बिहार की सूरत व सेहत संवारने का सेहरा चाहे जिसके सिर बंधे, लेकिन कोसी की किस्मत नदियां ही लिखती आयी हैं और शायद लिखती रहेंगी. कोसी की सेहत व सूरत विकृति के सवाल पर सियासी पारा न केवल चढ़ता-उतरता रहा है, बल्कि कुसहा त्रासदी के लगभग आठ वर्ष बाद अब लोगों के मुंह से यह बरवस निकलने भी लगा है कि केंद्र और राज्य सरकार के तकरार में कोसी का बंटाधार हो रहा है. हालांकि कुसहा त्रासदी के समय केंद्र में न ही भाजपा की सरकार थी और न ही नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थे.
कांग्रेसनीत मनमोहन सिंह की सरकार के द्वारा कुसहा त्रासदी को राष्ट्रीय आपदा घोषित करते हुए कोसी पुर्नवास योजना के तहत कोसी के पुर्ननिर्माण की बात कही गई थी, जबकि बिहार के मुखिया नीतीश कुुमार के द्वारा पहले से सुंदर कोसी निर्माण का सपना दिखाया गया था. नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केन्द्र तथा राज्य सरकार के बीच कोसी नवनिर्माण के सवाल पर
आरोप-प्रत्यारोप के आदान-प्रदान का सियासी खेल इस कदर चलता रहा कि कोसी नवनिर्माण का वास्तविक मसला धुंधला पड़ गया. न तो आशियाना गंवा चुके परिवारों के पुर्नवास की आस पूरी हो चुकी और न ही सुंदर कोसी का सपना ही साकार हो सका. यह बात अलग है कि कुसहा त्रासदी के पूर्व ही मोदी-नीकु के बीच खिंची राजनीतिक तलवार कोसी त्रासदी के बाद पूरी तरह से म्यान से बाहर आ गयी.
कभी नरेन्द्र मोदी का खेमा नीतीश सरकार पर भारी पड़ा तो कभी नीतीश की टोली मोदी खेमे को आंख दिखाती नजर आई. कोसी की उपेक्षा के मामले में वास्तविक गुनाहगार कौन है, यह तो एक-दूसरे के सिर आरोप का ठीकरा फोड़ने वाले सियासतदान ही जानें. इससे बुरी स्थिति और क्या हो सकती है कि कोसी त्रासदी में अपनों को गंवा चुके कई परिवार के लोग मुआवजे की राशि से अब भी वंचित हैं. लापता हुए लगभग 3,500 लोगों में से अधिकांश का अब तक पता नहीं चल सका है. लापता लोगों के परिजन मुआवजे के लिए अब भी दर-दर की ठोंकरें खाने को मजबूर हैं.
सरकारी आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो कोसी त्रासदी में सुपौल, अररिया, पूर्णियां, मधेपुरा व सहरसा जिले के 412 पंचायतों के 993 गांव प्रभावित हुए और 352 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था. तटबंधों के बीच कैद कोसी इस कदर कैद से निकली कि नेपाल में कुसहा के पास तटबंध को तोड़कर लाखों लोगों को तबाह कर दिया. दूधारू पशुओं सहित लगभग बारह हजार पशु पानी में बह गए, जबकि विभिन्न गांव के लगभग 2,36,632 आशियाने जमींदोज हो गए. 1100 पुल व कलवर्ट टूट गए और लगभग 1800 किमी रोड क्षतिग्रस्त हो गए. इस आपदा में अपना सब कुछ गंवाने वालों की हालात का अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है.
कहने को तो सभी सूचीबद्व प्रभावित परिवारों के बीच मुआवजे की राशि का वितरण कर दिया गया है, लेकिन कई परिवारों के लोग अब भी मुआवजे के लिए अधिकारियों के चौखट का चक्कर लगाने को विवश हैं. प्रशासकीय नाकामी के कारण त्रासदी का दंश झेलने को विवश कई किसान, जमीन खो देने का दर्द सुनाते फिर रहे हैं, लेकिन आठ वर्षों से कई प्रभावित किसानों की फरियाद नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हो रही है.
