दावोस में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो भाषण दिया, उसकी चारों ओर प्रशंसा हो रही है. लोग बस इतना कह रहे हैं कि उस भाषण का मंच सही नहीं था. वो भाषण अगर भारत में या किसी वैदिक सम्मेलन में होता तो ज्यादा प्रासंगिक होता. दरअसल दावोस में जो लोग इकट्ठे हुए थे, वे प्रधानमंत्री से आर्थिक विकास का रोडमैप जानना चाहते थे. लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने जो तय किया, उसे ही मानना चाहिए कि ये भारत का अगले साल भर का दृष्टिकोण है. इस रिपोर्ट में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जुड़े हुए मुद्दे ज्यादा इसलिए आएंगे, क्योंकि देश के संचालन का एकमात्र प्रतीक स्वयं प्रधानमंत्री मोदी हैं.
चाहे हमारी विदेश नीति का निर्धारण हो या फिर विदेश नीति को लेकर विश्वव्यापी यात्राएं हों, हर जगह प्रधानमंत्री मोदी नजर आते हैं. कहीं पर भी विदेश मंत्रालय या विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का चेहरा नजर नहीं आता है. अब आर्थिक सवालों को लेकर रोडमैप हो, भारत में विकास के आंकड़े हों, नौकरियों का जाल हो या विपक्ष के ऊपर तंज हो, व्यंग्य हो, इन सबके प्रणेता स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं. इसीलिए ‘गुजरात के बाद भारतीय जनता पार्टी ने क्या सीखा’ इस रिपोर्ट के केन्द्र में अमित शाह नहीं, बल्कि स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ही दिखाई देंगे. अमित शाह सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी की दी हुई सीख या दिशा-निर्देशों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने वाले उनके विश्वस्त माने जाएंगे.
भारत की सरकार लोकसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है. इसका प्रारंभ गुजरात से हुआ. जहां गुजरात में एक महीने से ज्यादा संपूर्ण केन्द्रीय मंत्रिमंडल, राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यों के प्रमुख मंत्री और भारतीय जनता पार्टी के समस्त नेता, जिनमें आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे लोग शामिल नहीं हैं, ये सब गुजरात में दिन-रात मेहनत करते दिखे. शायद इसके पीछे ये कारण रहा हो कि खुफिया एजेंसियों ने जानकारी दी होगी कि लोगों का गुस्सा भारतीय जनता पार्टी से कुछ ज्यादा बढ़ गया है और उन्हें कम सीटें मिल सकती हैं. यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी कार्यकर्ता की तरह गुजरात के कस्बे-कस्बे में घूमे. उन्होंने फ्लाईओवर तक के उद्घाटन किए. गुजरात का चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव की ओर पहला कदम माना जा सकता है. गुजरात में भारतीय जनता पार्टी को 99 सीटें मिलीं. भारतीय जनता पार्टी ने इसे अपनी महान विजय के रूप में दिखाया. उसी समय उत्तर प्रदेश में महानगरों के चुनाव हुए. अहमदाबाद में महानगरों में जो महापौर जीते, उनका एक भव्य स्वागत सम्मान समारोह हुआ. ये चुनाव कई सारे सवाल छोड़ गए, लेकिन हिन्दुस्तान के लगभग सारे टेलीविजन चैनल और अखबार इस चुनाव को भविष्य के महान संकेत के रूप में देखने लगे.
2018 का सबसे महान इंटरव्यू
इस चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने कुछ घोषणाएं कीं. इन घोषणाओं में एक महत्वपूर्ण घोषणा थी कि उनका आकलन जीएसटी और नोटबंदी के आधार पर न किया जाए. उन्होंने देश में विकास की जो आधारशिलाएं रखी हैं, उनके आधार पर उनका आकलन होना चाहिए. अर्थशास्त्रियों को लगा कि शायद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जीएसटी और नोटबंदी को लेकर अपनी गलती स्वीकार की है. प्रधानमंत्री मोदी ने फिर कहा कि उन्होंने लोगों को लगभग दस करोड़ रोजगार दिए हैं. उन्होंने एक हिन्दी टेलीविजन चैनल को अपना मशहूर इंटरव्यू ये कहकर दिया कि उस टेलीविजन चैनल के दफ्तर के सामने जो पकौड़े बेचता है, क्या वो रोजगार नहीं है? जो लोग घरों में अखबार फेंकते हैं, क्या वो रोजगार नहीं है? ऐसे कई काम उन्होंने सरकार की उपलब्धियों में गिना दिए.
