दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से खुलता है, इसलिए एक बार फिर यूपी की तरफ देशभर की निगाह टिक गई है. 2019 का लोकसभा चुनाव अब दरवाजा खटखटाने लगा है. कोई कहता है कि इसी साल चुनाव होगा तो कोई कहता है अगले साल. चुनाव इस साल हो या अगले साल, चुनाव की राजनीतिक बिसात पर काम तेजी से शुरू हो चुका है. बाबा साहब के साथ उनका पारम्परिक नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर जोड़े जाने के योगी सरकार के फैसले के बाद जिस तरह दलित ध्रुवीकरण की सियासत तेज हुई उसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उग्र करने का विपक्षी दलों को मौका मिल गया. दलितों के साथ-साथ मुस्लिमों को गोलबंद कर वोट समेटने की सियासत इस बार के लोकसभा चुनाव में ज्यादा प्रभावी तरीके से सतह पर लाई जा रही है. यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद में दलितों के साथ मुसलमानों ने भी सक्रिय भागीदारी निभाई. हालांकि मायावती ने हिंसा से दलितों को अलग करने और उसे असामाजिक तत्वों के कंधे पर थोपने का प्रयास किया, लेकिन अंदर-अंदर उकसाने की जो राजनीति हुई है, उसे सब जानते-समझते हैं. दलितों और मुस्लिमों के उग्र-ध्रुवीकरण की राजनीति के समानान्तर भाजपा कौन सी चमत्कारिक रणनीति अख्तियार करती है, यह सबसे बड़ा सवाल है. अगर ऐसा नहीं किया तो भाजपा नुकसान में जाती दिखती है. सपा और बसपा के गठबंधन से भाजपा में पहले से घबराहट है, अगर गठबंधन में कांग्रेस भी शामिल हो गई तो भाजपा के लिए मुश्किलें और भी बढ़ेंगी. यूपी के राजनीतिक परिदृश्य का जायजा लेती रिपोर्ट…
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पटल पर योगी, अखिलेश और मायावती के चेहरे ही दिखाई दे रहे हैं. कांग्रेस अब भी वृष्टिछाया क्षेत्र में ही खड़ी दिख रही है. 2019 का लोकसभा चुनाव अब अधिक दिन दूर नहीं है. अभी हाल में हुए दो उप चुनावों में सपा-बसपा तालमेल को मिली अप्रत्याशित जीत ने बुआ-बबुआ मेल को थोड़ा अधिक ही प्रासंगिक बना दिया, जबकि जानने वाले जानते हैं कि गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा की हार अप्रत्याशित नहीं, बल्कि प्रत्याशित थी. यह हार राष्ट्रीय संगठन के अध्यक्ष अमित शाह, प्रदेश संगठन के मंत्री सुनील बंसल और उनकी मंडली के लिए योजनाबद्ध संदेश था, जो यूपी के नेताओं को शक्तिवान होने से रोकने के लिए तहर-तरह के तिकड़मों में सक्रिय रहे हैं. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच पुख्ता हुआ तालमेल भाजपा संगठन के अलमबरदारों के इसी तिकड़म का प्रति-उत्पाद है. केंद्र की सत्ता उत्तर प्रदेश के बूते ही खड़ी होती है, इसलिए राजनीतिक पार्टियां अपनी सारी ‘कलाएं’ एक बार फिर आजमा लेने के लिए आतुर हो रही हैं. अंदर बाहर दोनों तरफ से फंसी भाजपा को अब फिर योगी का ही भरोसा है, इसीलिए योगी से मंत्रणा करके चक्रव्यूह रचे जा रहे हैं. भाजपा के ‘धुरंधरों’ का विश्लेषण है कि योगी या तो भाजपा की बाधाएं काटेंगे या खुद ‘कट’ जाएंगे.