कहा जाता है कि बाढ़ के बाद पुर्नवास की प्रक्रिया इतनी मंथरगति से चलती रही कि यह धीरे-धीरे जटिल हो गई और लोग इसकी हकीकत जान कर अपनी किस्मत अपने दम पर संवारने की कोशिश में लग गए. बाढ़ के दौरान अपना सब कुछ गंवा चुके कई परिवारों के लोग दो जुन की रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों का रुख करने लगे, जबकि नौकरशाहों व पंचायत प्रतिनिधियों की मिलीभगत से बिचौलियों ने जरूरतमंदों को मिलने वाली सहायता राशि को हड़प लिया. चार चरणों में संपन्न होने वाला पुर्ननिर्माण कार्य दूसरा चरण पूरा होने से पहले ही बंद होने की कगार पर पहुंच गया है.
दूसरे चरण की योजना के तहत नदी की मुख्यधारा में आकर विस्थापित हुए नदी के समीप स्थित गांव के लोगों को पुर्नवासित किया जाना था. बाढ़ के दौरान खेतों में जमा हुए बालू को निकालने का मसला भी जमींदोज होकर रह गया. कोसी विकास के नाम पर विश्व बैंक से दोबारा कर्ज लेकर कोसी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के तहत कोसी के नवनिर्माण की बात तो कही जा रही है, लेकिन पूर्व की योजनाओं का हश्र देखकर लोगों को विश्वास नहीं हो रहा कि कोसी का नवनिर्माण संभव हो सकेगा.
कोसी त्रासदी में बर्बाद हो चुके लोगों की जिंदगी संवारने के नाम पर विश्व बैंक से 220 मिलियन डॉलर का कर्ज भी लिया गया. लेकिन पूर्णिया, अररिया, सहरसा और सुपौल के प्रभावित परिवारों की जिंदगी संवर नहीं सकी. कहा जाता है कि केन्द्र तथा राज्य सरकार के बीच चली तकरार के कारण केन्द्र सरकार के द्वारा पुर्नवास के नाम पर मुंह मोड़ लिया गया.
राज्य सरकार ने बिहार आपदा पुर्नवास एवं पुर्नवास सोसाइटी नामक अलग संस्था का गठन किया. विकास आयुक्त को इसका अध्यक्ष बनाया गया. विश्व बैंक से बाढ़ के दौरान सूचीबद्व किए गए 2,36632 जमींदोज घरों के पुर्ननिर्माण का कार्य बीते 2010 के 31 जनवरी से शुरू किया गया लेकिन चार चरणों में सम्पन्न होने वाला यह कार्य दो चरण समाप्त होने से पहले ही अटक गया.
यह बात अलग है कि कोसी बेसिन डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के नाम पर फिर से विश्व बैंक से 250 मिलियन अमेरिकी डॉलर बतौर कर्ज मिला है. लेकिन दुर्भाग्यवश कोसी त्रासदी के शिकार लोगों की जिंदगी संवारने के नाम पर इस योजना में कुछ नहीं है. वैसे योजना विकास विभाग के द्वारा पहले चरण में केवल 1,57,428 घरों के पुर्ननिर्माण का लक्ष्य रखा गया था. हास्यास्पद स्थिति तब हो गई जब प्रभावित घरों के आंकड़ों को बदलते हुए महज एक लाख घरों को ही पहले चरण में बनाने का निर्णय लिया गया. लेकिन वर्ष 2014 आते-आते लक्ष्य में कटौती हो गयी और महज 66 हजार 203 घर ही सूची में अपनी जगह कायम रख पाए.