इस इंटरव्यू को 2018 का सबसे महान इंटरव्यू कहा गया. एक अंग्रेजी टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह सवालों के जवाब दिए, उससे लगा कि दोनों टेलीविजन चैनलों को सवालों की फेहरिस्त पहले थमा दी गई थी. दोनों टेलीविजन चैनल विज्ञापन करते नजर आए कि वो देश में हिन्दी और अंग्रेजी के अकेले टेलीविजन चैनल हैं, जिन्हें प्रधानमंत्री मोदी ने 2018 का सबसे महत्वपूर्ण इंटरव्यू दिया है. अब ये पत्रकारों को तय करना है कि वो दोनों इंटरव्यू प्रधानमंत्री मोदी के जवाब नहीं हैं. यह पत्रकारों द्वारा पूछे जाने वाले सवालों के आधार पर हमें तय करना है कि क्या उनमें कोई पत्रकारीय गुण या तेवर है. लोगों ने तो शायद तय कर लिया है, इसलिए उन दोनों इंटरव्यू के प्रस्तोता पत्रकार देश में पत्रकारों की नजर में सबसे हास्यास्पद स्थिति में हैं. जब आप इंटरव्यू क्लीपिंग देखेंगे, तो वो चाहे हिन्दी के हों या अंग्रेजी के, दोनों पत्रकारों के चेहरे उनके चारण भाव का साक्षात दर्शन करा रहे हैं.
पत्रकार स़िर्फ सरकार की प्रशंसा करें!
भारतीय जनता पार्टी 2019 का चुनाव जीतने के लिए क्या रणनीति बना रही है, ये सवाल आज उठना लाजिमी है. भारत सरकार या भारतीय जनता पार्टी ये नहीं बता रही है कि पिछले चार सालों में उन्होंने लगभग 50 घोषणाएं की थीं, उन पचास घोषणाओं में हम कहां तक पहुंचे? शायद भाजपा का या सरकार का ये मानना है कि जब उन्होंने घोषणाएं कर दीं, तो उसके ऊपर अमल भी हुआ है और उस अमल को देखने की जिम्मेदारी अब पत्रकारों की नहीं है. पत्रकारों की जिम्मेदारी सिर्फ उन कदमों की प्रशंसा करने की है और उन्हें देश के इतिहास में अद्भुत कदम बताने की है. उन्हें देखने की जिम्मेदारी जनता की है. अगर जनता के पास आंखें हों, तो वे अपने आप देख लें कि वे विकास के कितने महान युग में पहुंच गए हैं. जिन्हें ये दिखाई न दे, उन्हें ये मान लेना चाहिए की उनकी मानसिक बीमारी सीमा पार कर गई है. उन्हें उन लोगों के कोड़े सहने पड़ेंगे, जो लोग सरकार के बताए कदमों की आलोचना करते हैं.
एक राष्ट्र, एक चुनाव का सियासी मक़सद
भारतीय जनता पार्टी का 2019 का क्या चुनावी मुद्दा होगा? भारतीय जनता पार्टी के चक्रव्यूह में विपक्ष किस तरह फंसेगा? ये सारे सवाल हैं, जिनका उत्तर हम इस लेख में तलाशेंगे. एक चीज का सत्य सामने आया है कि इस देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों, तो इससे खर्चा भी कम होगा और छिपे अर्थों में भारतीय जनता पार्टी को फायदा भी मिलेगा. चाहे प्रांतीय सरकारों के कामों को लेकर गुस्सा हो या केन्द्रीय सरकारों के कामों को लेकर दुविधा हो, उसका असर भारतीय जनता पार्टी के भविष्य पर नहीं पड़ेगा. अब प्रधानमंत्री ने भी खुलेआम कह दिया है कि इस देश में एक राष्ट्र एक चुनाव होने चाहिए. इसके लिए शायद संविधान में संशोधन करना पड़ सकता है, उसे भी भारतीय जनता पार्टी करना चाहेगी. लोकतांत्रिक या संसदीय व्यवस्था में अगर अनजान कारणों से संसद या राज्यों की विधानसभाएं भंग होती हैं, तो भंग होने के छह महीने के भीतर दोबारा चुनाव होना चाहिए. देश की समस्त विधानसभाओं में अगर दो या तीन विधानसभाएं पार्टी बदलने के कारण या 356 लगने के कारण सरकारें जाती हैं और कोई सरकार नहीं बन पाती है तो उस स्थिति में पुनः चुनाव अवश्यंभावी है.
