आसपास के गांवों से इकट्ठा हुए लोगों से मुस्तकीम ने पानी मांगा, लेकिन दारोगा ने उसे नहीं देने दिया. काफी हुज्जत के बाद उसे पानी दिया गया तथा बाद में एक लक्ष्मी नारायण ने उसे चाय भी पिलाई. इधर इमामुद्दीन लगातार रोए जा रहा था तथा कह रहा था कि हम ग़रीब घर के हैं, हमें छोड़ दीजिए. इसी बीच थाने से भेजे गए चार सिपाही वहां पहुंच गए. जब उन्हें भरोसा हो गया कि मुस्तकीम ही पकड़ा गया है, तो दो सिपाही फिर थाने गए. लेकिन जिस टैम्पो से वे आए थे, उसे छोड़ गए. उस टैम्पो में हाथ-पैर बंधे मुस्तकीम को दो सीटों के बीच में डाल दिया गया और उसके ऊपर इमामुद्दीन को लाद दिया गया. सिपाही उनके ऊपर पैर रखकर बैठ गए. जब टैम्पो दस्तमपुर से गलुआपुर पहुंचा, तो वहां एक चक्की पर उन्हें उतार दिया गया और वहीं मारने की योजना बनी, लेकिन गलुआपुर के लोगों ने भी नहीं मारने दिया. पुन: दोनों को टैम्पो में लादकर डेरापुर की ओर ले जाया गया. गलुआपुर से एक किलोमीटर दूर रतवाहा नाला पड़ता है. उससे पहले पड़ने वाली पुलिया पर टैम्पो रोककर हाथ-पैर पकड़ कर मुस्तकीम को उतारा गया तथा नीचे सूखे नाले में बाईं करवट लिटा दिया गया. तब तक थानाध्यक्ष भी वहां आ गए थे.
मुस्तकीम बोला, जल्दी गोली मारो, लेकिन वादा याद रखना, उस लड़के को मत मारना. थानाध्यक्ष से उसने कहा, आप मुझे मार रहे हैं, अब मेरे हाथ-पैर खोल दीजिए, पर उसकी बात सुनी नहीं गई. आसपास के काफी लोग आ गए थे, जिनमें गलुआपुर और दस्तमपुर के भी लोग थे. डेरापुर की तऱफ से एक ट्रैक्टर भी आ गया था, जिसे दूर ही रुकवा दिया गया. इसके बाद पहले 12 बोर की बंदूक से गोली मारी गई, जो उसके पेट के दाहिने हिस्से में लगी. बाद में सिपाहियों और दारोगाओं ने राइफल से गोली मारी. मरते वक्त वह कुछ नहीं बोला. इसके पांच-सात मिनट बाद इमामुद्दीन को उतार कर गोली मार दी गई. दोनों लाशें चार घंटे तक वहीं पड़ी रहीं. गोली मारने के बाद अफसरों को सूचना दी गई, तो ग्रामीण क्षेत्र कानपुर के पुलिस अधीक्षक तथा बाद में दूसरे अधिकारी पहुंचे. अब मुठभेड़ की एक फर्जी कहानी गढ़ ली गई, लेकिन यह कहानी गढ़ते समय अधिकारी उन हज़ारों गांव वालों को भूल गए, जो इन घटनाओं को देख रहे थे. यह अजीब बात है कि मुस्तकीम की मौत का पांच ज़िलों के धनी वर्ग में खुशी के साथ स्वागत किया गया, पर ग़रीबों में कोई खुशी नहीं हुई. सबसे तकलीफदेह बात तो यह है कि पुलिस जान-बूझकर मुस्तकीम के साथी को कोई अज्ञात व्यक्ति बता रही है. उसका कारण यह है कि वह सचमुच निर्दोष था, उस पर कोई म़ुकदमा नहीं था. यदि वह ज़िंदा रहता, तो उन अस्सी हज़ार रुपयों की बात अवश्य करता, जिन्हें मुस्तकीम के पास से बरामद किया गया था. पुलिस इतनी बड़ी रकम से इंकार करती है. वस्तुत: पुलिस रिकॉर्ड में शुरू में पांच सौ रुपया ही दिखाया गया, पर बाद में दो हज़ार और बढ़ा दिया गया. गांव वालों का कहना है कि यदि मुस्तकीम के पास पैसे नहीं होते, तो पुलिस उसे नहीं मारती या मारती भी, तो पहले वह अधिकारियों को खबर अवश्य दे देती.