उप चुनाव में पराजय का संदेश प्राप्त करने के बाद सक्रिय हुई भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन ने दो आयामों से रणनीति गांठने का काम शुरू किया है. एक तरफ सपा-बसपा तालमेल में खटास डालने और मायावती को अपने पक्ष में करने के प्रयास शुरू किए गए हैं, तो दूसरी तरफ प्रदेश संगठन के उन नेताओं को नेपथ्य में ले जाने की भूमिका शुरू हुई है, जो यूपी में सरकार बनने के बाद से लगातार समानान्तर सरकार रचने और सत्ता की लगाम अपने हाथ से संचालित करने के जतन में लगे थे. समानान्तर सत्ता निर्माण में भ्रष्टाचार एक महत्वपूर्ण कारक था, जो धीरे-धीरे शीर्ष सांगठनिक स्तर पर उजागर होता गया. प्रदेश के नेताओं और कार्यकर्ताओं से संगठन मंत्री सुनील बंसल की सार्वजनिक बदसलूकी की घटनाएं भी प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व को नागवार गुजरने लगी थीं. यह संगठन की छवि और कार्यकर्ताओं के मनोबल पर नाकारात्मक प्रभाव डाल रहा था. यही वजह है कि भाजपा संगठन अपने स्वनामधन्य प्रदेश महामंत्री सुनील बंसल जैसे नेताओं से उबरने के प्रयास में लगी है और प्रदेश के नेताओं को महत्व देने का सिलसिला शुरू किया जा रहा है. संगठन के कई वरिष्ठ सदस्यों का भी मानना है कि इसके बिना पार्टी का कल्याण नहीं होने वाला है, क्योंकि पार्टी कुछ राज्यों में मिली जीत के दंभ से नहीं चल सकती, अपने कार्यकर्ताओं और वरिष्ठों को तरजीह देने से चलेगी. अंदरूनी बदलाव की इस कवायद में सुनील बंसल को संगठन मंत्री से हटा कर किसी जुझारू दलित नेता को इस पद पर बिठाने की रणनीति भी शामिल है, जिससे मायावती के दलित एंगल को न्यूट्रल किया जा सके. उधर, मायावती को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (नेशनल डेमोक्रैटिक अलाएंस) में शरीक होने का न्यौता देकर भाजपा ने सपा-बसपा तालमेल में संदेह का बीज डाल दिया है. भाजपा की सहयोगी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के प्रमुख रामदास अठावले ने पिछले ही दिनों लखनऊ में बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर मायावती के समक्ष यह प्रस्ताव रखने की बात कही. मायावती के भाई आनंद कुमार के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय और सीबीआई दोनों की जांचें लंबित हैं, जिसका दबाव मायावती को भाजपा खेमे की तरफ खींच ले जा सकता है. वैसे आप जानते ही हैं कि कभी भी कोई भी औचक फैसला लेने में मायावती को विशेषज्ञता हासिल है.
सपा-बसपा का तालमेल राज्यसभा चुनाव में एक सीट लेने की शर्त पर ही हुआ था. दो संसदीय सीटों पर हुए उप चुनावों में हारने के बाद सचेत हुई भाजपा ने राज्यसभा चुनाव में ऐसी बिसात बिछाई कि सपा-बसपा तालमेल की मूल शर्त ही कारगर नहीं हो पाई. यह मायावती के लिए करारा झटका था, लेकिन उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता दिखाते हुए भविष्य में भी सपा के साथ तालमेल जारी रखने की घोषणा की. इसके बरक्स बसपा के ही अंदरूनी लोग कहते हैं कि उप चुनाव में सपा को तो सीधा-सीधा फायदा मिला पर बसपा को क्या मिला! उल्टा, सपा को बसपा के वोट बैंक में सेंध मारने का मौका भी मिल गया. खुर्राट बसपाई सपा के साथ तालमेल से खफा हैं. वे बताते हैं किस तरह मुलायम काल और अखिलेश काल में यादवों ने उन्हें प्रताड़ित किया. लेकिन भाजपा के खिलाफ व्यापक राजनीतिक गोलबंदी की अनिवार्यता के नाम पर ये पुराने बसपाई चुप हो जाते हैं. राज्यसभा चुनाव में अपने नौ प्रत्याशियों को जीत दिला कर भाजपा ने यह प्रदर्शित किया कि जोड़तोड़ और तिकड़म के बूते वह तालमेल की ताकत को तोड़ सकती है. क्योंकि भाजपा यह जानती है कि अगर तालमेल बना रह गया और उसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई तब मत का समीकरण भाजपा के किसी भी जोड़-जुगाड़ को धराशाई कर देगा. लिहाजा, गठबंधन को नेतृत्व देने के मसले पर और सीटों की हिस्सेदारी के मसले पर दोनों-तीनों पार्टियों में अधिक से अधिक व्यक्तित्व-संकट पैदा कराना और आपस में तल्खी पैदा कराना भाजपा का लक्ष्य है. राज्यसभा चुनाव इसका सटीक संदेश है.
