भोपाल। अमझेरा से जीराबाद और जीराबाद से मनावर होते हुए बाकानेर तक आधा सैंकड़ा से ज्यादा सीमेंट फैक्ट्रियां। काम करने के लिए दसों तरह की सरकारी पाबंदियां और पचासों तरह के नियम मौजूद हैं। शुरूआत से पहले कागजों पर हर बात की सहमति और रजामंदी, लेकिन एक बार काम शुरू हुआ तो नियमों की धज्जियां उड़ते हुए नजर आती हैं। न फैक्ट्री मालिकों को आमजन की जीवन दूषित होने को लेकर कोई चिंता है और न जेब गर्म कर चुके अफसरों की इस तरफ कोई फिक्र। नतीजा यह है कि लगातार बढ़ रहीं सीमेंटी फैक्ट्रियों ने इस पूरे इलाके को प्रदूषण का टापू बनाकर रख दिया है। दसों तरह की बीमारियों में जीने को मजबूर लोगों की आवाज जिम्मेदारों तक पहुंचने से पहले अफसरों-नेताओं की आवाज मोटी दक्षिणा से दबा दी जाती है।
धार जिले की सबसे बड़ी तेहसील माने जाने वाले मनावर में 90 के दशक में सीमेंट फैक्ट्रियों की आमद हुई। धार सीमेंट, महेन्द्र सीमेंट, गाजवा सीमेंट जैसी आधा दर्जन फैक्ट्रियों ने इस दौरान जमीन पर अपना वजूद कायम किया। जिला मुख्यालय से दूर बसे इलाके में सीमेंट के लिए प्रचूर पदार्थ की मौजूदगी ने इस क्षेत्र को सीमेंट फैक्ट्रियों का गढ़ बना दिया। क्षेत्र में रोजगारात्मक विकास की कहानी के साथ शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार 30 साल बाद भी जारी है और यहां सीमेंट प्लांट डलने का काम अब भी तेजी पर है। बड़े उद्योग घरानों से जुड़े अल्ट्राटैक और सदगुरु सीमेंट अपने प्रोजेक्ट के साथ यहां मौजूद हैं।
न मिला रोजगार, न हुआ विकास
सीमेंट फैक्ट्रियों की श्रृंखला से मनावर से लेकर जिला मुख्यालय धार तक को रोजगार की बड़ी सहायता मिलने के ख्वाब संजोए गए थे। लेकिन बिहार से लेकर दक्षिण भारत तक से आयातित किए गए मजदूर और देश के बड़े शहरों से बुलाए गए शिक्षित और प्रशिक्षित अधिकारियों ने न तो इस क्षेत्र को कोई लाभ के हालात बनाए और न ही क्षेत्र की बेरोजगारी को दूर किया है। करीब ही स्थित प्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर से संचालित होने वाले फैक्ट्रियों के मुख्यालय के कारण भी छोटी नौकरियों का लाभ भी आमजन के हाथ नहीं आ पाया।
नियमों की उड़ती धज्जियां
क्षेत्र की जनता को प्रदूषण से आजाद रखने से लेकर वर्कर्स के लिए जरूरी सुविधाएं जुटाने के दसों तरह के नियम और शर्तें आयद होने के बाद भी बड़े औद्योगिक घरानों से जुड़े रसूखदार कारोबारियों ने नियमों को हवा में उड़ा रखा है। सूत्रों का कहना है कि क्षेत्र में स्थापित सदगुरु और अल्ट्राटैक सीमेंट फैक्ट्रियों ने नियमों को दरकिनार कर न तो अस्पताल की स्थापना की है और न ही स्कूल का निर्माण किया है। नतीजा यह है कि सीमेंट फैक्ट्रियों में अपनी आंतडिय़ों को बीमार कर रहे मजदूरों से लेकर कर्मचारियों तक के परिवारों को न तो उचित इलाज मिल पा रहा है और न ही उनके बच्चों को मुनासिब शिक्षा ही नसीब हो पा रही है।
प्रदूषण ने छोटी कर दी लाइफ लाइन
सीमेंट फैक्ट्रियों का गढ़ बन चुके एक बड़े क्षेत्र में घरों की छतों से लेकर पेड़-पौधों की रूह तक सीमेंट, धूल, बारीक गिट्टी आदि के कण दिखाई देते हैं। लोगों के घरों के अंदर तक पहुंचकर और उनके शरीर के भीतर तक समाकर यह कण बीमारियों का घर बना चुके हैं। फेफड़े से लेकर सांस की बीमारी तक और अस्थमा से लेकर दिलों को कमजोर करने की वजह इन फैक्ट्रियों से उठता ज्वर बन चुका है। क्षेत्र के पर्यावरण को असंतुलित कर इन फैक्ट्रियों ने यहां बारिश के हालात कमजोर कर यहां की हरियाली को भी लील लिया और यहां की पथरीली जमीन पर होने वाली छोटी खेती-किसानी के रास्ते भी रोक दिए हैं।
हो रही महज खानापूर्ति
मप्र प्रदूषण नियंत्रण मंडल सारे हालात से वाकिफ होने के बावजूद कागजों पर अपनी फिक्र जताकर खामोश दिखाई दे रहा है। बोर्ड ने इन फैक्ट्रियों से होने वाले प्रदूषण को लेकर की जाने वाली आपत्तियां लोगों से बुलवाई हैं। 29 जुलाई को अखबारों में प्रकाशित विज्ञप्ति के आधार पर लोगों से कहा गया है कि वे एक माह के भीतर अपनी आपत्तियां बोर्ड को दर्ज करवा सकते हैं। लेकिन इन आपत्तियों के लिए लोगों को इंदौर या जिला मुख्यालय धार तक जाने की मजबूरी आयद कर दी गई है। सूत्रों का कहना है कि क्षेत्र में सीमेंट फैक्ट्रियों से उठने वाले प्रदूषण से मंडल नावाकिफ नहीं है, बावजूद इसके गुपचुप तरीके से होने वाली कार्यवाहियों के बीच फैक्ट्री मालिकों को अपनी मनमानी करने की छूट दे दी जाती है। क्षेत्रीय लोगों द्वारा लगातार शिकायत करने के बाद भी इनके खिलाफ किसी तरह की कार्यवाही न होना भी उद्योगपतियों और अफसरों में सांठगांठ होने को साबित करता दिखाई देता है।
खान अशु, भोपाल ब्युरो