banarasबाबा विश्वनाथ का नगर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र, इन दो प्रसिद्धियों की सुखानुभूति से ओतप्रोत बनारस नर्कवास भोग रहा है. प्रधानमंत्री बनने के क्रम में और बनने के बाद जो योजनाएं वादे की तरह झोंकी गईं, वे आज कूड़े के अंबार की तरह बनारस को गंदा कर रही हैं. आप बनारस आएं तो आपको यहां के नर्क में प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र होने की प्रसिद्धि की असलियत दिखाई पड़ेगी, आप उसे भोग कर भी जाएंगे. आप अभी की बरसात में आएंगे, तो नरक का अलग दृश्य है. कुछ दिन पहले की असह्य गर्मी के दरम्यान आते, तो नरक का सीन कुछ और होता. गंगा के शुद्धिकरण से लेकर मोदी-उत्तरार्ध की तमाम योजनाओं का जायजा लें, तो वे सब की सब नौकरशाही के गंदे आसनों के नीचे फंसी दिखाई देंगी. पहले तो हम सतह पर दिख रही गंदगी का विस्तार से जायजा लें, इसके बाद सतह के नीचे की गंदगी झांकेंगे.

अभी बारिश का समय है. प्रधानमंत्री का संसदीय क्षेत्र फिलहाल तालाब बना हुआ है. जो अभी बनारस आएंगे उन्हें तालाब के नीचे की दुर्दशा पानी सूखने के बाद दिखेगी. जो यहीं के हैं, वे तो सतह के ऊपर और सतह के नीचे, दोनों की दुर्दशा जानते हैं. बनारस में नगर निगम का तो कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है. बनारस के लोग गर्मी में चाहे जितना उबलें, लेकिन बारिश के नाम से भयाक्रांत होने लगते हैं. यह भाव मोदी के चुनाव जीतने के बाद भी यथावत कायम है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रवींद्रपुरी में संसदीय दफ्तर है. थोड़ी भी बरसात हो, तो रवींद्रपुरी अलग ही गंदी गंगा बन जाती है.

नई सड़क और गिरजाघर रोड जैसे व्यस्त इलाके घंटों जाम में त्राहिमाम रहते हैं. उसमें बारिश हो जाए तो जाम और लोगों की परेशानी का दर्दनाक मंजर दिखाई पड़ता है. बनारस के मशहूर सिगरा-महमूरगंज रोड की तो पूछिए मत. सावन के महीने में कांवरियों को यही सड़क बाबा विश्वनाथ के मंदिर तक पहुंचाती है, लेकिन बारिश में इतना पानी जमा हो जाता है कि उसमें गाड़ियां तक डूब जाती हैं. यहां के बारे में कहा जाता है कि बादल घिरते ही यहां के लोग अपने वाहनों को सुरक्षित जगह पार्क कर देते हैं. अभी कांवरियों से पूछें तो उनका दर्द महसूस होता है. पुलिस लाइन जाने वाली पांडेयपुर रोड वीवीआईपी सड़क मानी जाती है.

वीवीआईपी आवागमन के कारण आए दिन यहां सड़कें बनती हुई दिखती हैं, लेकिन बारिश आई तो सड़क का सत्यानाश हो जाता है. इलाके में नालियां ही नहीं हैं तो पानी कहां जाए, इसलिए पानी जमा ही रहता है. पुलिस लाइन गेट से पांडेयपुर फ्लाई-ओवर के नीचे से गुजरने वाली सड़क आपको दिखेगी कैसे, वहां तो बारिश का पानी नदी की तरह बहता रहता है. बनारस के केंद्र में स्थित बेनियाबाग इलाके से रोजाना लाखों लोग निकलते हैं. बेनियाबाग रोड से ही लोग दशाश्वमेघ घाट, बाबा विश्वनाथ मंदिर और कई दूसरे पर्यटन स्थलों पर जाते हैं. यहां का आलम यह है कि बारिश के बाद सड़क से लेकर दुकान तक पानी भर जाता है. बारिश आते ही पूरे इलाके में भगदड़ जैसा माहौल बन जाता है. बारिश के बाद सड़कों पर जमा पानी निकलने में कई-कई घंटे लगते हैं. इस दौरान जाम का नारकीय दृश्य बनारस के लोगों को रुलाता है.