एक दौर था जब देशभर में मुसलमानों को वोट बैंक के रूप में ‘कैश’ करने की राजनीति चलती रही. उसी तरह दलित वोट बैंक भी नेताओं को ‘वोट-कैश’ देता रहा. लेकिन 2014 के बाद दलित वोट बैंक की सियासत तेज हो गई है. विपक्ष एक तरफ दलितों और मुस्लिमों की व्यापक एकता कायम करने के लिए एड़ी चोटी की ताकत लगाए है तो दूसरी तरफ दलितों को अपने खाते में रखने के लिए भाजपा भी तमाम जद्दोजहद में लगी है. बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर के मौलिक नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर का इस्तेमाल करने का योगी सरकार का फैसला और उस पर चली समानान्तर खींचतान भी इसी सियासत का हिस्सा है. दलित एक्ट के बेजा इस्तेमाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद इस सियासत को और बल मिल गया. राजनीतिक दलों ने संविधान और सुप्रीम कोर्ट के सम्मान वगैरह के मसले को ताक पर रख दिया और फैसले को राजनीतिक मसला बना कर दलित ध्रुवीकरण की ओर ले जाने की कोशिश की. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आयोजित हुए आंदोलन में मुसलमानों ने भी सक्रिय भूमिका अदा की. भाजपा सपा-बसपा तालमेल को पंगु करने की कोशिश में लगी थी, अब उसे दलित-मुस्लिम ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही राजनीति रोकने पर भी ध्यान देना पड़ रहा है.
बसपा के साथ तालमेल करने के बावजूद
समाजवादी पार्टी दलितों को प्रभावित करने और उन्हें अपनी तरफ समेटने की कोशिशों में जी-जान से लगी है. बसपाई इस गतिविधि को संदेह की निगाह से देख रहे हैं. उनका कहना है कि जब बसपा के साथ तालमेल हो गया है तो दलितों को रिझाने की अतिरिक्त कोशिशें सपा क्यों कर रही है. दलितों को रिझाने के लिए ही सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अम्बेडकर जयंती पर प्रदेश के 90 स्थानों पर जयंती समारोह आयोजित करने की घोषणा कर दी. इस कार्यक्रम को लेकर अखिलेश यादव ने बड़े उत्साह से बयान जारी किए और उनकी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम ने भी दलितों और बाबा साहब के प्रति अथाह प्रेम दर्शाया और प्रेस को बताया कि अम्बेडकर जयंती पर सपा के कार्यक्रमों को लेकर जिला और नगर इकाइयों को खास हिदायतें दी गई थीं. एक वरिष्ठ सपा नेता ने ही कहा कि अम्बेडकर जयंती पर समारोहों का बसपाई आयोजन उनकी संस्कृति और सपाइयों की बेबसी है. उन्होंने कहा कि इसके पहले भी तो बाबा साहब की जयंती की तिथियां गुजरती रही हैं, सपा ने पहले इतना आदरभाव क्यों नहीं दिखाया. इस बुजुर्ग नेता ने कहा कि सपाइयों के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया पहचान-पुरुष रहे हैं और बसपाइयों के लिए बाबा साहब. सपा की तरफ से 90 स्थानों पर अम्बेडकर जयंती का आयोजन राजनीतिक महत्वाकांक्षा में डॉ. लोहिया की उपेक्षा करने जैसा है.
दलितों और मुसलमानों का ध्रुवीकरण पलट सकता है बाजी
जिस तरह दलितों और मुसलमानों को गोलबंद करने की राजनीति चल रही है, अगर वह कामयाब हुई तो वह लोकसभा चुनाव में बाजी पलट देगी. उत्तर प्रदेश के 49 जिलों में दलित बहुल मतदाता हैं. 20 जिलों में मुस्लिम मतदाता अधिक हैं. उत्तर प्रदेश में दलितों की करीब 70 जातियां हैं और इनका प्रतिशत प्रदेश की कुल आबादी का 21.15 फीसद है. 21 प्रतिशत दलित और 20 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता सियासी बाजी उलट-पलट कर सकते हैं. लोकसभा की 545 सीटों में से क्रमशः 84 और 47 लोकसभा सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं. यानि, कुल 131 सीटें आरक्षित हैं. इसमें उत्तर प्रदेश में 80 में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. कुल आरक्षित 131 लोकसभा सीटों में से 67 सीटें भाजपा के पास हैं. कांग्रेस को 13 आरक्षित सीटें हासिल हैं. इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस के पास 12, अन्नाद्रमुक और बीजद के पास आरक्षित कोटे की सात-सात सीटें हैं. दलितों और मुस्लिमों का गठजोड़ आने वाले समय में राजनीति की दशा-दिशा बदल सकता है. तमाम राजनीतिक दल इसी कोशिश में लगे हैं.
