अभी कुछ दिनों पहले मन में यह बात आई कि वेदों को पढ़कर देखा जाए कि उसे संदर्भित करके जो बातें कही जाती हैं, उनमें कितनी सच्चाई है. इसके अलावा यह जानने की इच्छा भी प्रबल थी कि वेद में तमाम बातें किस संदर्भ और किन स्थितियों में कही गई हैं. लंबे समय से वेदों की व्याख्या इस तरह से की गई है, गोया उसमें पुरातनपंथी और पोंगापंथी के अलावा कुछ और नहीं है. इसी जिज्ञासा ने वेद खरीदने को उकसाया. प्रभात प्रकाशन के पीयूष जी से बात की, तो उन्होंने चारो वेदों के नौ खंड उपलब्ध करा दिए. इन नौ खंडों को देखकर वेदों के प्रति उत्सुकता थोड़ी कम हो गई. पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था. महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा किए गए हिंदी भाष्य को आर्य प्रकाशन दिल्ली ने छापा है. अचानक एक दिन ऋग्वेद पढ़ना शुरू किया. जब पढ़ना शुरू किया, तो इस बात का एहसास हुआ कि छपे अक्षर आजकल जितने साफ़-सुथरे नहीं हैं. वे भी कापी पहले बने हुए अक्षरों से छापे गए हैं. ये ग्रंथ उस जमाने के छपे हुए हैं, जब लीथो प्रेस, लेटर प्रेस आदि का इस्तेमाल होता होगा. बहुत संभव है कि उसी जमाने में छपाई के लिए बनाए गए निगेटिव का इस्तेमाल अब तक हो रहा है.
छपाई की तकनीक के बारे में बहुत जानकारी नहीं है, लेकिन इतना तो दिख रहा था कि भीतर के पन्नों की छपाई पुराने स्टाइल के अक्षरों में की गई थी. ऋग्वेद के पहले खंड में जो प्रकाशकीय वक्तव्य का पन्ना है, वह अच्छे और साफ़ अक्षरों में छपा है. पढ़ने में आंखों को सहूलियत होती है, क्योंकि वे कंप्यूटर से निकाले गए अक्षर हैं. लेकिन, जैसे ही आप आगे बढ़ते हैं और अगले पन्ने पर पहुंचते हैं, तो आपकी नज़र को झटका लगेगा, पढ़ने के लिए आंखों को मेहनत करनी पड़ेगी, क्योंकि छपाई पुराने अक्षरों में शुरू हो जाती है. इस वजह से भी वेदों को पढ़ने की गति थोड़ी धीमी पड़ गई. इसी तरह से हिंदी की महान कृतियां छापने वाली नागिरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से छपी एक और किताब हाल में मुझे एक अन्य मित्र वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी जी ने भिजवाई. यह किताब है, नागिरी प्रचारिणी सभा के शास्त्र विज्ञान ग्रंथमाला शृंखला के अंतर्गत छपी हिंदी शब्दानुशासन, जिसे पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है. पंडित किशोरीदास वाजपेयी द्वारा लिखी यह किताब इतनी अहम है कि हिंदी के सभी छात्रों को इसे अवश्य पढ़ना चाहिए. छह सौ से ज़्यादा पृष्ठों की यह किताब लगभग अपठनीय है. कागज रद्दी और छपाई घटिया. जैसे ही आप पढ़ना शुरू करते हैं, तो पन्ने हाथ में आने शुरू हो जाते हैं. लगता है कि निगेटिव से इतनी बार छपाई हुई है कि वे घिस गए हैं, लेकिन इतनी अहम किताब की सुध लेने वाला कोई नहीं है.