अब संभवतः ये संशोधन करना पड़ सकता है कि चाहे जब भी किसी राज्य की विधानसभा भंग हो, तो वहां चुनाव नहीं होंगे. जितनी भी अवधि शेष है, चाहे वो चार साल या एक साल की अवधि हो, तो उस अवधि में विधानसभा चुनाव नहीं होंगे. वहां राष्ट्रपति शासन चलेगा. केन्द्र राष्ट्रपति शासन के नाम पर उन राज्यों की सत्ता चलाता रहेगा. एक देश एक चुनाव एक बार तो हो सकता है, लेकिन हम ये गारंटी कैसे दे सकते हैं कि किसी राज्य की विधानसभा भंग नहीं होगी या विधायकों के बीच ऐसी स्थिति कभी नहीं बनेगी कि दोबारा चुनाव की नौबत आए. नेपाल में ये नियम है कि वहां राष्ट्रीय पंचायत का चुनाव छह साल में होगा. इस बीच चाहे जो परिस्थिति बने, राजा शासन चलाएगा या राष्ट्रपति शासन चलाएंगे. नेपाल के विधान के हिसाब से छह साल से पहले चुनाव नहीं हों. शायद भारतीय जनता पार्टी बजट सत्र में वही स्थिति भारत में लाने की कोशिश कर सकती है.
90 प्रतिशत सांसदों को टिकट नहीं
भारतीय जनता पार्टी ने लगभग ये तय कर लिया है कि मौजूदा लोकसभा के उनके दल के सांसदों को इस बार लोकसभा का टिकट नहीं दिया जाएगा. ये बात कुछ नेताओं के अनुमान में आ गई है. इसी वजह से पिछले लोकसभा सत्र के दौरान व्हिप के बावजूद संसद में सौ सांसद भी नहीं पहुंचे और भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व उन सौ सांसदों का कुछ नहीं बिगाड़ सका. भारतीय जनता पार्टी संपूर्ण देश में चाणक्य सर्वे एजेंसी के जरिए एक सर्वे करा रही है, जिससे वो ये अंदाजा लेना चाहती है कि कौन सांसद जीतेगा और कौन सांसद नहीं जीतेगा. चाणक्य द्वारा किए जाने वाले सर्वे की कुछ लोगों से ये खबर मिली है कि भारतीय जनता पार्टी के अधिकतर सांसदों के खिलाफ केन्द्रीय सरकार द्वारा किए जा रहे कामों पर अमल नहीं होना और उनके द्वारा बड़ी-बड़ी आशाओं के अनुमान लगाना सांसदों के खिलाफ गुस्से के रूप में प्रकट हो रहा है. शायद इसीलिए ये फैसला लिया गया है कि 90 प्रतिशत सांसदों को टिकट न दिए जाएं.