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कोसी नवनिर्माण मंच के संस्थापक महेन्द्र यादव की अगर मानें तो विश्व बैंक से दो-दो बार कर्ज लिए जाने के आठ वर्ष बाद भी कोसी विकास के नाम पर नाटक होता रहा. सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, पूर्णिया, अररिया सहित कुछ अन्य इलाकों में कोसी त्रासदी के कारण कोसी के रौद्ररूप का सामना लोगों को करना पड़ा. लेकिन पुर्नवास की आस में प्रभावित परिवार बिलखता रहा. इस घटना को यादकर बीते आठ वर्षों से लोग बरसी तो मना रहे हैं लेकिन सरकार के द्वारा प्रभावित परिवारों की सुध तक नहीं ली जा रही है.
मंच के अध्यक्ष रामजी दास सरकार की नियत पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं कि कोसी त्रासदी के आठ वर्षों के बाद भी सरकार के द्वारा कोसी नवनिर्माण के लिए इमानदार प्रयास नहीं किया जाना राजनीतिज्ञों के कथनी व करनी में अंतर स्पष्ट करने के लिए काफी है. बिहारीगंज के लखन कुमार, विजेन्द्र दास, शिवनंदन मुखिया सहित अन्य लोगों का कहना है कि कुसहा त्रासदी के बाद आए सियासी तूफान में कोसी के नवनिर्माण का सवाल शायद दम तोड़ गया. नतीजतन 2008 के बाढ़ प्रभावित परिवारों को पुर्नवासित नहीं किया जा सका. कोसी त्रासदी की जांच रिपोर्ट जांच आयोग के द्वारा सौंपे जाने के बाद भी इसे सार्वजनिक नहीं किया जाना बहुत बड़े सवाल को जन्म देने के लिए काफी है.
राजू खान, लालू ठाकुर, प्रभात कुमार भारतीय आदि का कहना है कि कुसहा त्रासदी के बाद भी विकास के मामले में हासिए पर खड़ा कोसी शायद राजनीतिक साजिश का शिकार हो गया. इधर मधेपुरा के जिलाधिकारी मोहम्मद सोहेल के साथ-साथ सहरसा, सुपौल, अररिया तथा पूर्णिया के जिलाधिकारियों का कहना है कि कोसी नवनिर्माण योजना के तहत बाढ़ प्रभावित परिवारों के बीच सरकारी दिशा-निर्देष के आलोक में राहत का वितरण किया गया था और घरों के निमार्ण के काम को द्रुतगति से अंजाम दिया जा रहा है.
बहुत जल्द कोसी नवनिर्माण का सपना साकार होना तय है. बहरहाल, कोसी के नवनिर्माण का सपना साकार हो सकेगा अथवा अन्य योजनाओं की तरह यह योजना भी धूल फांकती रह जाएगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. लेकिन कोसी नवनिर्माण की बात अगर महज लफ्फेबाजी साबित हुई तो कोसी का आंदोलन की आग में तपना तय है, ऐसा स्थानीय लोगों का कहना है.
इधर मधेपुरा जिले के रामस्वरूप पासवान तथा चन्द्रहास प्रसाद का कहना है कि कोसी नवनिर्माण के सवाल पर भले ही राजनीति तेज होती रही हो, लेकिन लगता नहीं है कि कोसी नवनिर्माण की बात सत्य साबित होने वाली है, क्योंकि आठ वर्ष बीत जाने के बाद अब कोसी बेसिन डेवलपमेंट के नाम से शुरू की गई योजना में कुसहा त्रासदी में प्रभावित हुए लोगों के पुर्नवास का जिक्र तक नहीं है.
कृषि कार्यो को बढ़ावा दिए जाने की योजना के तहत खेतों में जमा बालू को निकालकर खेतों को उर्वरा बनाया जाने की बात तो लक्षित की गई है, लेकिन किसानों का आशियाना सजाने के सवाल पर कोई चर्चा नहीं है. बहरहाल, कोसी त्रासदी की बरसी मनाते आ रहे लोगों का कहना है कि इस घटना में मौत के शिकार हुए कुल 362 लोगों के लिए सच्ची श्रद्वाजंलि कोसी का नवनिर्माण ही माना जा सकता है और अगर कोसी नवनिर्माण के नाम पर राजनीतिक ग्रहण लगाने की कोशिश हुई तो राजनीतिज्ञों का बेनकाब होना तय है.