कांग्रेस भी व्यापक गठबंधन की हिमायती, पर उहापोह भी जारी
भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ कांग्रेस भी व्यापक गठबंधन की हिमायत कर रही है, लेकिन स्पष्ट निर्णय भी नहीं कर पा रही है. गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उप चुनाव के दरम्यान भी कांग्रेस व्यापक एकता की बात करती रही, लेकिन सपा-बसपा मेल-मिलाप से खुद को दूर रखा. कांग्रेस ने दोनों सीटों पर अपने प्रत्याशी भी उतारे. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा-बसपा का साथ दिया, लेकिन सब जानते थे कि तीनों मिल कर भी बसपा प्रत्याशी को जीत नहीं दिला पाएंगे. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि तालमेल की प्रतिबद्धता में सपा को पहली प्राथमिकता पर बसपा प्रत्याशी को रखना चाहिए था, लेकिन सपा ने ऐसा नहीं किया और जया बच्चन को जिताने के बाद बचे-खुचे वोट से बसपा को फुसलाने की कोशिश की. कांग्रेस के नेता कहते हैं कि सम्मानजनक और पारदर्शी तालमेल आधारित गठबंधन होना चाहिए, जिसमें छल-कपट का स्थान न हो. व्यापक गठबंधन की बात कहने वाली कांग्रेस पार्टी अपने संगठनात्मक ढांचे को दुरुस्त करने में ही सुस्त है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पद से राज बब्बर के इस्तीफे के बाद अब तक कांग्रेस अपना कोई प्रदेश अध्यक्ष तय नहीं कर पाई है. प्रदेश अध्यक्ष के लिए कभी जतिन प्रसाद का नाम दौड़ने लगता है तो कभी मशहूर कांग्रेसी नेता पंडित कमलापति त्रिपाठी खानदान की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि ललितेशपति त्रिपाठी का नाम चलने लगता है. कांग्रेस की उत्तर प्रदेश इकाई में अध्यक्ष के अलावा चार उपाध्यक्षों का भी मनोनयन होना है. लेकिन इसमें देरी क्यों हो रही है, इस बारे में प्रदेश कांग्रेस के नेता कुछ भी नहीं कहते.
यूपी में गठबंधन के घालमेल का पुराना इतिहास रहा है
प्रदेश कांग्रेस से जुड़े बुजुर्ग कार्यकर्ता कहते हैं कि कभी कांग्रेस ने ही अपने समर्थन से बसपा और सपा की साझा सरकार बनवाई थी. आज फिर कांग्रेस उसी इतिहास को दोहराने की दहलीज पर खड़ी है. जानकार बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन के घालमेल का इतिहास पुराना है. कभी इस दल ने उस दल का समर्थन कर सरकार बनवा दी तो कभी पाला बदल कर दूसरे की सरकार बनवा दी. गठबंधन-घालमेल में भाजपा, सपा, बसपा, कांग्रेस सब शरीक रही हैं. वर्ष 1989 में जब मुलायम सिंह यादव प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे तब उन्हें भाजपा का समर्थन हासिल था. मुलायम संयुक्त मोर्चा से मुख्यमंत्री बने थे. इसके बाद 1990 में जब राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोका गया तब भाजपा ने केंद्र और राज्य सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था. राम जन्मभूमि आंदोलन के तीव्र होने के कारण 1991 में यूपी में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के कारण कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त कर दी गई थी. 1993 के चुनाव में बसपा और सपा का गठबंधन हुआ. जिसमें मुख्यमंत्री का पद छह-छह महीने के लिए बांट लेने का फार्मूला बना. मायावती मुख्यमंत्री बनीं लेकिन जब मुलायम सिंह की बारी आई तो मायावती ने समर्थन वापस खींच लिया. इसी वजह से दो जून 1994 को गेस्टहाउस कांड घटित हुआ. इसके बाद फिर भाजपा के समर्थन से मायावती दोबारा मुख्यमंत्री बनीं. कुछ ही समय बाद बसपा से 22 विधायक अलग हो गए और उनके समर्थन से प्रदेश में दोबारा कल्याण सिंह की सरकार बनी. यह गठबंधन भी नहीं चल पाया और सरकार जाती रही. वर्ष 2001 में राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री बने. उस दौरान कांग्रेस बसपा के बीच गठबंधन अस्तित्व में आया. लेकिन इस गठबंधन से बसपा को कोई फायदा नहीं मिला. दूसरी तरफ कांग्रेस ने मुलायम सिंह को समर्थन देकर सपा की सरकार बनवा दी. पिछले तीन विधानसभा चुनाव बिना किसी गठबंधन के हुए. 2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा पूर्ण बहुमत से आई. 2012 में अखिलेश के नेतृत्व में सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और अब 2017 में योगी के नेतृत्व में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है.