अल्पेश-शाह की गोपनीय बैठक, चाय-बिस्कुट लाने की कहानी
इस समय भारतीय जनता पार्टी के सामने जो प्रमुख सवाल हैं और जिस तरीके से भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय संगठन चल रहा है, वो इस नए नेतृत्व की कार्यशैली का परिणाम है. हमारे पास एक निश्चित जानकारी आई है, जिसे हम आपसे साझा करना चाहते हैं. गुजरात चुनाव में दो लोगों ने चुनाव लड़े, जिनकी चुनाव में बहुत चर्चा हुई. इनमें एक अल्पेश ठाकोर और दूसरे जिग्नेश मेवाणी हैं. हार्दिक पटेल की उम्र नहीं थी, इसलिए वे चुनाव नहीं लड़ पाए. अल्पेश ठाकोर कांग्रेस के पास कैसे पहुंचे और उन्हें टिकट कैसे मिला, ये कहानी सौ प्रतिशत सत्य है. इसे हम आपके साथ साझा करना चाहते हैं. दरअसल अल्पेश ठाकोर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने गए थे. वे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के घर भी पहुंचे. अमित शाह ने उन्हें आदर से बैठाया. उन्होंने वहां बैठे एक व्यक्ति से उनका परिचय कराया और कहा कि ये भूपेंद्र यादव हैं. ये इतने ताकतवर हैं कि गुजरात के राजा हैं. ये इतने शक्तिशाली हैं कि प्रधानमंत्री भी इनकी जानकारी के बिना गुजरात नहीं जा सकते. अल्पेश ठाकोर ने उन्हें सादर प्रणाम किया. अध्यक्ष अमित शाह ने अल्पेश ठाकोर को भूपेंद्र यादव की विद्वता, उनकी समझ और पूरे गुजरात के चुनाव को संचालित करने के बारे में बहुत ज्यादा तारीफ की.
अल्पेश ठाकोर को लगा कि उन्हें अगर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होना है, तो उन्हें अमित शाह के संकेत के हिसाब से भूपेंद्र यादव के इशारों पर काम करना पड़ेगा. उन्होंने मन ही मन इसे स्वीकार भी कर लिया. 10 मिनट के बाद अमित शाह ने भूपेंद्र यादव से कहा, बेटा अंदर जाओ और हमारे लिए चाय और बिस्कुट ले आओ. भूपेंद्र यादव सविनय उठे और बिस्कुट और चाय लाने चले गए. अल्पेश ठाकोर की समझ में नहीं आया कि ये क्या हुआ? उन्होंने अमित शाह से पूछा कि अभी तो आप इतनी तारीफ कर रहे थे कि ये राजा हैं, ये समझदार हैं. इनकी अनुमति के बिना प्रधानमंत्री भी गुजरात नहीं जा सकते हैं और अभी आपने कहा कि चाय और बिस्कुट ले आएं. अमित शाह मुस्कुराए. उन्होंने कहा कि अल्पेश, ये तुम्हारी और मेरी तरह नेता नहीं हैं. ये सारे लोग इसी स्तर के हैं. इस वाक्य ने अल्पेश ठाकोर के मन में झंझावात पैदा कर दिया. वे ये सोचने लगे कि मुझे उपमुख्यमंत्री बनाने का वादा करने वाले अमित शाह भारतीय जनता पार्टी में शामिल करने के बाद अगर मुझसे फर्श पर पोछा लगवा लें, तो वो भी कोई अचंभित करने वाला दृश्य नहीं होगा.
वे चाय पीकर वहां से निकले और फिर उन्होंने पता किया कि वे कांग्रेस के लोगों के साथ कैसे मिल सकते हैं. वे राहुल गांधी से मिलना चाहते थे. उनके पास राहुल गांधी से मिलने का कोई सूत्र नहीं था. तब उन्होंने अपने एक तीसरे मित्र से बात की. उसने कहा कि आप राहुल गांधी से सीधे मिलने की जगह अशोक गहलोत से मिलिए. अल्पेश ठाकोर ने वही किया. वे अशोक गहलोत से मिले, जहां से उनकी कांग्रेस में जाने की कहानी और फिर कांग्रेस के साथ मिलकर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू हुई. भारतीय जनता पार्टी से जुड़े अधिकतर सांसद और नेता भारतीय जनता पार्टी के पिछले अध्यक्षों, फिर वो चाहे मुरली मनोहर जोशी का कार्यकाल हो, चाहे आडवाणी जी का या फिर राजनाथ सिंह, के कार्यकाल को याद करते हैं. इस दौरान पार्टी का उनके प्रति व्यवहार और मौजूदा अध्यक्ष के समय उनके साथ व्यवहार में उन्हें जमीन-आसमान का अंतर दिखाई देता है.
आपसी रजामंदी से भारत-पाक युद्ध!