यह हाल स़िर्फ इन्हीं दो किताबों का नहीं है. साठ के दशक से पहले छपी ज़्यादातर किताबें इसी हाल में छप और बिक रही हैं. तकनीक के इस उन्नत दौर में इतनी अहम किताबों की यह दुर्दशा देखकर मन बेचैन हो उठा. मन में कई शंकाएं और सवाल खड़े होने लगे. जैसे कि हमारे देश में अपनी विरासत संभालने के लिए गंभीर उद्यम क्यों नहीं होता है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय का 66 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा का बजट है. मंत्रालय की कई योजनाएं चलती रहती हैं. देश में कई अकादमियां और हिंदी विश्वविद्यालय हैं, जहां से किताबों का प्रकाशन होता है. नेशनल बुक ट्रस्ट जैसा भारी-भरकम महकमा है, जिसे सरकार से करोड़ों रुपये का अनुदान मिलता है. नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना का उद्देश्य देश में हिंदी एवं अंग्रेजी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के बेहतर साहित्य का प्रकाशन और उन्हें कम क़ीमत पर उपलब्ध कराना था. आज़ादी के दस साल बाद यानी 1957 में इसकी स्थापना हुई थी. इसका एक उद्देश्य देश में पुस्तक संस्कृति विकसित करना भी था. पुस्तक संस्कृति के विकास का एक अहम काम यह भी है कि हम पूर्व प्रकाशित अहम एवं ऐतिहासिक महत्व की पुस्तकों को नए जमाने के हिसाब से छापकर उन्हें पाठकों तक पहुंचाने का उपक्रम करें.
नेशनल बुक ट्रस्ट इस काम में आंशिक रूप से ही सफल हो सका है. पुस्तक मेलों के आयोजन में तो उसने महारथ हासिल कर ली है, लेकिन पुस्तकों के प्रकाशन, संरक्षण एवं संवर्धन में ढिलाई है. दूसरी तरफ़ साहित्य अकादमी अपने मूल उद्देश्यों से भटकती हुई पुस्तक प्रकाशन के क्षेत्र में उतर तो गई, लेकिन वहां इतना लंबा बैकलॉग है कि अनुवादक से लेकर लेखक तक खिन्न हैं. अनुवादकों को पांच-पांच साल पहले अनुवाद करने का मानदेय मिल चुका है, लेकिन किताबों के प्रकाशन की स्थिति का पता नहीं है. ऐसे माहौल में उससे पुरानी किताबों के संरक्षण की अपेक्षा व्यर्थ है. इसी तरह महाराष्ट्र के वर्धा में महात्मा गांधी के नाम पर स्थापित हिंदी विश्वविद्यालय भी किताबें छापता और छपवाता है. विश्वविद्यालय की ओर से भी इस दिशा में कोई पहल हुई हो, ऐसा ज्ञात नहीं है. गांधी जी ने विपुल लेखन किया. ज़्यादातर हिंदी में. उनके लेखन को नए पाठकों तक पहुंचाने के लिए नई साज-सज्जा के साथ किताबें छापने का उपक्रम इस विश्वविद्यालय से नहीं हुआ. समाज विज्ञान कोष से लेकर शब्द कोष बनवाने के लिए लाखों रुपये पानी की तरह बहाए गए, लेकिन अपनी विरासत संभालने के लिए इन संस्थाओं ने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया.
अब बचते हैं निजी प्रकाशन संस्थान. इस दिशा में निजी प्रकाशन संस्थानों से ही उम्मीद जगती है. कई पुस्तकों के कॉपीराइट से मुक्त होने के बाद हिंदी के अलग-अलग प्रकाशकों ने उन्हें बेहतर साज-सज्जा के साथ छापा, लेकिन कई पुस्तकों पर निजी प्रकाशकों की नज़र भी नहीं गई है. हालांकि निजी प्रकाशकों ने भी अपनी पहल पर अपने प्रोडक्ट को बेहतर बनाने के लिए खास काम किया नहीं है. नामवर सिंह से लेकर श्रीलाल शुक्ल की किताबें भी पुराने लेटर में छपी हुई मिल और बिक रही हैं. ज़रूरत इस बात की है कि सरकारी संस्थाएं इस काम में आगे आएं और निजी प्रकाशन संस्थाओं के सहयोग से पुरानी किताबों के पुनर्प्रकाशन का काम अंजाम दें. साहित्य अकादमी, नेशनल बुक ट्रस्ट और हिंदी विश्वविद्यालय को इस तरह के काम के लिए अलग से बजट का प्रावधान करना चाहिए. इसके कई लाभ हैं. एक तो ऐतिहासिक कृतियां बेहतर तरीके से संरक्षित हो जाएंगी, दूसरे यह कि नए पाठकों को पढ़ने में सहूलियत होगी.
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