बनारस के लोगों से बारिश के पहले के दृश्य के बारे में पूछें, तो लोग कहते मिलेंगे कि कम से कम बारिश में वह गंदगी तो नहीं दिखती, जो पहले दिखती है. सड़कों और खड्डों में जो लोग डूब रहे हैं और जख्मी हो रहे हैं, उससे पानी के नीचे के नीच यथार्थ का पता चलता है. पहले से प्रशासन को कहा जा रहा था कि जिस तरह सड़कें खुदी पड़ी हैं और पूरा बनारस पहले धूल में भरा और थोड़ी भी बूंदा-बांदी में कीचड़ बनजा रहा है, बारिश आने के बाद इसका क्या होगा. लोगों को क्या पता कि अधिकारी इसी बारिश का इंतजार करते हैं, अपने भ्रष्टाचार का कीचड़ साफ करने के लिए.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 15 जून तक प्रदेश को गड्ढा मुक्त कर दिए जाने की बात कही थी. योगी ने शायद आने वाली बारिश को अंदाज कर ही यह बात कही होगी, क्योंकि बारिश आई तो सारे गड्ढे पानी से भर गए. पानी के नीचे सड़कों का हाल बद से बदतर है और लोग किसी तरह गिरते-पड़ते जैसे-तैसे अपने गंतव्य तक पहुंच रहे हैं. बारिश आने के ऐन पहले बनारस के लोगों को लगा कि अचानक विकास के काम तेजी से शुरू हो गए हैं. हर तरफ निर्माण कार्य चल रहा है. ज्यादातर जगहों पर आईपीडीएस का काम चल रहा था. शहर की गलियों से लेकर मुख्य मार्ग तक हर तरफ आईपीडीएस ने सड़कें खोद डाली थीं. कदम-कदम पर गड्ढे थे. आईपीडीएस को लगातार यह हिदायत दी जा रही थी कि बारिश के पहले सड़कों को समतल कर दिया जाए.

लेकिन यह हिदायत बरसात के साथ ही बह गई. विकास के वही गड्ढे आज लोगों की जान ले रहे हैं. गिरजाघर चौराहे से गोदौलिया जाने वाले मार्ग पर आईपीडीएस का काम चल रहा था. यहां दूध-सट्टी के सामने कई फीट तक गहरी खोदाई हुई थी. इसके चलते पूरी लेन भी बंद कर दी गई थी. गिरजाघर से रेवड़ी तालाब होते भेलूपुर जाने वाले मार्ग की हालत यह है कि पैदल चलना भी मुश्किल है. जयनारायण इंटर कॉलेज से आगे बढ़ते ही जो नरक का आलम शुरू होता है वह भेलूपुर थाने तक बदस्तूर जारी रहता है. महज आठ सौ मीटर लंबी सड़क की मरम्मत आइपीडीएस योजना के काम के चलते नहीं हो पाई. इसी दरम्यान रेवड़ी से भेलूपुर चौराहे के बीच शाही नाले की सफाई को लेकर भी काम शुरू कर दिया गया. काम पूरा तो नहीं ही हुआ, गहरे गड्ढे बन गए और जहां-तहां मिट्टी के ढूहबन गए. अब बारिश में वही गड्ढे मौत की खाई बन गए हैं.

रेवड़ी तालाब से चंद कदम दूर ही प्रसिद्ध तिलभांडेश्वर मंदिर है. इसी रास्ते से लोग दुर्गाकुंड और बीएचयू जाते हैं. लेकिन मार्ग की हालत इस कदर खराब है कि बीएचयू और दुर्गाकुंड का आवागमन तो दूर, लोगों के लिए तिलभांडेश्वर का दर्शन करना भी मुश्किल हो रहा है. बारिश ने निर्माण कार्य करने वाली कार्यदायी संस्थाओं की करतूतें भी उजागर कर दी हैं. दुर्गाकुंड तालाब से रवींद्रपुरी एक्सटेंशन और अस्सी चौराहे से अस्सी घाट तक लगभग साढ़े आठ सौ मीटर लंबी सड़क का अधिकतर हिस्सा 20 मई तक बन चुका था. दुर्गाकुंड के पास की सड़क का काम भी मुख्यमंत्री योगी के दौरे के एक दिन पहले पूरा किया गया. लेकिन एक ही बारिश में यह सड़क उखड़-पुखड़ कर चौपट हो गई. कमच्छा तिराहे से शंकुलधारा जाने वाले मार्ग को तो कोई पूछने वाला ही नहीं है.

