केंद्रीय बजट आंकड़ों की बाजीगरी है या धोखाधड़ी, इसे समझने के लिए कुछ अंदरूनी जानकारियां हासिल करें और बजट की गहराई से समीक्षा करें तो इसे लेकर इस्तेमाल हो रहे दोनों जुमले सही साबित होते हैं. हम बजट के विस्तार में जाएं उसके पहले यह जान लें कि देश में जमा विदेशी पूंजी बड़ी तेज गति से बाहर जा रही है, जबकि केंद्र सरकार यह कह रही है कि विदेशी मुद्रा कोष में इजाफा हो रहा है.
विदेशी मुद्रा कोष में बढ़ोत्तरी का दावा करने वाली केंद्र सरकार कहीं पेट्रोलियम पदार्थों की लगातार गिर रही कीमतों को विदेशी मुद्रा कोष में बढ़ोत्तरी दिखाने का इंटरप्रेटेशन तो नहीं कर रही! क्योंकि तथ्य यह है कि भारत के कुछ बड़े राष्ट्रीयकृत बैंकों की मिलीभगत से कुछ बड़ी कंपनियां देश से विदेशी मुद्रा निकाल कर विदेशों में भेज रही हैं. लेकिन देश के आर्थिक नीति-नियंताओं को इसका तनिक भी भान नहीं है. वैसे तो बजट हमेशा से आंकड़ों की जादूगरी ही रहा है.
कम से कम आम आदमी के लिए यह एक ऐसा जटिल विषय रहा है, जिसे समझना आसान काम नहीं है. आम बजट 2016-17 के बारे में यह दावा किया जा रहा है कि यह गांव-गरीबों का बजट है. खेती-किसानी का बजट है. आम आदमी का बजट है. यह भी दावा हो रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर है. लेकिन, क्या सचमुच यह सब ऐसा ही है, जैसा देखा और दिखाया जा रहा है? क्या सचमुच इस बजट से किसानों का भला होने वाला है? क्या यह बजट देश की अर्थव्यवस्था के बेहतर स्वास्थ्य को दर्शाता है? इन्हीं मुद्दों की हम आगे पड़ताल करेंगे.
हम देश में विदेशी निवेश के आंकड़ों पर नज़र डालें तो वहां कोई उत्साहजनक दृश्य नहीं दिखाई देता. सबसे पहले इस आंकड़े पर एक नजर डालिए. फिर हम समझने की कोशिश करेंगे कि आखिर ये आंकड़े असलियत में क्या कहते हैं-
इस सूची से साफ़-साफ़ दिख रहा है कि विदेशी पूंजी के आंतरिक प्रवाह में बड़ी कमी आई है और जितनी पूंजी देश में आ नहीं रही, उससे ज्यादा देश के बाहर जा रही है. इस आंकड़े को ऐसे समझ सकते हैं कि कोई भी विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआईआई) भारत में जब पैसा लगाता है तो वह दो क्षेत्रों में पैसा लगाता है. एक तो इक्विटी और दूसरा ऋण के क्षेत्र में.
इक्विटी में जो पैसा लगता है, वह पैसा स्टॉक मार्केट में जाता है और फिर वहां से वह पैसा विभिन्न कंपनियों में लगता है. इस सब से देश भर में एक आर्थिक वातावरण तैयार होता है. विदेशी संस्थागत निवेशक किसी भी देश में पैसा तभी लगाता है, जब उसे उम्मीद हो कि आने वाले सालों में फायदा मिलने वाला है. 2010 से ले कर 2014 तक भारत में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने खूब सारा पैसा लगाया.
लेकिन उपरोक्त आंकड़ों से पता चलता है कि 2015-16 में विदेशी संस्थागत निवेशकों ने इक्विटी समेत ऋण क्षेत्र से भरपूर पैसा निकाला और अपने देश वापस ले गए. 2015-16 के आंकड़ों के मुताबिक इक्विटी में से 35315 करोड़ रुपये और ऋण सेक्टर से 2528 करोड़ रुपये की निकासी हुई है. इस साल में कुल 37843 करोड़ रुपये विदेशी संस्थागत निवेशक भारत से निकाल कर ले गए हैं. गौरतलब है कि विदेशी संस्थागत निवेशक यानी एफआईआई और एफडीआई अर्थात विदेशी प्रत्यक्ष निवेश दो अलग-अलग रास्ते हैं. एफडीआई के बढ़ने की बात भले ही की जा रही हो लेकिन विदेशी संस्थागत निवेश बड़ी मात्रा में कम हुआ है.