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या पाकिस्तान के साथ भारत का सीमित युद्ध हो सकता है? उच्चस्तरीय सूत्रों के अनुसार, जब-जब भारत और पाकिस्तान में युद्ध हुए हैं, तब-तब भारत भी अपनी समस्याओं से निपटने में आंशिक रूप से कामयाब रहा है, क्योंकि उसकी समस्याएं नेपथ्य में चली गईं और देश आगे आ गया. उसके बाद जो भी समस्याएं हैं, वो युद्ध के सर गईं और पाकिस्तान सरकार ने भी अपनी समस्याओं से अपने को आसानी के साथ अलग कर लिया. कुछ रणनीति और विदेशी मामलों के जानकारों का तो यहां तक कहना है कि जितने भी युद्ध होते हैं, वो दोनों सरकारों की मिलीभगत के आधार पर होते हैं. इस बार अगर ये विचार पाकिस्तान या भारत के कुछ नेताओं के दिमाग में आया कि अगर युद्ध हो जाता है और अगर दस दिनों का सीमित युद्ध होता है, तो दोनों देश अपनी समस्याओं से अलग जाकर दोबारा अपनी-अपनी सरकार स्थापित करने में सफल हो जाएंगे. लेकिन इसमें एक पेच सामने आया और वो पेच था चीन. अगर चीन ने पाकिस्तान को उकसा दिया कि तुम दस दिन की जगह 23 दिन का युद्ध कर लो, तो भारतीय अर्थव्यवस्था को उससे बड़ा धक्का लग सकता है. दूसरा इस बार पूरी दुनिया के आतंकवादी संगठन कहीं पाकिस्तान के पक्ष में न खड़े हो जाएं, ये भी खतरा था. इसलिए इस प्रस्ताव को नकार दिया गया. अब एक नई रणनीति पर काम हो रहा है. शायद वही रणनीति 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए रामबाण का काम करने वाली है.
2019 से पहले आएगा राम मंदिर का फैसला!
सुप्रीम कोर्ट में राम मंदिर को लेकर एक फरवरी से प्रतिदिन सुनवाई हो रही है. सरकार का अंदाजा है कि सितंबर में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा. फैसला आने के पंद्रह दिन के भीतर लोकसभा चुनाव कराने का फैसला ले लिया जाएगा. देश में एक ऐसी सरकार पुनः चुनने का अभियान होगा, जिसने अयोध्या में राम मंदिर बनाने का असंभव काम कर दिया. उस समय हिन्दुस्तान के 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े होंगे. ये सोच भारतीय जनता पार्टी के महान रणनीतिकारों का है और शायद वे सही हैं. कुछ संकेत भारतीय जनता पार्टी के भीतर से आ रहे हैं, जिनमें एक सुब्रमण्यम स्वामी हैं. वे कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला भारतीय जनता पार्टी के विचारों के हिसाब से राम मंदिर के पक्ष में ही आएगा और शायद वो गलत नहीं सोच रहे हैं.
एक सवाल ये भी है कि क्या इसी के साथ धारा 370 और कॉमन सिविल कोड का अध्यादेश भी भारत सरकार ले आएगी. अध्यादेश लाने के साथ ही वे देश के लोगों से कहेंगे कि अगर उन्हें एक देश और एक कानून चाहिए और अगर कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाना है, तो उन्हें इस अध्यादेश को संविधान संशोधन में बदलने वाली सरकार लानी होगी और उन्हें पूरा विश्वास है कि देश के लोग भारतीय जनता पार्टी को ही दोबारा चुनेंगे.
ये रोज़गार छीनने वाली अर्थव्यवस्था है
प्रमुख मुद्दा राम मंदिर और दो अन्य प्रमुख मुद्दे, जिनमें धारा 370 और कॉमन सिविल कोड शामिल हैं, ये भारतीय जनता पार्टी के लिए संपूर्ण विपक्ष को तबाह करने वाले मुद्दे लग रहे हैं. इन्हीं के ऊपर भारतीय जनता पार्टी के भीतर दिन रात काम हो रहा है. शायद वो इसलिए भी हो रहा है क्योंकि पिछले साल भर के भीतर बेरोजगारी बहुत बढ़ी है और आशंका यह भी है कि 2018 में बेरोजगारी और बढ़ेगी. टेक्सटाइल और कंस्ट्रक्शन सेक्टर से निकले हुए बेरोजगार बहुत बेहाल हैं. उनमें ज्यादातर भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं. अनुमान ये है कि लगभग एक करोड़ लोग इस वर्ष आईटी सेक्टर से भी निकाले जाएंगे.