संख्या समीकरणों के मद्देनजर भाजपा पर भारी पड़ेगा सपा-बसपा गठबंधन
भारतीय लोकतंत्र में संख्या का ही महत्व है. गिनती के आधार पर ही कोई पार्टी सत्ता तक पहुंचती है या धराशाई होती है. गिनती हासिल करने के लिए ही पार्टियां सारे अनैतिक हथकंडे इस्तेमाल करती हैं. पिछले चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों को जितने वोट मिले उनकी संख्या के आधार पर विश्लेषण करें, तो सपा-बसपा गठबंधन भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है. इसमें अगर कांग्रेस भी शामिल हो गई, तो गिनती इतनी बढ़ जाती है कि भाजपा का सत्ता तक पहुंचना मुश्किल हो जाए. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 71 सीटों पर जीती थी. उनमें से 15 सीटों पर जीत-हार का फर्क पचास-पचपन हजार के दायरे में था. लोकसभा की एक दर्जन सीटें ऐसी थीं, जहां जीत का अंतर एक से डेढ़ लाख था. अगर उन 15 और 12 सीटों का ‘कॉम्बिनेशन’ मिला दिया जाए और उनमें सपा और बसपा प्रत्याशियों को मिले वोट मिला कर देखे जाएं तो वह भाजपा प्रत्याशी को मिले वोट से कहीं ऊपर का ग्राफ बनाते दिखते हैं. इसमें अगर कांग्रेस प्रत्याशी को मिले वोट भी मिला दिए जाएं, तो फिर भाजपा की नाव डूबती हुई ही दिखाई पड़ती है. हाल में हुए दो उप चुनाव के बाद अब सपा के खाते में लोकसभा की सात सीटें हैं. 2014 में सपा को केवल पांच सीटें मिली थीं. अब एक और लोकसभा सीट के लिए उप चुनाव होना है. वरिष्ठ भाजपा नेता हुकुम सिंह के निधन से कैराना लोकसभा सीट खाली हो गई है. कैराना लोकसभा सीट पर होने वाले उप चुनाव में भाजपा नेतृत्व वह गलती नहीं दोहराएगा जो गोरखपुर और फूलपुर के लिए प्रत्याशी चुनने में जानबूझ कर की गई. लिहाजा, दिवंगत सांसद हुकुम सिंह की बेटी मृगांका को उम्मीदवार बनाने पर विचार चल रहा है. मृगांका कैराना विधानसभा सीट से चुनाव लड़ी थीं, लेकिन सपा प्रत्याशी नाहिद हसन से हार गई थीं. दूसरी तरफ कैराना उप चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की तरफ से प्रत्याशी उतारे जाने की तैयारी है. इसमें मौजूदा सपा विधायक नाहिद हसन की मां पूर्व बसपा सांसद तबस्सुम बेगम का नाम चल रहा है.
2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बीच भाजपा को यूपी में 42.6 प्रतिशत वोट मिले थे. उस चुनाव में सपा को 22.3 प्रतिशत वोट मिले थे. बसपा को 20 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.5 प्रतिशत वोट मिले थे. अगर सपा, बसपा और कांग्रेस को मिले वोट प्रतिशत मिला दिए जाएं तो यह 49.8 प्रतिशत हो जाता है. इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ सपा, बसपा और कांग्रेस मिल कर लड़ीं और इन पार्टियों का पुराना वोट प्रतिशत बहाल रहा तो गठबंधन भाजपा के लिए भारी पड़ेगा. राष्ट्रीय लोक दल या ऐसे अन्य दल भी साथ मिल जाएं तो परिणाम के बारे में आकलन किया जा सकता है.