सूत्रों के मुताबिक भारत की ही एक कम्पनी (कोलकाता आधारित) ने बजट आने के ठीक पहले करीब 500 करोड़ रुपये भारत से निकाल कर दुबई और सिंगापुर भेज दिए. इसमें एक बड़े राष्ट्रीयकृत बैंक की संदेहास्पद भूमिका रही. जबकि उस बैंक के साथ-साथ रिजर्व बैंक और विजिलेंस को भी इस बारे में पहले ही इत्तिला कर दी गई थी. इसका सीधा अर्थ है कि विदेशी निवेशकों का भारत की अर्थव्यवस्था से भरोसा उठा है.
जहां तक विदेशी मुद्रा कोष बढ़ने की बात है तो उसमें भी आंकड़ों की बाजीगरी की गई मालूम पड़ती है. ऐसा इसलिए, क्योंकि पिछले दो सालों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्य में भारी कमी आई है. जाहिर है, इससे हमें पेट्रोल खरीदने के लिए कम विदेशी मुद्रा देनी पड़ी है. इससे हमारा विदेशी मुद्रा का रिजर्व निश्चित तौर पर बढ़ा होगा. यदि हम समग्र रूप से विदेशी मुद्रा भंडार को देखना चाहते हैं तो हमें इसके लिए एफआईआई के निवेश की सच्चाई को भी देखना होगा.
सभी बजटों की तरह इस बजट में भी गुण-दोष की व्याख्या की जा सकती है, जो अलग-अलग सोच के अनुसार अतिवादी विरोध या समर्थन की ओर जा सकती है. इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि मोदी सरकार का प्रत्येक बजट इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि कई दशकों के बाद (1984 के चुनावों के बाद) केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है और अब यह कहना मुश्किल है कि दोबारा इस तरह बहुमत की सरकार फिर बन पाएगी या नहीं. पूर्ण बहुमत के कारण वित्त मंत्री अरुण जेटली के समक्ष यह विवशता नहीं थी कि वह बजट को लेकर विभिन्न सहयोगी दलों की मांगों और जरूरतों के अनुसार संतुलन बिठाते.
उन्हें तो बजट को सिर्फ निचले सदन यानी लोकसभा से ही पास कराना था, जहां वर्तमान सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त है. लिहाजा, सरकार के पास इस बात का पूरा मौका था कि वह देशहित और नागरिकों के हित में सटीक और सकारात्मक कदम उठाती. परन्तु बजट में ऐसा कोई नया विज़न नहीं है जो इस बहुमत का सही इस्तेमाल करते हुए भारत की अर्थव्यवस्था के लिए मील का पत्थर साबित हो. अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए प्रभावी कदम उठाने के बजाय सिर्फ पुराने ढर्रों को बरकरार रख कर केंद्र सरकार ने इस सुनहरे मौके को गंवा दिया.
इस बजट को किसानों का बजट कहा जा रहा है. अब, सवाल उठता है कि यह वर्तमान सरकार की समझ का नतीजा है या मजबूरी का? सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) पर नज़र डालते ही स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है कि उद्योग धंधे, निर्माण इकाइयां बंद हो रही हैं और व्यापारिक गतिविधियों के लिए निराशाजनक माहौल है. इसके साथ वर्ष 2015-16 के दौरान विदेशी संस्थागत निवेशकों ने निवेश बढ़ाने के बजाय 37843 करोड़ रुपये निकाल लिए. किसी भी अन्य क्षेत्र में सरकार द्वारा लगाया पैसा कोई परिणाम नहीं देता. इसलिए, मजबूरन आज फिर सरकार को कृषि और कृषि आधारित उद्योगों और किसानों की शरण में आना पड़ा है.
सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है कि चालू खाता घाटे में कमी आई है और चालू खाता घाटा 18.4 बिलियन से घट कर 16.4 बिलियन हो गया है, जो जीडीपी का 1.4 फीसदी है. गत कई महीनों से विश्व बाजारों में पेट्रोल की कीमतों में आ रही भारी कमी के कारण सरकार को मिलने वाले राजस्व में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है. खुद भारत सरकार के पेट्रोलियम मंत्रालय की वेबसाइट के मुताबिक वर्तमान वित्त वर्ष में सरकार 2.14 लाख करोड़ बचा चुकी है.
