santosh-bhartiyaचलिए चुनाव खत्म हो गया. चुनाव की अदावत, चुनाव की भाषा और चुनाव में लगाए गए आरोप-प्रत्यारोप सामान्य लोगों को बहुत दिनों तक याद रहेंगे. लेकिन, राजनेता यह सब भूल जाएंगे और वे यह भी भूल जाएंगे कि उन्होंने ऐसी भाषा का इस्तेमाल करके कितने लोगों के मन में अच्छी राजनीति की संभावनाओं की आशा समाप्त की है. इन परिणामों की वजह से बिना मन को परेशान किए सभी को अपने-अपने काम पर लौटना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए चुनौतियां ज़्यादा हैं. उनकी सरकार विश्व बैंक में भारत की रैंकिंग में सुधार का ढिंढोरा पीट रही है, लेकिन विश्व बैंक की रैंकिंग का आधार भारतीय उद्योग या पूंजी बाज़ार में पूंजी के बैलेंस पर टिका होता है, उसका कोई रिश्ता भारतीय जनता के जनजीवन से नहीं होता. वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता की क्रय शक्ति कम हो रही है और आमदनी घट रही है.

नौकरियां हैं नहीं और हमारा निर्यात कम हो रहा है. नतीजतन, भारत में न तो सामान्य आदमी खुश है और न वे खुश हैं, जिनके पास पैसा है. मुझसे ऐसे लोग कई बार टकराते हैं, जिनका बड़ा या छोटा व्यापार है. वे कहते हैं कि उनके पास पूंजी समाप्त हो रही है. पूंजी समाप्त होने का एक ही कारण वे बताते हैं कि बाज़ार अनियंत्रित, बेलगाम और अराजक स्थिति में पहुंच रहा है. कौन दिशा निर्धारित कर रहा है, कौैन दिशा भटका रहा है, यह सब नज़रों से ओझल हो गया है.

मैं अभी कुछ दिनों पहले एक बड़े बिजनेस न्यूज चैनल द्वारा आयोजित मिनिस्ट्रियल कॉन्क्लेव में गया था. वहां जितने लोग थे, वे सब उपस्थित मंत्रियों को खुश करने वाले सवाल पूछ रहे थे. मेरे सवाल के जवाब में मंत्री थोड़ा सकपकाए और उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. लेकिन, उसके बाद के छोटे-से ब्रेक में ज़्यादातर कंपनियों के मालिक या उनके मुख्य कार्यकारी अधिकारी मेेरे पास आए और उन्होंने मुझे बधाई दी.

उन्होंने कहा कि आप ही ने सही सवाल पूछा है, हम तो कोई सवाल पूछ ही नहीं सकते, क्योंकि मंत्री सामने हैं. हमारे खिला़फ बदले की कार्यवाही हो सकती है. एक बिजनेस न्यूज चैनल के कार्यक्रम में देश के बड़े आर्थिक संगठनों के नेता शामिल थे. उनमें से एक ने बहुत सा़फगोई से कहा कि विकास का एजेंडा कहीं भटक गया है. हम छोटे-छोटे सेरेमोनियल फंक्शन को विकास का मुखौटा पहना रहे हैं.

हालांकि, अपनी दूसरी टिप्पणी में वह थोड़े सावधान हो गए और उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, विकास का एजेंडा तो इस सरकार का मुख्य एजेंडा है. पर ये स्थितियां बताती हैं कि इस देश में कोई खुश नहीं है. सवाल यह उठता है कि लोगों को खुश करने की ज़िम्मेदारी आ़खिर किसकी है?

देश के मशहूर लेखक एवं भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी जब यह कहते हैं कि इस सरकार में कोई भी विशेषज्ञ नहीं है, तो वह कुछ हद तक सही कहते हैं, बल्कि बड़ी हद तक सही कहते हैं. मैं यह मानता हूं. आप विशेषज्ञों को संपूर्ण अधिकार मत सौंपिए, लेकिन देश के विशेषज्ञों को बुलाएं, जो विभिन्न मंत्रालयों के कामकाज की समीक्षा करें और सुझाए भी कि देश को इस स्थिति से निकालने के लिए क्या तरीके अपनाने चाहिए.