प्रमुख भारतीय आईटी कंपनियों ने छंटनी की शुरुआत कर दी है. आईटी सेक्टर से निकले हुए लोग भारत के ग्रामीण क्षेत्रों से नहीं, बल्कि शहरी क्षेत्रों में परेशानी पैदा करेंगे. भारत सरकार के दावे के बावजूद संगठित या असंगठित क्षेत्र में लोगों को रोजगार नहीं मिल रहे हैं. हमारी अर्थव्यवस्था लोगों को रोजगार देने वाली नहीं, बल्कि रोजगार छिनने वाली बन रही हैं और नियो लिबरल इकोनॉमी का ताजा सटीक उदाहरण बनी हुई हैं. इसीलिए अर्थ और विकास के सवाल पर नहीं, बल्कि राम मंदिर, धारा 370 और कॉमन सिविल कोड के सवाल पर चुनाव लड़ा जाएगा. भारतीय जनता पार्टी के सूत्र बताते हैं कि लगभग ये तय हो चुका है कि यही इस स्थिति से बचने का एकमात्र उपाय बन रहा है.
महत्वपूर्ण व्यक्तियों की गोपनीय बैठक!
कुछ और खबरें आई हैं, जिसकी कभी पुष्टि नहीं होगी, इसीलिए हम नाम नहीं लिख रहे हैं. हमारी जानकारी 100 प्रतिशत सही है कि 22 दिसंबर की रात लगभग 11 बजे देश का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति, देश के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति से उनके घर जाकर मिला. उसने कहा कि हमने पिछले तीन साल आपसी कटुता में गुजार दिए. अब आने वाला समय हमें थोड़ा सा प्यार मोहब्बत में गुजारना चाहिए. जिस दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्ति से ये सज्जन मिलने गए, उनके पुत्र और पुत्री दस मिनट के भीतर उस मुलाकात में शामिल हो गए, क्योंकि मुलाकात तय नहीं थी. बीस मिनट पहले फोन पर ये मुलाकात तय हुई. दोनों व्यक्तियों के घरों पर जो रजिस्टर है, उन रजिस्टरों में इस मुलाकात का कोई जिक्र नहीं है. न आने का जिक्र है, न जाने का जिक्र है. ऐसा देश की राजनीति में होता है. सरकार चाहे तो रजिस्टर बदल दे, सरकार चाहे तो कहीं पर एंट्री न हो, सरकार चाहे तो जांच भी सही होती है, सरकार चाहे तो जांच भी गलत होती है लेकिन इनमें इस घटना को भविष्य के लिए अच्छा संकेत मानता हूं.
तोगड़िया के अभियान से भाजपा सतर्क
इस बीच में डॉ. प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ राजस्थान और गुजरात पुलिस का संयुक्त अभियान चला. तोगड़िया ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में रोते हुए ये कह दिया कि दिल्ली में बैठे सबसे बड़ा सत्ताधीशों ने उन्हें मारने की साजिश की है. इस बयान के बाद प्रवीण तोगड़िया न केवल विश्व हिन्दू परिषद से, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी अलग करने का फैसला ले लिया. हिन्दू महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष स्वामी चक्रपाणि और तोगड़िया के मुलाकात में यह तय हुआ है कि दोनों नेता मिलकर देश में राम मंदिर, गोरक्षा और किसानों से किए हुए धोखे के खिलाफ देश भर में अभियान चलाएंगे. तोगड़िया द्वारा चलाया जाने वाले इस अभियान की खबर भारतीय जनता पार्टी के पास पहुंच चुकी है और इसीलिए इस वर्ष के आखिरी महीनों में होने वाले लोकसभा के संभावित चुनाव पर फैसला ले लिया गया है.