जबकि चालू घाटा सिर्फ 4 बिलियन यानी 26 हज़ार करोड़ रुपये कम हुआ है, लेकिन बचा हुआ 1.88 लाख करोड़ कहीं भी बजट में प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है. इसकी वजह क्या है? इसमें मोदी सरकार की पारदर्शिता कहां गई? सिर्फ यही नहीं, बल्कि पिछले बजट में घोषित की गई अनेक योजनाओं में आवंटित धनराशि का एक बड़ा भाग खर्च नहीं हो सका और वह पूंजी भी भारत सरकार के पास ही सुरक्षित होनी चाहिए. इन योजनाओं की बड़ी राशि के बचे होने के बावजूद घाटे का बजट प्रस्तुत करना अचंभित करता है और कुछ अनुत्तरित सवाल भी खड़े करता है.
बहरहाल, ऐसी हालत में इस बजट में देश की अर्थव्यवस्था की धुरी कृषि जगत और कृषि आधारित छोटे उद्योगों की सुध ली गई है, ऐसा दर्शाया गया है. लेकिन, मजेदार बात यह है कि जिसे कृषि आधारित और किसानों का बजट कहा जा रहा उसमें 19,00,000 करोड़ में से महज 36,000 करोड़ रुपये का प्रावधान कृषि के लिए किया गया है जो दो फीसदी के आस-पास बैठता है. सरकार का दावा है कि आगे आने वाले छह सालों में किसान की आय दो गुनी कर दी जाएगी. यह दावा ही अपने आप में अस्पष्ट है, क्योंकि आठ सालों में तो बैंक की एफडी या गांव के पोस्ट ऑफिस में भी पैसा दोगुना हो जाता है तो छह सालों में किसान की आय दोगुनी करने का वायदा अपने आप में एक मजाक है.
बजट के प्रावधानों में एक भारी विरोधाभास तब साफ़-साफ़ दिखता है, जब एक तरफ कृषि क्षेत्र के विकास, कृषि आधारित उद्योगों को संबल, कृषि क्षेत्र में ढांचागत सुधार और किसानों की आय बढाने के दावे किए जा रहे हैं और दूसरी ओर मनरेगा में निवेश को 4,000 करोड़ बढ़ा कर 34,000 करोड़ किया जा रहा है. अब सवाल उठता है कि जब खेती और किसानी में इतने सुधार होने वाले हैं और किसानों की आय में वृद्धि होने वाली है
तो फिर ये चालीस लाख परिवार कौन से हैं जिनको मनरेगा में शामिल किया जा रहा है? चालीस लाख परिवारों का मतलब यह हुआ कि कम से कम दो करोड़ लोग और मनरेगा में शामिल किए जाएंगे. अगर कृषि क्षेत्र में विकास होता है तो इतनी बड़ी तादाद में बेरोजगार कहां से आएंगे या सरकार को अपने ही दावों पर भरोसा नहीं है? ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर या ढांचागत सुधारों के लिए दी गई राशि सराहनीय है.
परन्तु यह भी एक तथ्य है कि गांव का इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण गांव को ही ध्यान में रख कर किया जाता है. लेकिन, उसका तात्कालिक लाभ निर्माण करने वाली वाली कंपनी ही उठा लेती है. मेक इन इंडिया पर वित्त मंत्री की बातें काफी उत्साहजनक थीं और दालों की कीमत कम करने तथा उपलब्धता बढ़ने से संबंधित प्रावधानों ने भी सकारात्मकता का संचार किया. लेकिन वर्ष 2015 में जारी वैश्विक भुखमरी सूची में तीन सबसे बुरे हालत वाले देशों में से एक भारत के के बजट में कुपोषण, शिशु कुपोषण और महिला कुपोषण से निबटने के लिए कोई समुचित और प्रभावी कदम का अभाव भारी निराशा की तरफ ले जाता है.
