मन में एक दुविधा है कि आ़िखर अपनी बात कहें, तो किससे कहें? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहें या वित्त मंत्री अरुण जेटली से कहें? दुविधा इसलिए है कि वह कौन है, जो बातों को सुन सकता है. मुझे लगता है कि सरकार और भारतीय जनता पार्टी, दोनों से निवेदन करना चाहिए.
कुछ दिनों में मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी केंद्र सरकार के रूप में अपने दो वर्ष पूरे कर लेगी, लेकिन इन दो वर्षों में अगर हम आर्थिक सुधारों को देखें या देश के सारे लोगों के लिए किए जाने वाले फैसलों की समीक्षा करें, तो हमें बहुत भेदभाव दिखाई देगा.
अभी भी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता या सरकार के मंत्री कांग्रेस के ऊपर बिगड़ी हुई अर्थव्यवस्था का निशाना साध रहे हैं. सवाल यह है कि निशाना साधना राजनीतिक रणनीति हो सकता है, लेकिन व्यवस्था को सुधारना या व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाना तो आ़खिरकार सरकार की ज़िम्मेदारी है. वह सरकार कैसे अच्छी मानी जा सकती है, जो क़दम उठाने में विलंब करे या ऐसे क़दम उठाए, जिनका फायदा स़िर्फ एक पक्ष को हो, बाकी लोगों को न हो.
उदाहरण के तौर पर, बैंकों द्वारा दिया गया 1.14 लाख करोड़ रुपये का ऋण मा़फ कर देना. अंग्रेजी में इसे राइट ऑफ कहते हैं, जिसका मतलब होता है कि ऐसा ऋण, जो वसूला न जा सकता हो और जिसे बैंक बट्टे खाते में डाल देता हो. ये 1.14 लाख करोड़ रुपये उनके पास हैं, जो इस देश में बड़े औद्योगिक घरानों के नाम से जाने जाते हैं. उन्होंने जान-बूझ कर पैसे लिए, आसान शर्तों पर पैसे लिए और उसके बाद उस पैसे को हजम कर गए. और तो और, बैंकों के प्रबंधन की मिलीभगत के चलते शर्तें भी ऐसी रखी गईं कि उक्त ऋण उनसे वसूला ही नहीं जा सकता.
कॉरपोरेट सेक्टर को दिया गया यह तोह़फा बताता है कि केंद्र सरकार अर्थव्यवस्था को और मजबूत करने के बजाय उसे और कमज़ोर करने के रास्ते पर चल पड़ी है. भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं का कहना है कि ऐसा बैंकों की बैलेंस शीट ठीक करने के लिए अति आवश्यक है, अन्यथा वे काम नहीं कर पाएंगे. सवाल यह है कि आप अपनी बैलेंस शीट सुधारने के लिए सरकार से और पैसा मांगते हैं.
सरकार वह पैसा दे देती है या फिर यह तर्क दिया जाता है कि चूंकि बैंकों ने लाभ कमाया, इसलिए वे इस रकम को राइट ऑफ कर सकते हैं. दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि बैंक जो लाभ कमाते हैं, उसका इस्तेमाल कॉरपोरेट घरानों द्वारा हजम किए गए पैसों की भरपाई करने के लिए किया जाता है, न कि देश की आबादी के 90 प्रतिशत हिस्से को बिजली, पानी, सड़क और रा़ेजगार देने के काम में.
यह तर्क मुझे काफी खतरनाक लगता है और धीरे-धीरे यह सवाल वित्त मंत्री जी की अनदेखी के चलते उद्योगपति बनाम किसान के सवाल में तब्दील होता जा रहा है. जब मनमोहन सिंह सरकार के समय किसानों का 60 या 70 हज़ार करोड़ रुपये का ऋण मा़फ हुआ था, तो देश में भूचाल आ गया था. पूरा बैंकिंग सेक्टर और कॉरपोरेट सेक्टर यह कहने लगा था कि इससे अर्थव्यवस्था ठप्प हो जाएगी, आ़िखर ये पैसे कहां से निकलेंगे? लेकिन, अब वही बैंकिंग सेक्टर और कॉरपोरेट सेक्टर ये 1.14 लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ किए जाने के ऊपर बिल्कुल खामोश हैं.
देश का मीडिया यह सवाल नहीं उठा रहा है, विपक्षी नेता भी इस सवाल के ऊपर खामोश हैं. कुल मिलाकर इस बात का डर पैदा हो गया कि देश की अर्थव्यवस्था बिगाड़ने में कांग्रेस भी उतनी ही शामिल है, जितनी भारतीय जनता पार्टी की सरकार. मैं यह सवाल इसलिए उठा रहा हूं, क्योंकि जब कांग्रेस ने किसानों के ऋण मा़फ किए थे, तो बहुत दबाव में मा़फ किए थे, किसानों की आत्महत्या के मद्देनज़र मा़फ किए थे. उसकी जगह अगर कांग्रेस सरकार उन पैसों का इस्तेमाल किसानों की सुविधाएं बढ़ाने, उन्हें सिंचाई के साधन देने और उनके द्वारा अपने लिए बिजली उत्पादन करने की रणनीति बनाने में करती, तो शायद किसानों को ज़्यादा फायदा होता.
