bjpभारत एक ऐसा लोकतंत्र है, जहां हमेशा चुनाव होते रहते हैं. यहां दो आम चुनावों के बीच हर साल तीन या चार राज्यों में चुनाव हो ही जाते हैं. पिछले साल बिहार में महा-गठबंधन की जीत ने इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों की आशाओं और रणनीतियों में रंग भरना शुरू कर दिया है. कांग्रेस ने यह फैसला कर लिया है कि भाजपा को रोकने के लिए बिहार की तरह वह किसी भी पार्टी या गठबंधन में खुशी-खुशी जूनियर पार्टनर की भूमिका में आ सकती है. लिहाज़ा, कम से कम यह कहा जा सकता है कि यूपीए अब समाप्त हो गया है और उसका स्थान महा-गठबंधन ने ले लिया है.

सोनिया गांधी की इस स्वीकारोक्ति कि कांग्रेस अपने बूते पर चुनाव नहीं जीत सकती, ने पार्टी को जीवित और उसके विकास को बचाए रखा है. 1989 में राजीव गांधी ने बहुमत के अभाव के चलते सरकार बनाने से इंकार कर दिया था. दस सालों के बाद सोनिया गांधी ने इस नीति को ख़ारिज कर दिया, जिसके नतीजे में यूपीए का जन्म हुआ. और, 2014 के आम चुनाव में ज़बरदस्त पराजय ने सोनिया गांधी पर यह ज़ाहिर कर दिया कि अब कांग्रेस सबसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी नहीं रही. अब वह हर स्वीकार्य महा-गठबंधन का हिस्सा है.

दरअसल, यह भारतीय लोकतंत्र का मूलभूत पहलू है. भारत कभी भी द्विदलीय लोकतंत्र नहीं रहा. हां, यह ज़रूर है कि यहां एक प्रमुख पार्टी रही है और उसके इर्द-गिर्द कई छोटी-छोटी पार्टियां रही हैं. उनमें से एक-दो को छोड़कर सभी की आकांक्षाएं क्षेत्रीय रही हैं. लेकिन, 1989 से लेकर 2014 तक कोई भी पार्टी ऐसी नहीं थी, जिसे बहुमत हासिल रहा हो. ़िफलहाल भाजपा को अब बहुमत हासिल है. अब सवाल यह है कि पुरानी राष्ट्रीय पार्टी ने अकेले दम पर बहुमत हासिल करने का संघर्ष छोड़ दिया है, तो क्या भाजपा नई राष्ट्रीय पार्टी बन गई है? यह सवाल आज से 2019 तक की चुनाव राजनीति को परिभाषित करेगा.

बिहार चुनाव एक नमूना हो सकता है, लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि हर राज्य में उसकी पुनरावृत्ति हो. 1967 से 1989 के दरम्यान कांग्रेस विरोधी गठबंधन बनाने के कई प्रयास हुए, लेकिन आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की सरकार को छोड़कर (हालांकि, यह सरकार भी ज़्यादा दिनों तक नहीं चल सकी थी), उनमें से कोई भी कामयाब नहीं हो सका. क्या यह संभव है कि 2014 के बाद भाजपा कांग्रेस का स्थान ले ले और कांग्रेस विरोधी गोलबंदी भाजपा विरोधी गोलबंदी में बदल जाए?

ज़ाहिर है, ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. साथ ही यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि भाजपा नई राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए कितनी गंभीर है. नरेंद्र मोदी को पता है कि पूरे देश में स्थापित रहने के लिए क्या करना पड़ता है. 2014 में उन्होंने अपनी छवि के विपरीत सबका साथ-सबका विकास की मध्यमार्गी (सन्टीरिस्ट) नीति अपनाई और वह मोटे तौर पर एक समावेशी मध्यमार्गी रुख अपनाए हुए हैं, लेकिन इस मामले में उनकी पार्टी अपने नेता से काफी पीछे रह गई है. उसमें कुछ तत्व ऐसे हैं, जिनका व्यवहार आत्मघाती है. उन्हें केंद्र की सत्ता पर बने रहने में कोई दिलचस्पी नहीं है. वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे हमेशा के लिए सत्ता पर आसीन हो गए हैं. किसी खास विचारधारा वाली पार्टी के लिए इस तरह का व्यवहार कोई अनोखी बात नहीं है.

ब्रिटेन में लेबर पार्टी को बहुमत हासिल करने में 45 साल लग गए थे. 1945 के पहले संसद सत्र की शुरुआत लेबर पार्टी ने परंपरा को तोड़ते हुए वामपंथ से जुड़े दि रेड फ्लैग गीत से की थी. उसके बाद उसे पूर्ण बहुमत हासिल करने में पूरे पचास साल लगे. पिछले दो चुनावों में उसे फिर से लगातार हार का सामना करना पड़ा. ऐसा भाजपा के साथ भी हो सकता है. 2004 में पार्टी को अति आत्मविश्वास ने हराया था, 2019 में भी वह खुद को उलझा सकती है. लेकिन, इसके बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा अक्ल से काम ले और अगले 50 सालों तक के लिए नई राष्ट्रीय पार्टी बनी रहे. 

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here