अर्थव्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने और सरकार के विभिन्न जरूरी कार्यकलापों को सम्पन्न करने के लिए कर (टैक्स) ही एक महत्वपूर्ण जरिया होते हैं. इन करों का एक बड़ा भाग नागरिकों द्वारा दिए गए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष करों से आता है. व्यापारी वर्ग का इसमें एक महत्वपूर्ण योगदान होता है, लेकिन वर्तमान कर-व्यवस्था ऐसी है जिसमें व्यापारी कर जमा करके राष्ट्र सेवा में अपना योगदान दे कर गौरवान्वित होने के बजाय सब कुछ छोड़ कर उससे भागना ज्यादा अच्छा समझता है.
जटिल कर प्रणाली और ऊपर से कर जमा करने वाली एजेंसियों का असहयोगपूर्ण रवैया, व्यापार और व्यापारी दोनों की कमर तोड़ देता है. आमूल-चूल कर सुधारों, कर वसूलने वाली एजेंसी के सहयोगपूर्ण और सुव्यवस्थित तरीके के बगैर हम व्यापारी वर्ग को देश के निर्माण में सक्रिय योगदान देने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते.
देश की अर्थव्यवस्था की सच्चाई जानने के लिए हमें आंकड़ों के जाल में उलझने की जरूरत नहीं है, बल्कि बंद होते उद्योग-धंधे, परेशान व्यापारी और बदहाल किसान ही अर्थव्यवस्था की सच्चाई बयां कर रहे हैं. वित्त मंत्री ने अपने बजट के माध्यम से उनको संबोधित नहीं किया. कंगाल होते व्यापारियों और बदहाली के शिकार किसानों के लिए कोई ठोस योजना नहीं है.
जिंदगी का कीमती समय खपा कर, खून पसीना एक करके लगाई हुई औद्योगिक इकाइयां बंद हो चुकी हैं या बंद होने की कगार पर खड़ी हैं, लेकिन इन अनगिनत ओद्योगिक इकाइयों को पुनर्जीवित करने के लिए बजट में कोई भी योजना नहीं है. आत्महत्या करते, कुपोषण और मुसीबतों से जूझते किसानों के लिए कोई ठोस योजना नहीं है.
आयकर व प्रोविडेंट फंड के प्रमुख बिंदु
- पांच लाख रुपये की आमदनी पर कर छूट 2,000 रुपये से बढ़कर 5,000 रुपये.
- मकान किराया भत्ता पर कर छूट 24,000 रुपये से बढ़कर 60,000 रुपये.
- 50 लाख रुपये तक का घर ख़रीदने पर 50 हज़ार रुपये तक की छूट.
- एनपीएस के तहत मिली रकम का 40 प्रतिशत हिस्सा अब टैक्स के दायरे से बाहर होगा, पहले एनपीएस की पूरी रकम टैक्स दायरे में थी.
- ईपीएफ़ निकालते समय अब यह राशि पहले की तरह टैक्स के दायरे से बाहर नहीं होगी, बल्कि सिर्फ़ 40 प्रतिशत राशि पर ही टैक्स छूट मिलेगी (15 हज़ार रुपये या उससे कम वेतन पाने वालों पर ये शर्तें लागू नहीं होंगी).
- मान्यताप्राप्त भविष्यनिधि में नियोक्ता (कंपनी) के वार्षिक अंशदान की अधिकतम सीमा डेढ़ लाख रुपये तय कर दी गई है.
- नियोक्ता द्वारा ईपीएफ में दिए जाने वाले 8.33 प्रतिशत हिस्से को सरकार देगी. सरकार यह योगदान सभी नए कर्मचारियों के पहले तीन सालों की नौकरी में देगी.
क्या है बजट
सबसे पहले केंद्र सरकार के इस बहुप्रतीक्षित बजट के कुछ खास बिन्दुओं पर एक नज़र डालते हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली के अनुसार अर्थव्यवस्था में 7.6 फ़ीसदी की तेज़ी आई है और चालू खाता घाटे में भी कमी आई है. विदेशी मुद्रा भंडार 350 अरब डॉलर तक पहुंच गया है और राजस्व घाटा 2.5 फ़ीसदी रहेगा. इस बजट को किसानों और ग्रामीण जन-जीवन पर आधारित बजट के रूप में पेश किया गया है.
बजट के विशेष प्रावधान आवंटन और घोषणाएं
- ग्रामीण विकास के लिए 87000 करोड़ रुपये.