हालांकि यह मुश्किल है, लेकिन देश ऐसी स्थिति में पहुंच गया है कि विभिन्न पहलुओं पर राय रखने वाले विभिन्न विशेषज्ञों को एकत्र किया जाए और उनके साथ गंभीरतापूर्वक चर्चा करके देश के विकास की दिशा तय की जाए. राजनीति अपनी भाषा बोलती रहेगी, आलोचनाएं-प्रति आलोचनाएं होती रहेंगी, लेकिन सरकार कम से कम कोई दिशा तो देखे और उस दिशा की ओर बढ़ना शुरू करे. आज हालत यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था की कोई दिशा ही नहीं है.

दिशा का एक संकेत बजट से मिलता है और बजट यह बताता है कि उसमें 70 प्रतिशत भारत शामिल नहीं है. यह कहा जा सकता है कि अभी तो दो साल पूरे होने वाले हैं और हम अगले दो सालों में खेती का, किसानों का, ग्रामीण भारत का ध्यान रखेंगे, लेकिन तब तक शहरों पर आधारित अर्थव्यवस्था लुढ़कने लगेगी.

इसलिए देश के हित में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगर कड़े फैसले करना चाहते हैं, तो उन्हें वे कड़े फैसले पूंजी बाज़ार को ध्यान में रखते हुए देश के सामान्य लोगों के पक्ष में करने चाहिए. लेकिन, क्या उनके पास कड़े फैसले लेने के लिए वक्त है? प्रधानमंत्री को हम जैसे साधारण लोग क्या सुझाव दे सकते हैं, पर सुझाव देना ज़रूर चाहते हैं.

आप अगर आज नहीं सोचेंगे, तो फिर आपका वह वाक्य मज़ाक लगने लगेगा कि देश ने 60 साल कांग्रेस को दिए, तो 15 साल हमें क्यों नहीं दे सकता? प्रधानमंत्री जी, देश नहीं दे सकता, क्योंकि पिछले 60 सालों में जो प्रगति नहीं हुई, वह पिछले 10 सालों में हुई है और जो पिछले 10 सालों में नहीं हुई, वह अब हो रही है.

सारे लोग सूचनाओं से भरे हुए हैं और वे थोड़े समय के लिए दिमाग़ी तौैर पर भटक सकते हैं, पर ज़्यादा समय के लिए नहीं. ग़रीब, चाहे शहर में हो या गांव में, उसके सामने भविष्य अंधकारमय है और यह उसे डराता है. कोशिश कीजिए कि वह अपनी उस निराशा के गर्त में न डूबे, क्योंकि निराशा के गर्त में डूबने से व्यक्ति हिंसा की तऱफ बढ़ता है और हिंसा देश के लिए खतरनाक होती है.

प्रधानमंत्री के सामने कोई चुनौती नहीं है, कम से कम भारत का विपक्ष तो चुनौती नहीं है. तो फिर चुनौती उनके सामने अपना समय है, अपनी सोच है, उनका अपना मंत्रिमंडल है, उनके अपने वे साथी हैं, जिनसे वह सलाह-मशविरा करते हैं और देश के भविष्य पर निगाह रखने वाले वे ईमानदार विशेषज्ञ, जिन्हें वह तलाश नहीं पा रहे.

चुनावों की चिंता छोड़कर उन्हें देश की चिंता करनी चाहिए और चुनावों का ज़िम्मा पार्टी की राज्य इकाइयों और अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर छोड़ देना चाहिए कि वे चुनावों की क्या रणनीति बनाते हैं, क्या भाषा बोलते हैं. और, उनसे कह देना चाहिए कि चुनाव में गली-गली, गांव-गांव में सभा करने के लिए उन्हें न उलझाएं. अपना कुछ काम पार्टी और पार्टी के नेता भी करें.

यह मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि देश सचमुच प्रधानमंत्री मोदी से अपेक्षा करता है कि वह देश को चौमुखी आर्थिक विकास के रास्ते पर ले जाएंगे. कुछ दिक्कतें आएंगी, लेकिन प्रधानमंत्री जी, वक्त को ज़्यादा इंतज़ार मत कराएं. अभी वक्त है, कल वक्त नहीं होगा.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here