यह सड़क पिछले कुछ अर्से में कितनी बार खोदी जा चुकी है, यह स्थानीय लोगों को याद भी नहीं रहा. आज यह सड़क नारकीय बनी हुई है. कमच्छा तिराहे से गुरुबाग आने वाले मार्ग का भी कोई पुरसाहाल नहीं. यहां भी आईपीडीएस का काम महीनों से चल रहा है. खोदाई के कारण कमच्छा तिराहे से निमिया माई मंदिर तक बुरा हाल है. गुरुबाग तिराहे पर बड़े-बड़े गड्ढे हैं. ये गड्ढे इतने खतरनाक हैं कि इनके कारण रोजाना दुर्घटना होती रहती है. रथयात्रा से गुरुबाग होते हुए कमच्छा-भेलूपुर जाने वाली रोड शहर की व्यस्ततम सड़कों में शुमार है.

रथयात्रा से कमच्छा जाने के लिए यह अकेली सड़क है. सभी तरह के वाहनों मसलन, नगर बस, लग्जरी वाहन, टूर एंड ट्रेवल्स की बसें, स्कूल बसें, टेम्पो, रिक्शा और निजी चार पहिया वाहनों को रथयात्रा चौराहे से गुरुबाग की ओर मोड़ दिया जाता है. गुरुबाग गुरुद्वारे से मुड़ कर ये सारे वाहन कमच्छा की ओर जाते हैं. स्थिति यह रहती है कि गुरुबाग तिराहे पर गुरुद्वारे के सामने से लेकर काफी दूर तक लोगों का पैदल चलना भी मुश्किल रहता है. कदम-कदम पर बड़े-बड़े गड्ढे हैं. गुरुबाग तिराहे से तकरीबन 100 से 150 मीटर की दूरी पर गुरुनानक खालसा बालिका विद्यालय है. उससे कुछ ही दूरी पर सेंट्रल हिंदू गर्ल्स स्कूल है.

वही सड़क वसंत कन्या इंटर कॉलेज की ओर जाती है. इससे आगे सेंट्रल हिंदू ब्वॉयज स्कूल है. यहीं से रास्ता रुक्मिणी संस्कृत विद्यालय की ओर भी जाता है. सेंट्रल हिंदू ब्वॉयज स्कूल से आगे बढ़ें, तो चिल्ड्रेन्स एकेडमी है. उससे आगे सीएम एंग्लो बंगाली इंटर कॉलेज है. रथयात्रा से गुरुबाग की ओर चलें, तो वसंत कन्या महाविद्यालय है, सेंट्रल हिंदू गर्ल्स स्कूल का दूसरा द्वार है. इन सभी स्कूल-कॉलेजों के बच्चे गर्मी में भी यंत्रणा सहते हैं और बरसात में तो जान हथेली पर लेकर शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. यह सरकार और प्रशासन को नहीं दिखता. गुरुबाग सीबीएसई की किताबों का सबसे बड़ा बाजार है. किताबों की खरीद-फरोख्त के लिए यहां रोजाना छात्रों और अभिभावकों की भीड़ लगी रहती है.

बच्चों के अभिभावक यहां के गड्ढों में जमा सीवर के पानी से तर-बतर होते रहते हैं. इसी मार्ग पर रेडीमेड कपड़ों और जूते चप्पल की भी मार्केट है. पूरे इलाके में ऐसी बदबू बनी रहती है कि नाक पर कपड़ा रखे बगैर वहां कुछ सेकेंड भी आप खड़े नहीं रह सकते. न नगर निगम को इसकी परवाह है और न जिला प्रशासन को. एकल मार्ग होने के चलते इस तिराहे पर सुबह से देर रात तक जाम लगा रहता है. रात में नो-इंट्री खुलने के बाद ट्रकों और ट्रैक्टरों का रेला लग जाता है. देर रात को भी यहां जाम की स्थिति बनी रहती है. कहीं कोई ट्रैफिक पुलिसवाला भी नहीं दिखता.