विकास का लाभ चंद परिवारों तक सीमित
मौजूदा मोदी सरकार की आर्थिक नीति के कुछ परिणाम काफी खतरनाक संकेत देते हैं. ये आंकड़े खुद भारत सरकार के आंकड़े हैं कि 2016 में देश की 58 प्रतिशत संपत्ति एक प्रतिशत लोगों के हाथ में थी और अभी 20 दिन पहले भारत सरकार का आंकड़ा कहता है कि देश की 73 प्रतिशत संपत्ति देश के एक प्रतिशत लोगों के हाथ में है. ये संकेत बताता है कि देश में विकास की धारा इस देश के दलित, अल्पसंख्यक, मजदूर और किसान के पास नहीं पहुंच रही है. विकास का सारा लाभ देश के चंद परिवारों के पास सिमटता जा रहा है. हर दो दिन में एक व्यक्ति करोड़पति से अरबपति बन रहा है. 2016 में 58 फीसदी और 2017 में एक साल के भीतर एक प्रतिशत लोगों के हाथों में 73 प्रतिशत संपत्ति का इकट्ठा होना कोई साधारण चीज नहीं है.
इससे देश में आने वाले पांच साल में विकास की धारा कैसी होगी, उसका अंदाजा लगाया जा सकता है. सरकारी आंकड़ा ये भी बताता है कि 67 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं. शायद यही अमीरों से गरीबों के लिए लड़ने की घोषणा करने वाली सरकार का महान सत्य है कि उसके शासनकाल में 58 प्रतिशत से 73 प्रतिशत के बीच देश की संपदा एक प्रतिशत लोगों के हाथ में चली गई. ये चिंताएं सिर्फ अर्थशास्त्रियों की नहीं हैं, ये चिंताएं भारतीय जनता पार्टी के लिए दिन-रात काम करने वाले बुद्धिजीवियों की है. संभवतः इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में ये फैसला लिया गया कि हमें चुनाव के मुद्दे साफ कर लेने चाहिए और सितंबर में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आते ही चुनाव करा लेना चाहिए. उसके बाद देश के विकास के बारे में सोचना चाहिए.
प्रधानमंत्री के लिए राहत की खबर
प्रधानमंत्री मोदी के लिए सबसे राहत की बात यह है कि उन्हें यह खबर मिल चुकी है कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने की किसी जल्दबाजी में नहीं हैं. राहुल गांधी मानते हैं कि प्रधानमंत्री 2024 तक 70 की उम्र पार कर चुके होंगे और वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे. इस हिसाब से कांग्रेस संगठन को मजबूत और जुझारू बनाने का 2024 तक पर्याप्त वक्त है. दरअसल राहुल गांधी ने यह बात अपने सलाहकारों से की थी, जिसे उन्होंने बिना वक्त गंवाए प्रधानमंत्री तक पहुंचा दिया.
फास्ट ट्रैक कोर्ट : विपक्ष के खिलाफ भाजपा का हथियार
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और वहां की जानकारियां रखने वाले तथा भारतीय जनता पार्टी की ज्यादा जानकारी रखने वाले मेरे एक साथी ने मुझे एक कमाल की जानकारी दी. उन्होंने इस बारे में बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया है, खास कर राजनेताओं के लिए, जिनमें एमएलए, एमपी, मंत्री आदि शामिल हैं, उसका इस्तेमाल सिर्फ अगले एक साल के भीतर भारतीय जनता पार्टी कैसे करना चाहती है. उनसे जो जानकारी मिली, चूंकि उन्होंने मना नहीं किया कि मैं इस जानकारी को सार्वजनिक न करूं, उसे मैं सार्वजनिक करना चाहता हूं. फास्ट ट्रैक कोर्ट दरअसल राजनीतिक नेताओं के ऊपर आपराधिक मामलों पर त्वरित फैसला लेने के लिए बने हैं, क्योंकि, एमएलए, एमपी, मिनिस्टर्स आदि के खिलाफ बहुत सारे आपराधिक मामले हैं.
इनमें गंभीर अपराध के मामले भी हैं. इसके पीछे संभवत: सुप्रीम कोर्ट का यही उद्धेश्य है कि इस पर जल्दी फैसला हो, ताकि उन फैसलों की वजह से जिन्हें जेल जाना हो वो जेल जाएं, जिन्हें छूटना है, वो छूट जाएं और व्यर्थ में कोई बदनाम न हो. सरकार चाहती है कि अपराध की परिभाषा में हर तरह के अपराध आएं और उन्हें वो आर्थिक अपराध का निपटारा करने के लिए भी इस्तेमाल करना चाहती है. इसके लिए उन्हें उनके कानून मंत्रालय की हरी झंडी भी मिल गई है और सरकारी वकीलों की टीम ने ये आश्वस्त किया है कि ऐसा हो सकता है. देश के अधिकांश राज्यों के अधिकांश नेता किसी न किसी अपराध में फंसे हैं और उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है. पर बहुत सारे बड़े नेता अपराध की वृहद परिभाषा के तहत फंसे हुए हैं, जिनमें आर्थिक अपराध आते हैं. लालू यादव इसका एक उदाहरण हैं. शशिकला दूसरा उदाहरण हैं.
जयललिता अगर जीवित होतीं, तो शायद इसका तीसरा उदाहरण बनतीं. बहुत सारे राजनेता, जो भूतपूर्व सांसद रहे हैं, वे अभी जेल में हैं. सरकार चाहती है कि विपक्ष के सारे नेता, जिनके ऊपर आय से अधिक संपत्ति का मामला चल रहा है, जिनमें मायावती, मुलायम सिंह सहित जितने भी नेता हैं, उन्हें अदालत के कटघरे में खड़ किया जाए और साल भर के भीतर उनमें से अधिकांश को सजा दिलवाई जाए. जब मैंने पूछा कि इसका क्या परिणाम निकलेगा तो उनका उत्तर था कि इससे देश में विरोधी पक्ष की साख खत्म हो जाएगी और सिर्फ और सिर्फ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख बचेगी. देश में कम राजनीतिक दल होंगे और एकमात्र प्रभावी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी होगा या भारतीय जनता पार्टी के नाम पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दल होगा.
भारतीय जनता पार्टी में वैसे भी इस समय कोई आवाज लोकतंत्र के लिए या आंतरिक लोकतंत्र के लिए नहीं उठ रही. इस फास्ट ट्रैक अदालत के चलने के बाद तो ये आवाज बिल्कुल भी नहीं उठेगी, क्योंकि एडीआर ने जो सूची जारी की है, उसमें सबसे ज्यादा आपराधिक मुकदमे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों के ही हैं. इस समय वे ही लोग ज्यादा चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए मुकदमे भी उन्हीं के ऊपर सबसे ज्यादा हैं. ये स्थिति आने वाले समय में कई तरह के नए अंतर्विरोध खड़ा कर सकती है. एक आम धारणा के हिसाब से, जो भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गया उनके मुकदमे देर से शुरू होंगे या शुरू ही नहीं होंगे और जो भारतीय जनता पार्टी के साथ नहीं गया, उसके मुकदमे फौरन शुरू होंगे और जल्दी खत्म होंगे, ताकि उसे सजा मिल सके.
कानून का इस्तेमाल राजनीति के लिए कैसे होता है, इसे समझाने वाले जाहिर है राजनीतिक लोग नहीं हैं, ये शातिर ब्यूरोक्रेट हैं, जिन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को यह समझा दिया है कि कैसे 2019 के चुनाव में विपक्ष की साख शून्य की जा सकती है और इसका सबसे बड़ा शिकार स्वयं श्रीमति सोनिया गांधी, राहुल गांधी और रॉबर्ट वाड्रा हो सकते हैं, क्योंकि इनके ऊपर भी ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जिन मुकदमों में अगर इन्हें बरी नहीं किया गया तो सजा होनी लाजिमी है. सुब्रमण्यम स्वामी से इन तीनों-चारों के खिलाफ आरोपों की सूची ली जा सकती है और अगले आने वाले एक वर्ष में ये संभावना सच हो सकती है कि विपक्ष सचमुच शून्य हो जाय और उनमें से ज्यादातर नेता अदालत के फैसले के बाद जेल में दिखाई दें.