वह पैसा जो ऋण मा़फी के लिए दिया गया और वह पैसा, जो किसानों की आत्महत्या के मद्देनज़र उनके परिवार को सहायता के रूप में दिया गया, अगर दोनों को मिला दें, तो हमें उसमें बहुत बड़ी धांधली दिखती है, क्योंकि उसका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला. सरकार की प्राथमिकता कॉरपोरेट सेक्टर है, इसमें तो कोई संदेह नहीं है. लेकिन, सरकार अगर अपनी सबसे अंतिम प्राथमिकता में भी किसानों को नहीं रखेगी, तो वह इस देश के विकास के साथ खिलवाड़ करेगी. हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी खेती है, हमारा किसान है, हमारी उत्पादन क्षमता है और विपरीत परिस्थितियों में भी खुद को ज़िंदा रखने की क्षमता है.
और, यह सब एग्रीकल्चर सेक्टर यानी कृषि क्षेत्र की देन है. लेकिन, वही एग्रीकल्चर सेक्टर-कृषि क्षेत्र श्री अरुण जेटली की योजना या बजट से बिल्कुल बाहर है. खेती में काम आने वाली किसी भी चीज का कोई फायदा किसानों को मिले, यह इशारा बजट नहीं करता. अब जबकि एक बार फिर मोदी सरकार का बजट आने वाला है, तो क्या हम यह उम्मीद करें कि किसानों के लिए उसमें कुछ होगा?
अगर किसानों के लिए इस बजट में कुछ नहीं होता और इसी तरह कॉरपोरेट घरानों के ऋण मा़फ किए जाते रहे, तो इस देश में उद्योगपति-कॉरपोरेट सेक्टर बनाम किसान का सवाल खड़ा होगा. भारतीय जनता पार्टी इसे वोट बैंक की राजनीति कहेगी, लेकिन यह वोट बैंक की राजनीति तब तक नहीं है, जब तक विपक्ष इसके साथ खड़ा न हो. और, विपक्ष भी किसानों के साथ खड़ा होने की आतुरता नहीं दिखा रहा है, न अपनी इच्छाशक्ति दिखा रहा है. इसका मतलब यह है कि किसानों को अपने अधिकारों के लिए खुद खड़ा होना पड़ेगा.
चाहे छोटा किसान हो, मध्यम दर्जे का किसान हो या बड़ी जोत का किसान हो, सभी को अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना पड़ेगा, अन्यथा उनके लड़के नौकरी न पाने की स्थिति में, खेती के लाभकारी न होने की स्थिति में अपराध की तऱफ मुड़ेंगे और खेती के ऊपर धीरे-धीरे उद्योगपतियों का कब्जा होने लगेगा. जो पैसा किसान को खेत बेचने के बदले मिलता है, कोई योजना सामने न होने की वजह से वह उससे उपभोग अथवा विलासिता के साधन खरीद लेता है. नतीजे के तौर पर गांवों में एक नई तरह की प्रजाति पैदा हो रही है, जो अपराध या अराजकता की तऱफ बढ़ रही है.
क्या यह स्थिति ठीक करने के बारे में केंद्र सरकार को नहीं सोचना चाहिए? मुझे लगता है कि सोचना चाहिए. इसलिए हम यह अपील सीधे प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री और भारतीय जनता पार्टी से कर रहे हैं कि यहां सवाल पार्टियों का नहीं है, बल्कि देश की 70 प्रतिशत आबादी से जुड़ी खेती का है. अगर खेती कमज़ोर होगी, अलाभकारी होगी और वह छिनकर पूंजीपतियों के पास जाएगी, तो उसका असर स़िर्फ किसानों पर नहीं पड़ेगा, उसका असर खेती के ऊपर आश्रित मज़दूरों पर भी पड़ेगा. और, अगर दोनों की संख्या आपस में जोड़ दी जाए, तो फिर ऐसा लगता है कि पूरा हिंदुस्तान हमारे प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री की नज़र में है ही नहीं.
उनकी नज़र में स़िर्फ और स़िर्फ कॉरपोरेट सेक्टर है. एक समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कहा गया यह वाक्य कि जब अमीरों को सहायता दी जाती है, तो उसे इनसेंटिव कहते हैं और जब किसानों को सहायता दी जाती है, तो उसे सब्सिडी कहते हैं तथा उनका दूसरा बयान कि यह सरकार कमज़ोर वर्गों, किसानों एवं मज़दूरों के लिए है, दोनों ही बयान आज हास्यास्पद लगते हैं. आ़खिर में यह अपील कर सकता हूं कि प्रधानमंत्री खुद अपने द्वारा कहे हुए उन वाक्यों को दोबारा सुनें. उनकी वीडियो क्लीपिंग्स मौजूद हैं, वह उन्हें दोबारा सुनें. अगर वह उसके हिसाब से अपना बजट बनाते हैं, तो हम प्रधानमंत्री को बधाई दे सकते हैं. लेकिन, अगर अपने उन बयानों के आधार पर प्रधानमंत्री का बजट नहीं आता है, तो आगामी बजट इस देश में विषमताएं पैदा करेगा, सवाल पैदा करेगा, आंदोलन पैदा करेगा और नए संगठन भी पैदा करेगा.