लब्बोलुबाब यह है कि बनारस की बदहाली अपनी जगह बदस्तूर कायम है. बनारस की सड़कें जाम की समस्या से शाश्वत जूझ रही हैं. हर जगह कूड़े के अम्बार यथावत हैं. बनारस में हर दिन तकरीबन 600 मीट्रिक टन कूड़ा निकलता है. कूड़े के निस्तारण का दावा किया जाता है, लेकिन हर जगह फैली गंदगी बताती है कि निस्तारण की बातें फर्जी हैं. गंगा आज भी उतनी ही मैली है. गंगा के दरकते घाट दरकते बनारस का यथार्थ हैं. झूठे सियासतदानों और नकारे नौकरशाहों के कारण बनारस की समस्याओं की फेहरिस्त लंबी चौड़ी और भारी होती चली जा रही है. बनारस की हवा जहरीली हो चुकी है. बनारस की सड़कें धूल के गुबार के बीच बमुश्किल दिखाई पड़ती हैं. वायु प्रदूषण चरम पर है. पूरे शहर पर धूल के कण छाए रह ते हैं, बारिश आती है, तो इसे धो देती है, लेकिन इस धुलाई में भ्रष्टाचार और जन-उपेक्षा के दुर्ग भी साफ-साफ नजर आने लगते हैं.

ढुलमुल विकास का उदाहरण बन रहा है सामने-घाट पुल
प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र बनारस में विकास की असलियत तो आपने ऊपर देखी ही. अब देखिए योजनाओं का हाल. मोदी सरकार में कहा जा रहा था कि प्रदेश में सपा सरकार है, इसलिए केंद्र के काम में बाधा डाली जाती है. अब तो यूपी में भी भाजपा की सरकार है. अब विकास के काम में कौन सी बाधा आ गई कि काम नहीं हो रहा! योगी सरकार बनने के बाद उम्मीद जगी थी कि अधूरी पड़ी योजनाएं शुरू होंगी, लेकिन यथार्थ की जमीन पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है. निर्माण कार्य से जुड़ी कार्यदायी संस्थाओं को न जिला प्रशासन की परवाह है और न ही योगी सरकार की. गंगा नदी पर बनने वाले सामने-घाट पुल का निरीक्षण करने के लिए खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी आए थे. उन्होंने अधिकारियों को तय समय में काम पूरा करने का बाकायदा आदेश दिया था, लेकिन उनके फरमान की किसी ने परवाह नहीं की.

वाराणसी और रामनगर को जोड़ने वाला सामने-घाट पुल प्रशासनिक ढिलाई का उदाहरण बन गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बनारस के कमिश्नर को लखनऊ बुला कर काशी में चल रहे निर्माण कार्यों का जायजा लिया था और सामने-घाट पुल के निर्माण के बारे में भी पूछा था. मुख्यमंत्री ने कमिश्नर को निर्देश दिया था कि पुल का निर्माण 27 जून तक हो जाए. यहां तक कि पुल के लोकार्पण की तारीख 27 जून तय कर दी गई थी, जिसमें प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों का आना तय हुआ था. उल्लेखनीय है कि इस पुल के निर्माण को वर्ष 2005 में ही मंजूरी मिली थी. इसका शिलान्यास वर्ष 2006 में हुआ था. पुल की लागत तब लगभग 4508.90 लाख रुपए आंकी गई थी. लेकिन दो बार इसके बजट में बढ़ोतरी हो चुकी है. अब इस खर्च के और बढ़ने की आशंका है.

प्रशासन ने समय पर पुल नहीं बनने पर निर्माणकारी संस्था के अधिकारियों को जेल भेजने की भी चेतावनी दी थी, लेकिन यह चेतावनी कोई काम नहीं आई. कंपनी ने तय समय में काम पूरा करने से हाथ खड़े कर दिए. कंपनी ने स्पष्ट कह दिया कि सामने घाट और बलुवा घाट सेतु बनाने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं. जबकि कंपनी को काम होने के पहले ही शत-प्रतिशत धनराशि सेतु निगम द्वारा दी जा चुकी है. इस तरह मुख्यमंत्री के आदेश, तमाम मंत्रियों के निरीक्षण, विधायकों की मॉनिटरिंग, कमिश्नर और जिलाधिकारी की सख्ती के बावजूद पुल नहीं ही बना.

पुल निर्माण सेतु निगम की निगरानी में हो रहा है. अब निगम ने आश्वासन दिया है कि जुलाई में पुल बन जाएगा. लेकिन यह जुलाई में भी नहीं बन पाएगा. इस पुल के निर्माण की सच्चाई भी जानते चलें. इस पुल का कोई भी काम शत-प्रतिशत नहीं हुआ है, लेकिन कागजी दावा 97 फीसद काम पूरा करने का किया जा रहा है. इस झूठ की कलई सरकार और जनता के सामने खुल चुकी है, कार्रवाई भले ही कुछ न हो.
गंगा के नाम पर भी केवल राजनीति ही हो रही है

गंगा की सफाई के नाम पर लंबे दौर से सियासत चल रही है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कमिटमेंट पर लोगों ने भरोसा किया था. साध्वी उमा भारती के मंत्री बनने पर गंगा के शुद्धिकरण की उम्मीदें जगी थीं. केंद्र ने पांच वर्ष के लिए 20 हज़ार करोड़ रुपए की आर्थिक व्यवस्था भी की. नमामि गंगे कोष बनाया. राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन बनाया. अस्सी घाट पर श्रमदान भी किया गया. लेकिन प्रधानमंत्री के ही लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में गंगा से मिलने वाले अस्सी नाले को शुद्ध करने का कोई प्रयास आज तक नहीं हो सका.

दूसरी तरफ वरुणा नदी क्षेत्र पर अवैध कब्जा होता रहा और सरकार सोई रही. गंगा अब बनारस के घाटों से दूर होती जा रही है. पूरा समाज चिंतित है. पूरा पर्यटन-ढांचा ध्वस्त होने को है, लेकिन सरकार की चिंता में यह कहीं भी शामिल नहीं दिख रहा. गंगा-पुनर्जीवन के साथ-साथ ‘नदी-विकास’ शब्द भी जोड़ा गया था, इसलिए परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने गंगा के पुनर्जीवन से ज्यादा ‘नदी-विकास’ पर ध्यान दिया. विकास का मतलब उन्हें व्यापार समझ में आया. इस व्यापार के लिए वे सभी प्रमुख नदियों पर ड्रेजिंग, टर्मिनल निर्माण और बैराज निर्माण जैसी परियोजना ले आए. हल्दिया से इलाहाबाद तक गंगा पर बनने वाले राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या-एक के लिए 37 करोड़ 50 लाख डॉलर कर्ज भी मंजूर करा लाए. बिहार सरकार ने भी आगे बढ़कर अपनी छह नदियों पर जलमार्ग की सहमति दे दी. केंद्र के मंत्रीगण

गंगा पर ई-नौका सजाने
वाराणसी पहुंच गए. एक मंत्री तो गंगाजल बेचने की सुविधा भी लेकर आ गए. फिर केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयुष गोयल भी इसमें कूद पड़े. जल विद्युत परियोजनाएं चलाने की मंजूरी ने पर्यावरण की ऐसी-तैसी कर दी. पर्यावरण मानकों की अनदेखी के लिए राष्ट्रीय हरित पंचाट (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन पर 50 लाख रुपए का जुर्माना ठोका. बिहार सरकार ने भी देखा-देखी गंडक नदी पर 37 मेगावाट, कर्मनासा नदी पर 54 मेगावाट, कोसी नदी पर 58 मेगावाट, पुनपुन नदी पर 81 मेगावाट और सोन नदी पर 94 मेगावाट जल विद्युत परियोजना को मंजूरी दे दी.

बनारस के लोग पूछते हैं कि सरकार के इन कदमों से गंगा को क्या लाभ मिला? उल्टे, जलमार्ग परियोजनाओं और जलविद्युत परियोजनाओं के कारण गंगा बेसिन की नदियों के मार्ग में अवरोध, गाद की बढ़ोत्तरी, नदी से छेड़छाड़ और इसके परिणामस्वरूप कटान और कचरे का खतरा भीषण रूप से बढ़ गया. गाद में मिलकर सीमेंट की तरह जम जाने वाला मल गाद के बहने में रुकावट डालता है. लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया. नदी का अविरल बहाव सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि गंगा के मुख्य प्रवाह पर और बांध-बैराज न बने. पहले से बन चुके बांध-बैराज इतना प्रवाह अवश्य छोड़ें, जिससे गाद की प्राकृतिक तौर पर उड़ाही होती रहे और नदी में उसे निर्मल करने लायक वेग बचा रहे. गंगा ढाई सौ से अधिक सहायक छोटी-बड़ी नदियों से मिलकर बनी है. जब गंगा की ही कोई सुध नहीं ले रहा, तो उन सहायक नदियों की तरफ कौन देखे.

पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. एलकेएस चौहान कहते हैं कि सिर्फ शहरों में सीवेज पाइप बिछाने, मल शोधन संयंत्र लगाने, गांव-गांव शौचालय बनाने, गंगा रक्षक बल बनाने या संस्थाओं को पांच-पांच गांव की परियोजनाएं बांटने से गंगा निर्मल नहीं होने वाली. प्रवाह बढ़ाने के लिए गंगा बेसिन की हर नदी और प्राकृतिक नाले में पानी की आवक भी बढ़ानी होगी. इसके लिए गंगा खादर में बसावटों पर रोक लगानी होगी. छोटी नदियों को पुनर्जीवित करना होगा. शोधित जल और ताजा पानी नदी में बहाना होगा. नदियों को सतह अथवा पाइप से नहीं, बल्कि भूगर्भ तंत्रिकाओं के माध्यम से जोड़ना होगा. जहां कोई विकल्प न हो, वहां छोड़कर अन्यत्र लिफ्ट कैनाल परियोजनाओं के लिए मना करना होगा.

जलदोहन नियंत्रित करना होगा. वर्षा जल संचयन ढांचों से कब्जे हटाने होंगे. जिस फैक्टरी, व्यावसायिक उपक्रम या कृषक समुदाय ने जितना और जैसा जल जिस स्त्रोत से लिया, उसे उतना और वैसा जल वापस लौटाने की प्रक्रिया बनानी होगी. उस प्रक्रिया के सख्ती से पालन को सुनिश्चित करना होगा. गंगा और उसकी सहायक नदियों में रेत खनन नियंत्रित करने से नदी की जल संग्रहण क्षमता बढ़ेगी. इससे गंगा का प्रवाह बढ़ेगा. डॉ. चौहान ने पूछा कि क्या केंद्र सरकार इनमें से एक भी उपाय कर पाई है? फिर गंगा के नाम पर नमामि-नमामि का जाप क्यों करती है? उनका कहना है कि गंगा नदी अब विभिन्न एजेंसियों के सदस्य देशों की कमाई का एजेंडा है. इसलिए समस्या बनाई रखी जाएगी और कमाई का जरिया कायम रखा जाएगा.

केंद्र सरकार ने पहले दावा किया था कि अक्टूबर 2016 तक गंगा सफाई का आंशिक असर दिखने लगेगा. फिर वर्ष 2017 भी आ गया, सफाई नहीं दिखी. अब 2018 तक गंगा साफ न होने पर जल मंत्री साध्वी उमा भारती गंगा में कूद जाने का बयान दे रही हैं. फिर वर्ष 2019 भी आ जाएगा. सब चुनाव लड़ेंगे और अगर दोबारा सत्ता में आए, तो गंगा सफाई की डेड-लाइन वर्ष 2022 पर चली जाएगी. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कहते रहे हैं कि गंगा का अपमान राष्ट्रद्रोह है. अब वे तय करें कि राष्ट्रद्रोह कौन कर रहा है और उसकी सजा क्या हो.

योजनाएं चौपट, बनारसी साड़ी का धंधा ठप्प, बुनकरों का बुरा हाल
दिल्ली और लखनऊ में बैठे मोदी के पैरोकार जमीनी स्थिति की जानकारी लिए बगैर विभिन्न योजनाओं का नाम गिनाते हैं और कहते हैं कि ये प्रोजेक्ट (जब पूरे होंगे) न सिर्फ वाराणसी बल्कि पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश की किस्मत बदल देंगे. कुछ प्रोजेक्ट ऐसे भी बताए गए, जो केंद्र और राज्य सरकार के झगड़े के नाम पर लटकाए रखे गए थे. अब तो केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की सरकार है, अब क्यों लटका है? इसका जवाब उन अंध-पैरोकारों के पास नहीं है.

जिन योजनाओं को गिनवाया जाता है, उनमें रामनगर कार्गो टर्मिनल परियोजना, डीजल रेल इंजन कारखाने की क्षमता बढ़ाने की योजना, इंटिग्रेटेड टेक्सटाइल ऑफिस कॉम्प्लेक्स बनाने की योजना, मिनी पीएमओ बनाने की योजना, बीएचयू आईआईटी में रेल रिसर्च संकाय की योजना, वाराणसी की कनेक्टिविटी में सुधार की योजना, बिजली, टेलीफोन के तार को अंडरग्राउंड करने की योजना, हेरिटेज सिटी योजना, बनारस में गंगा पर क्रूज, प्राइवेट सेक्टर में निवेश, गंगातीरी गाय संरक्षण योजना और बनारस में कुश्ती और जूडो जैसे खेलों को बढ़ावा देने की योजनाएं शामिल हैं.