मुस्तकीम के विरुद्ध सबसे पहला अपराध कानपुर की कर्नलगंज पुलिस ने अपराध संख्या 85, धारा 379 के अंतर्गत दर्ज किया तथा उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. उस समय वह 17 वर्ष का था. जमानत पर छूटने पर जब मुस्तकीम को कोई काम नहीं मिला, तो वह छोटे-मोटे अपराध करने लगा. 1977 में औरय्या (इटावा) की पुलिस ने मुस्तकीम तथा उसके साथियों नसीम, फहीम तथा इब्राहिम को ट्रक लूटने की योजना बनाते हुए गिरफ्तार किया. कहा तो यह जाता है कि पुलिस ने कुछ झूठी गवाहियां दिलवानी चाहीं, जो उसने नहीं दीं, इसीलिए उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा प्रकाशित विवरण के अनुसार: मुस्तकीम के गैंग में सक्रिय सदस्यों की संख्या 26 है. इस गैंग के पास देशी तमंचों और बंदूकों के अतिरिक्त एक स्टेनगन, 3 एसएलआर, 4 राइफलें, 12 एसबीबीएल गन होना बताया जाता है. गिरोह लीडर मुस्तकीम पर 10,000 रुपये नकद पुरस्कार घोषित था. डकैत विक्रम मल्लाह की रखैल विक्रम की मौत के बाद इसी गिरोह में शामिल हो गई. इस गैंग ने कानपुर, जालौन, हमीरपुर व झांसी जनपदों में 78 जघन्य अपराध किए हैं. ये अपराध डकैती, हत्या व अपहरण के हैं. इस गैंग के साथ वर्ष 1980 में जनपद जालौन पुलिस से 11 अवसरों पर, हमीरपुर पुलिस से 3 तथा झांसी एवं कानपुर पुलिस से एक-एक अवसर पर मुठभेड़ हुई. इस वर्ष अब तक इस गैंग से छह बार मुठभेड़ हुई. 24 फरवरी, 1981 को जालौन पुलिस से एक मुठभेड़ में इस गैंग के छह डकैत, जिनमें बलवान सिंह भी शामिल थे, मारे गए थे. उक्त मुठभेड़ में इंस्पेक्टर भोगनीपुर श्री मूलचंद्र की मृत्यु हुई थी. इससे पहले 25 जनवरी, 1981 की मुठभेड़ में, जो थाना चकर नगर, ज़िला इटावा में हुई थी, 11वीं वाहिनी पीएसी के कांस्टेबुल विष्णु की मृत्यु डकैतों के हाथों हुई थी. दो वर्ष पूर्व इसी गैंग के साथ कालपी में हुई एक मुठभेड़ में एसआई स्वामीदीन दिवंगत हुए थे. आज दिनांक 4 मार्च, 1981 की प्रात: जब यह गैंग कानपुर ज़िले के डेरापुर थाना क्षेत्र के ग्राम दमतलपुर के निकट एक नाला पार कर रहा था, तब पुलिस ने इस गैंग को चैलेंज किया. इस पर दस्युओं ने पुलिस पार्टी पर अंधाधुंध फायरिंग की, जिसके जवाब में पुलिस द्वारा गोलियां चलाई गईं, जिसके फलस्वरूप इस गैंग का लीडर मुस्तकीम तथा उसका एक साथी मारा गया.
मुस्तकीम एक ग़रीब परिवार में पैदा हुआ था. उसके गांव मुलौली के पठान उसके परिवार से बेगार लेते थे. बचपन में वह भी काफी बेगार करता था तथा इस क्रम में भैसों को हांककर कई बार 60 किलोमीटर दूर कानपुर तक गया. बड़े होने पर उसने इसका विरोध किया, तो उसका घर उजाड़ दिया गया तथा उसके परिवार को भागकर चौरा तथा चांदापुर में शरण लेनी पड़ी. इसी बीच उसे जुए की लत लग गई और फिर धीरे-धीरे उसका संपर्क अपराधी तत्वों से होने लगा. अब वह पहलवानी भी करने लगा तथा अखाड़ों में कुश्ती लड़ने जाने लगा. मुस्तकीम के विरुद्ध सबसे पहला अपराध कानपुर की कर्नलगंज पुलिस ने अपराध संख्या 85, धारा 379 के अंतर्गत दर्ज किया तथा उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. उस समय वह 17 वर्ष का था. जमानत पर छूटने पर जब मुस्तकीम को कोई काम नहीं मिला, तो वह छोटे-मोटे अपराध करने लगा. 1977 में औरय्या (इटावा) की पुलिस ने मुस्तकीम तथा उसके साथियों नसीम, फहीम तथा इब्राहिम को ट्रक लूटने की योजना बनाते हुए गिरफ्तार किया. कहा तो यह जाता है कि पुलिस ने कुछ झूठी गवाहियां दिलवानी चाहीं, जो उसने नहीं दीं, इसीलिए उसे गिरफ्तार कर लिया गया. यहां से जमानत पर छूटने के बाद वह फरार हो गया और मरते दम तक फरार ही रहा. 9 जनवरी, 1979 को कालपी में उसने सब-इंस्पेक्टर स्वामीदीन की गोली मारकर हत्या कर दी थी, क्योंकि स्वामीदीन ने बलवान गड़रिया की बहन को उठाकर उससे बलात्कार किया था.
क्रमश: