देश के सिर्फ पांच राज्यों में आजकल चुनाव हो रहे हैं। ये पांच राज्य न तो सबसे बड़े हैं और न ही सबसे अधिक संपन्न लेकिन इनमें इतना भयंकर भ्रष्टाचार चल रहा है, जितना कि हमारे अखिल भारतीय चुनावों में भी नहीं देखा जाता। अभी तक लगभग 1000 करोड़ रु. की चीजें पकड़ी गई हैं, जो मतदाताओं को बांटी जानी थीं। इनमें नकदी के अलावा शराब, गांजा-अफीम, कपड़े, बर्तन आदि कई चीजें हैं। गरीब मतदाताओं को फिसलाने के लिए जो भी ठीक लगता है, उम्मीदवार लोग वही बांटने लगते हैं। ये लालच तब ब्रह्मास्त्र की तरह काम देता है, जब विचारधारा, सिद्धांत, जातिवाद और संप्रदायवाद आदि के सारे पैंतरे नाकाम हो जाते हैं। कौनसी पार्टी है, जो यह दावा कर सके कि वह इन पैंतरों का इस्तेमाल नहीं करती ? बल्कि, कभी-कभी उल्टा होता है। कई उम्मीदवार तो अपने मतदाताओं को रिश्वत नहीं देना चाहते हैं लेकिन उनकी पार्टियां उनके लिए इतना धन जुटा देती हैं कि वे रिश्वत का खेल आसानी से खेल सकें। पार्टियों के चुनाव खर्च पर कोई सीमा नहीं है। हमारा चुनाव आयोग अपनी प्रशंसा में चुनावी भ्रष्टाचार के आंकड़े तो प्रचारित कर देता है लेकिन यह नहीं बताता कि कौनसी पार्टी के कौनसे उम्मीदवार के चुनाव-क्षेत्र में उसने किसको पकड़ा है। जो आंकड़े उसने प्रचारित किए हैं, उनमें तमिलनाडु सबसे आगे है। अकेले तमिलनाडु में 446 करोड़ का माल पकड़ा गया है। बंगाल में 300 करोड़, असम में 122 करोड़, केरल में 84 करोड़ और पुदुचेरी में 36 करोड़ का माल पकड़ा गया है। कोई राज्य भी नहीं बचा। याने चुनावी भ्रष्टाचार सर्वव्यापक है। 2016 के चुनावों के मुकाबले इन विधानसभाओं के चुनाव में भ्रष्टाचार अबकी बार लगभग पांच गुना बढ़ गया है। भ्रष्टाचार की इस बढ़ोतरी के लिए किसको जिम्मेदार ठहराया जाए? क्या नेताओं और पार्टियों के पास इतना ज्यादा पैसा इन पांच वर्षों में इकट्ठा हो गया है कि वे लोगों को खुले हाथ लुटा रहे हैं ? उनके पास ये पैसा कहां से आया ? शुद्ध भ्रष्टाचार से! अफसरों के जरिए वे पांच साल तक जो रिश्वतें खाते रहते हैं, उसे खर्च करने का यही समय होता है। हमारी चुनाव-पद्धति ही राजनीतिक भ्रष्टाचार की जड़ है। इसे सुधारे बिना भारत से भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं हो सकता। चुनाव आयोग को यह अधिकार क्यों नहीं दिया जाता कि भ्रष्टाचारी व्यक्ति और भ्रष्टाचारी राजनीतिक दल को वह दंडित कर सके ? उन्हें जेल भेज सके और उन पर जुर्माना ठोक सके। जब तक हमारे राजनीतिज्ञों की व्यक्तिगत और पारिवारिक संपन्नता पर कड़ा प्रतिबंध नहीं लगेगा, हमारे लोकतंत्र को भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं किया जा सकेगा। आजकल की राजनीति का लक्ष्य सेवा नहीं, मेवा है। इसीलिए चुनाव जनता की सेवा करके नहीं, उसे मेवा बांटकर जीतने की कोशिश की जाती है।
राजनीतिः सेवा नहीं, मेवा है
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