बनारस शहर की सड़कों और गलियों की नारकीय स्थिति को देखते हुए इनमें से कई योजनाओं के बारे में अभी ही अंदाजा लगाया जा सकता है. बचकानी योजनाओं का बेवकूफाना जिक्र करने वाले पैरोकार बनारस की संस्कृति और परंपरा को नष्ट किए जाने के कुचक्र पर कुछ नहीं कहते. बनारसी साड़ी का ऐतिहासिक कारोबार पहले नोटबंदी फिर जीएसटी के कारण नष्ट होने पर है. विडंबना यह है कि केंद्र सरकार जीएसटी लाकर कार की कीमत कम कर देती है, लेकिन बनारसी साड़ी के पारंपरिक व्यापार को जीएसटी के बाहर नहीं कर सकती.

रामनगर के राल्हूपुर में गंगा के किनारे मल्टी मॉडल कार्गो टर्मिनल बनाने की योजना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे महत्वाकांक्षी परियोजना मानी जाती है. रामनगर के सामने-घाट पुल का निर्माण किस जहालत में फंसा है, इसे आपने ऊपर जाना. लिहाजा, कार्गो टर्मिनल प्रोजेक्ट के बारे में आप आकलन कर सकते हैं. जून 2016 में शुरू हुए कार्गो प्रोजेक्ट के अगस्त 2018 में पूरा होने का दावा किया जा रहा है. यह दावा भी पुल बनाने के दावे की तरह ही है. एफकॉन्स कंपनी कार्गो टर्मिनल बनाएगी. यह गंगा नदी पर छोटे-मोटे बंदरगाह की तरह होगा. जहां कार्गो शिप आया करेंगी. इस पोर्ट से बंगाल के हल्दिया बंदरगाह को जोड़ने की योजना है. आप खुद सोचिए कि बनारस में गंगा अपने घाट से दूर जा रही है.

उसका बहाव कम पड़ता जा रहा है और वह सूखती जा रही है, ऐसे में कार्गो टर्मिनल का औचित्य क्या रहेगा. यह क्या उन्हीं तमाम परियोजनाओं की तरह नहीं हो जाएगा, जिन्हें बनाने के नाम पर अरबों रुपए खाए जाते हैं और परियोजनाओं की लाश जमीन पर छोड़ दी जाती है? भाजपा के नुमाइंदों ने यह दावा भी शुरू कर दिया कि व्यापारिक जल परिवहन का काम शुरू हो चुका है. लेकिन असलियत यह है कि प्रधानमंत्री के इस ड्रीम प्रोजेक्ट को अभी एक इंच जमीन नहीं मिली है, जबकि प्रोजेक्ट के लिए कम से कम 30 एकड़ जमीन की जरूरत है. गंगा नदी पर हल्दिया से वाराणसी के बीच प्रस्तावित जल परिवहन योजना में जमीन का पेंच अभी भी फंसा हुआ है.

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने काशी के अपने पहले दौरे में ही जिला प्रशासन को निर्देश दिया था कि जमीन अधिग्रहण में आ रहे गतिरोध को जल्द से जल्द दूर किया जाए, लेकिन इनलैंड वाटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया को अब तक जमीन नहीं मिल सकी है. अथॉरिटी के परियोजना निदेशक प्रवीर पांडेय का कहना है कि मल्टी मॉडल टर्मिनल के अलावा गोदाम और जिऊनाथपुर रेलवे स्टेशन के लिए पटरी बिछाई जानी है. जल परिवहन के लिए जरूरी सुविधाएं विकसित की जानी हैं. लेकिन जमीन नहीं मिली है. जब तक जमीन नहीं मिलेगी तब तक आगे का काम शुरू नहीं हो पाएगा. जमीन की अनुपलब्धता के कारण ही रामनगर में ‘फ्रेट विलेज’ बनाने की योजना भी अटकी पड़ी है. इस योजना के लिए कम से कम 60 एकड़ जमीन चाहिए. जबकि प्रशासन मुश्किल से 30 एकड़ जमीन उपलब्ध करा पा रहा है.

