से भारत सरकार को वित्त वर्ष 2016-17 में 21,128.59 करोड़ रुपए मिले. इससे पहले के तीन वित्त वर्ष की बात करें, तो क्लीन इन्वायरन्मेंट सेस से 2015-16 में 13,847.87 करोड़, 2014-15 में 5,844.55 करोड़ और 2013-14 में 3217.13 करोड़ रुपए प्राप्त हुए. जुलाई 2016 में संतोष गंगवार ने स्वच्छता के नाम पर सरकार द्वारा किए गए खर्च का आंकड़ा भी दिया था.
उनके अनुसार स्वच्छ भारत मिशन कार्यक्रम के तहत वित्त वर्ष 2015-16 में ग्रामीण क्षेत्र में 2,400 करोड़ रुपए खर्च किए गए, जबकि शहरी क्षेत्रों में 159.2 करोड़ रुपए खर्च हुए. वहीं, आरटीआई के जरिए मिले एक जवाब में सरकार की तरफ से बताया गया था कि वित्त वर्ष 2016-17 में सरकार ने स्वच्छता से जुड़े विज्ञापनों पर 66 करोड़ रुपए खर्च किए. स्वच्छता को लेकर लोगों में जागरुकता के लिए विज्ञापन मद में किया गया ये खर्च बीते दो वित्तीय वर्ष के मुकाबले कम है.
2015-16 में इस मद में 162.50 करोड़ रुपए तथा 2014-15 में 121.22 करोड़ खर्च हुए. यानि सरकार की मानें तो कुल मिलाकर अब तक सिर्फ स्वच्छ भारत अभियान के प्रचार में लगभग 350 करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं. जिस आरटीआई के जरिए ये जवाब मिला था उसमें सरकार द्वारा अब तक बनाए गए शौचालयों की संख्या और डस्टबिन के वितरण से संबंधित जानकारी भी मांगी गई थी, जिसका कोई भी संतोषजनक जवाब सरकार की तरफ से नहीं दिया गया.
विपक्ष तो ये भी आरोप लगा रहा है कि सरकार स्वच्छ भारत सेस के जरिए जमा हुए पैसों का खर्च योजना के लिए न कर के अपने प्रचार-प्रसार के लिए कर रही है. 15 मई को मध्य प्रदेश के अमरकंटक में प्रधानमंत्री मोदी की रैली थी. उन्होंने नर्मदा सेवा यात्रा के समापन समारोह को संबोधित किया. कांग्रेस का आरोप है कि इस कार्यक्रम में स्वच्छ भारत अभियान के मद का पैसा खर्च किया गया.
मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री की अमरकंटक यात्रा और उनके कार्यक्रम पर 100 करोड़ रुपए से ज़्यादा खर्च कर सरकारी धन का दुरुपयोग किया गया. इसके लिए राज्य कार्यक्रम अधिकारी की ओर से अमरकंटक में प्रशिक्षण हेतु जाने वाले प्रेरकों के लिए प्रति व्यक्ति 500 रुपए जारी किए गए थे.
मलीन मन से गंगा निर्मल कैसे होगी
गंगा की सफाई मोदी सरकार की महत्वकांक्षी योजनाओं में शामिल रही है. इसे गति देने के लिए एकीकृत राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन, नमामी गंगे की शुरुआत की गई. लेकिन इन तीन सालों के दौरान नमामी गंगे की क्या प्रगति है, इसे हाल ही में आए एक आरटीआई जवाब से समझा जा सकता है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने एक आरटीआई के जवाब में कहा है कि उत्तराखंड में गंगोत्री से लेकर हरिद्वार तक गंगा का पानी नहाने के लायक भी नहीं है.
सीपीसीबी ने गंगोत्री से हरिद्वार के बीच करीब 10 जगहों से गंगा के जल का सैंपल लेने और उसकी जांच करने के बाद उसमें मिले कई हानिकारक कारकों की उपस्थिति के बाद ये बात कही है.
नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने पदभार ग्रहण करते हुए कहा था कि नमामी गंगे के अच्छे परिणाम अक्टूबर 2016 से दिखने शुरू हो जाएंगे. लेकिन मंत्री जी के इस डेड लाइन से महज दो महीने पहले आए एक आरटीआई जवाब ने गंगा सफाई के लिए सरकार के प्रयासों की कलई खोल दी. उस जवाब में कहा गया था कि राष्ट्रीय गंगा सफाई मिशन के लिए 2014-15 में आवंटित 2,137 करोड़ रुपए में से बाद में 84 करोड़ की कटौती कर दी गई.
इसके बाद भी इसमें से सिर्फ 326 करोड़ रुपए खर्च किए गए. उसी तरह 2015-16 के 2,750 करोड़ रुपए के बजट को घटाकर 1,650 करोड़ रुपए कर दिया गया. उस आरटीआई में कहा गया था कि मौजूदा वित्त वर्ष (2016-17) में आवंटित 2,500 करोड़ रुपए में से अब तक कितना खर्च हुआ, इसका केंद्र सरकार के पास कोई विवरण मौजूद नहीं है.
गंगा सफाई को अपनी प्राथमिकता बताने वाले प्रधानमंत्री इसे लेकर कितने गंभीर हैं, इसका भी प्रमाण इस आरटीआई से मिलता है. इसमें बताया गया था कि राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (एनजीआरबीए) की तीन बैठकों में से प्रधानमंत्री ने सिर्फ एक बैठक की अध्यक्षता की थी. वर्तमान वित्त वर्ष 2017-18 के लिए सरकार ने नमामी गंगे और नेशनल गंगा प्लान के लिए लिए 2250 करोड़ के बजट का प्रावधान किया है.
पहला डेड लाइन फेल होने के बाद गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने गंगा सफाई के लिए अक्टूबर 2018 का लक्ष्य तय किया. उन्होंने कहा था, ‘हमारा गंतव्य अक्टूबर 2018 है और हम दुनिया को दिखा देंगे कि गंगा दुनिया की सबसे स्वच्छ नदियों में से एक है.’ इसके बाद केंद्रीय सड़क परिवहन और जहाजरानी मंत्री नितिन गड़करी ने गंगा की सफाई के लिए डेड लाइन को पांच वर्ष आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘अगले पांच वर्ष में गंगा की सफाई होगी.’
अभी गंगा के तट पर 764 उद्योग हैं,जो गंगा के प्रदूषण के लिए सबसे बड़े कारक हैं. इसमें 444 चमड़ा उद्योग, 27 रसायनिक उद्योग, 67 चीनी मिलें, 33 शराब उद्योग, 22 खाद्य और डेयरी उद्योग, 63 कपड़ा एवं रंग उद्योग, 67 कागज एवं पल्प उद्योग और 41 अन्य उद्योग शामिल हैं. इनके दूषित जल को साफ कर गंगा में प्रवाहित करने की कोशिश अब तक परवान चढ़ती नहीं दिख रही है. सात भारतीय प्रौद्योगिक संस्थानों के कर्ंसोटियम द्वारा तैयार एक रिपोर्ट बताती है कि गंगा बेसिन के अंतर्गत आने वाले राज्यों में हर दिन सीवेज का 12,051 एमएलडी गंदा पानी पैदा होता है.
जबकि इन राज्यों में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट की क्षमता केवल 5,717 एमएलडी है. गंगा के किनारे बसे 31 शहरों में से केवल चार शहरों कन्नौज, कानपुर, मोरादाबाद, और बरेली में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट मौजूद हैं. हैरानी की बात है कि इनमें भी केवल कन्नौज का प्लांट अभी चालू है. अब ये सोचने वाली बात है कि ऐसे प्रयासों से भागीरथ की गंगा को उमा भारती कैसे स्वच्छ कर पाएंगीं.
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