गिनती के गुणा-गणित और वोट प्रतिशत के आधार पर न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे देश में भाजपा को 2014 के परिणामों की तरह आशान्वित नहीं रहना चाहिए. 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक 15 राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. इस वर्ष कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी विधानसभा चुनाव होने हैं. ये चुनाव निश्चित तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव पर असर डालेंगे. 2014 के लोकसभा चुनाव में इन चार राज्यों को मिला कर भाजपा को 79 सीटें मिली थीं. चुनावी विश्लेषक विधानसभा चुनावों में मिले वोट प्रतिशत के आधार पर 2019 के लोकसभा चुनाव का आकलन करते हैं. उनका मानना है कि जिन 15 राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, वहां वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 191 सीटें मिली थीं. लेकिन विधानसभा चुनावों में भाजपा के खाते में जो वोट-प्रतिशत आए, उस आधार पर भाजपा के लिए 146 लोकसभा सीटें बनती हैं, यानि 2014 की तुलना में 45 सीटें कम. स्पष्ट है कि भाजपा के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव 2014 जैसा नहीं होने वाला है.
राज्यसभा के बाद विधान परिषद में भी सपा-बसपा को पटकने की तैयारी
उत्तर प्रदेश में 26 अप्रैल को होने जा रहे विधान परिषद चुनाव में भी राज्यसभा चुनाव की तरह सपा-बसपा गठबंधन को पटखनी देने की भाजपा की तैयारी है. इस बार भाजपा ने दलित प्रसंग को ही केंद्र में रखा है और विधान परिषद चुनाव से लेकर पूरे देश में भाजपा की दलित-हित-चिंता को लेकर मुहिम छेड़ने का अभियान शुरू करने जा रही है. इस अभियान में भाजपा के प्रमुख दलित नेता शरीक रहेंगे. इसमें केंद्रीय मंत्री कृष्णा राज, अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया, प्रदेश भाजपा के अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष व सांसद कौशल किशोर समेत संगठन के कई प्रमुख दलित नेताओं को शामिल किया गया है. इस अभियान के तहत विधान परिषद चुनाव में अधिक दलित प्रत्याशी उतारने के अलावा तमाम सरकारी योजनाओं मसलन, मुद्रा योजना, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री बीमा योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना वगैरह में दलितों को अधिकाधिक संख्या में लाभ देने की रणनीति भी शामिल है. भाजपा अभी से इस बात के प्रचार-प्रसार में लग गई है कि यूपी विधानसभा में 87 प्रतिशत दलित विधायक भाजपा के हैं. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के भी दलित होने का सियासी फायदा उठाने से भाजपा नहीं चूकने वाली.
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में 13 विधान परिषद सीटों के लिए 26 अप्रैल को चुनाव हो रहा है. यह चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित 13 विधान परिषद सदस्यों का कार्यकाल पांच मई को समाप्त हो रहा है. विधान परिषद से रिटायर हो रहे नेताओं में अखिलेश के अलावा योगी सरकार के मंत्री मोहसिन रजा, डॉ. महेंद्र सिंह, सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल, डॉ. मधु गुप्ता, राजेंद्र चौधरी, अम्बिका चौधरी, चौधरी मुश्ताक, रामसकल गुर्जर, डॉ. विजय यादव, डॉ. विजय प्रताप, उमर अली खान और सुनील कुमार चित्तौर शामिल हैं. पूर्व घोषणा के मुताबिक, अखिलेश यादव विधान परिषद का चुनाव नहीं लड़ेंगे. अखिलेश सांसदी का चुनाव लड़ने की बात कह चुके हैं. भाजपा अपने 11 प्रत्याशियों को विधान परिषद भेजने की तैयारी में है. विधानसभा में भाजपा विधायकों की संख्या 324 है. संख्याबल के आधार पर भाजपा के 11 प्रत्याशी विधान परिषद पहुंच सकते हैं, जबकि खाली होने वाली 13 सीटों में से केवल दो सीटें ही भाजपा के खाते की थीं.