बनारस में इंटिग्रेटेड टेक्सटाइल ऑफिस कॉम्प्लेक्स बनाने की योजना के बारे में भी खूब प्रचार-प्रसार किया गया. इसे अनोखा प्रोजेक्ट तक बता दिया गया. लेकिन बनारस भदोही और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बुनकर बेल्ट में बुनकरों का क्या हश्र है, इसे जो जानते हैं उनसे बात करिए. बुनकरों को इस कॉम्प्लेक्स से क्या मिलने वाला? बुनकरों को सबसे पहले नोटबंदी ने बुरी तरह मारा और रही सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी. नोटबंदी से बुनकरी की 400 साल पुरानी परंपरा पर बुरा असर पड़ा. नोटबंदी के बाद सारे बुनकर बेरोजगार हो गए, क्योंकि उनकी मजदूरी रोजाना के नगदी लेनदेन पर आधारित थी.

नोटबंदी और जीएसटी ने बुनकरों और बनारसी साड़ी बुनने वाले कारीगरों की आजीविका पर चोट पहुंचाई है. बनारस पूरी दुनिया में बनारसी साड़ियों के लिए भी पहचाना जाता है. बुनकरी की कला में माहिर बुनकर हथकरघे पर कई-कई दिन की मेहनत के बाद एक बनारसी साड़ी तैयार करते हैं. लेकिन जीएसटी लगने के बाद बनारसी साड़ी का कारोबार ध्वस्त होने पर है. बनारस के बुनकर लगातार हड़ताल पर हैं. बनारसी साड़ी की मंडियों पर ताले लटके हैं. बुनकरों के हथकरघे की खटर-पटर की जगह मरघटी सन्नाटा छाया हुआ है. शहर के विभिन्न इलाकों में बुनकर हजारों की तादाद में सड़कों पर उतर कर विरोध करते दिख रहे हैं. व्यापारियों और बुनकरों की मांग है कि मोदी सरकार बनारसी साड़ी से जीएसटी वापस ले, नहीं तो बनारसी साड़ी का व्यापार बंद हो जाएगा. पिछले करीब एक पखवाड़े से यहां बनारसी साड़ी का धंधा ठप्प पड़ा है. सरकार इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं दे रही है. यह है मोदी का बनारस प्रेम.

बनारस के गंदे वर्तमान पर माक़ूल कविता

बनारस शहर की अभागी सड़क / तू ही बता, तू कहां से आई है? / मैं कोई सरकस का बाजीगर तो नहीं, जो मौत के कुएं में जाकर / मोटर साइकिल के करतब दिखाकर, हंसता हुआ बाहर चला आऊं! / पर्वतारोही या खन्दकावरोही भी नहीं, जो चढ़ने-उतरने, दौड़ने-भागने का आदी होऊं! / सामान्य नागरिक हूं, सीधी-सादी सड़क पर ही चलना जानता हूं, / तुम्हारे जख्मों को ठीक नहीं कर सकता, तुम्हारी मरहम पट्टी के लिए, / तुम्हारे आशिक की तरह सड़क जाम कराने के आरोप में जेल नहीं जा सकता, / तो क्या यहां बैठकर, दो बूंद आंसू भी नहीं बहा सकता! / ऐ अभागी सड़क! / तेरी स्थिति बड़ी दुखदायी है, तू ही बता तू कहां से आई है? / दिल्ली या मुम्बई की तो तू हो नहीं सकती, गुजरात के भूकंप की तरह चरमराई / दंगों की तरह शरमाई दिखती तो है, पर गुजरात की ही हो यह जरूरी नहीं, / तू कश्मीर की तरह घायल है, मगर तेरे जिस्म से खून की जगह निकलते गंदे नाली के पानी को / देखकर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि तू कश्मीर की भी नहीं है, / नहीं, तू दक्षिण भारत की सुनामी लहरों की बहाई भी नहीं, / भ्रष्टाचार की गंगा में डूबी-उतराई है, तेरे जिस्म पर कहीं ऊंचे पहाड़ तो कहीं गहरी खाई है, / लगता है तू बिहार से भटक कर बनारस चली आई है, / अब तुझ पर से होकर नहीं गुजरते रईसों के इक्के या फिर फर्राटे से दौड़ने वाले / गाड़ियों के मनचले चक्के, / अब तो इस पर घिसटते हैं सांड, भैंसें, गायें या फिर मजदूरी की तलाश में भागती साइकिलों के पहिये, / मैं जानता हूं कि तू कभी ठीक नहीं हो सकती, / क्योंकि तुम अपने रहनुमा की थाली की कभी खत्म न होने वाली मलाई है, / ऐ अभागी सड़क तू आधुनिक भारत के विकास की सच्चाई है / तू ही बता, बिगड़ी संस्कृति बन मेरे बनारस में कहां से चली आई है!

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