- सड़कों और हाइवेज़ के लिए 97 हज़ार करोड़ रुपए (वित्त वर्ष में नेशनल हाइवेज़ को 10000 किलोमीटर और स्टेट हाइवेज़ को 50 हज़ार किलोमीटर तक बढ़ाने की योजना).
- मनरेगा के लिए 38500 करोड़ रुपये.
- प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 19,000 करोड़ रुपये.
- किसानों पर ऋण का बोझ कम करने के लिए 15,000 करोड़ रुपये.
- बीपीएल परिवारों को एलपीजी कनेक्शन देने के लिए 2,000 करोड़ रुपये (बीपीएल परिवारों के लिए पांच साल की योजना).
- नई स्वास्थ्य सुरक्षा योजना की घोषणा (प्रत्येक परिवार को एक लाख रुपये का हेल्थ कवर, वरिष्ठ नागरिकों के लिए बड़ी हुई सीमा).
- मार्च 2017 तक सस्ते राशन की तीन लाख नई दुकानें.
- स्वच्छ भारत अभियान के तहत कचरे से खाद बनाने की योजना.
नए सेस से जनता के पास क्या बचेगा शेष
क्लीन एनर्जी सेस – कोयला और लिग्नाइट पर अधिभार 200 रुपये प्रति टन से बढ़ाकर 400 रुपये प्रति टन.
प्रदूषण सेस – छोटी पेट्रोल, एलपीजी, सीएनजी कारों पर 1 प्रतिशत, डीज़ल कारों पर 2.5 प्रतिशत, महंगी कारों पर 4 प्रतिशत.
कृषि कल्याण सेस – सभी सेवाओं पर 0.5 प्रतिशत.
विभिन्न मंत्रालयों द्वारा लगाए गए 13 सेस खत्म.
आर्थिक ढांचे को खोखला कर रहा नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स
एनपीए से लड़खड़ाते हुए बैंकों के लिए जो प्रावधान किया गया है वह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है. एनपीए या या ऐसे कर्ज, जिनका चुकाया जाना संभव नहीं है, एक राष्ट्रीय संकट बन चुका है. एनपीए का इतनी बड़ी तादाद में होना न सिर्फ अर्थव्यवस्था के संकट की ओर इशारा करता है बल्कि व्यापार में आ गए भारी गतिरोध को भी उजागर करता है.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल 4,50,000 लाख करोड़ रुपया कर्जे के रूप में फंसा है. कुछ प्रमुख बैंकों के एनपीए का जायजा लेते चलें :
बैंक एनपीए
स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया 72791
बैंक ऑफ़ बड़ौदा 38934
बैंक ऑफ़ इंडिया 36519
केनरा बैंक 19813
यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया 18495
कीमतों में बढ़ोत्तरी व कमी
- बीड़ी को छोड़कर तंबाकू उत्पादों पर उत्पाद कर 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत.
- सोने और हीरे के जवाहरातों पर उत्पाद कर में 1 प्रतिशत की बढ़ोतरी.
- सॉफ्ट ड्रिंक और मिनरल वाटर भी 3 प्रतिशत तक महंगे.
- 10 लाख रुपये से अधिक कीमत की कारों पर अब एक प्रतिशत अधिक कर लगेगा. हालांकि छोटी कारों को भी नहीं बख्शा गया है और इन्हें सेस के दायरे में लाया गया है.
- 1,000 रुपये से अधिक मूल्य के ब्रांडेड कपड़े और रेडिमेड गारमेंट्स, एल्यूमीनियम फॉइल, एयर टिकट, प्लास्टिक बैग, रोपवे, आयातित कृत्रिम ज्वैलरी, औद्योगिक सोलर वाटर हीटर, कानूनी सेवाएं, आयातित गोल्फ़ कार भी महंगी.
- लॉटरी टिकट, पैकर्स एंड मूवर्स और सोने की छड़ भी महंगी.
- सर्विस टैक्स 14.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 15 प्रतिशत.
- चप्पलें, सोलर लैंप, राउटर, ब्रॉडबैंड मॉडेम, सेट टॉप बॉक्स, डिज़िटल वीडियो रिकॉर्डर, सीसीटीवी कैमरा, हाइब्रिड इलेक्ट्रिक वाहन, डायलसिस के उपकरण, 60 वर्गमीटर तक के सस्ते मकान, पेंशन प्लान, माइक्रोवेव ओवन, सैनेटरी पैड वगैरह सस्ते होंगे.