नब्बे के दशक के मध्य और उसके बाद पुलिस सुधार का मसला एक केंद्रीय मुद्दा बन गया. राष्ट्रीय पुलिस आयोग द्वारा की गई सुधार की स़िफारिशें बीस साल बाद भी गुप्त तरीक़े से रखी गई हैं. अब इन्हें सार्वजनिक करने की ज़रूरत है, ताकि आम आदमी जान सके कि किस तरह की स़िफारिशें की गई हैं. पुलिस सुधार की स़िफारिशों के बारे में यदि आम आदमी थोड़ा-बहुत भी जान सका तो वह कुछ ग़ैर सरकारी संगठनों, सेवानिवृत्त और कार्यरत पुलिस अधिकारियों की कोशिशों का नतीजा है. साथ ही एक राजनीतिज्ञ के तौर पर इंद्रजीत गुप्ता के प्रयासों को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है, लेकिन उनकी अधिकांश कोशिशें पूरे देश की अपेक्षा दिल्ली की कुछ कार्यशालाओं और बैठकों तक ही सीमित रहीं. यहां यह ध्यान दिलाना महत्वपूर्ण है कि संविधान में पुलिस व्यवस्था की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों को दी गई है, लेकिन 1861 का पुलिस अधिनियम अभी भी केंद्र सरकार के अधीन है. यह कहना ग़लत होगा कि राज्य सरकारों ने पुलिस सुधारों के प्रति काम नहीं किया.
पुलिस व्यवस्था को आधुनिक बनाने के लिए राज्य सरकारों ने थोड़ी-बहुत कोशिशें की हैं. ऐसी कोशिशें ख़ासकर साठ के दशक में की गईं, जब कई राज्य सरकारों ने पुलिस सुधार के मामले में अपनी रुचि दिखाई. साथ ही इन सरकारों ने इस संदर्भ में आने वाली समस्याओं का पता लगाने के लिए कई विशेषज्ञों की टीम गठित की.
यही नहीं, राज्य सरकारों ने पुलिस आयोग की नियुक्ति की. मसलन 1961 में बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब की सरकारों ने इस दिशा में क़दम उठाया तो 1962 में महाराष्ट्र, 1968 में दिल्ली और असम की राज्य सरकारों ने भी अहम फैसला लिया. वहीं 1969 में तमिलनाडु सरकार ने भी पुलिस आयोग की नियुक्ति की. उत्तर प्रदेश ने 1971 और तमिलनाडु ने 2001 में दोबारा यह क़दम उठाकर एक उल्लेखनीय फैसला लिया. इनमें कई आयोगों ने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की स़िफारिशों को ही दोहराया, जैसे उपकरण, पुलिस व्यवस्था में मानव संसाधन, भर्ती, प्रशिक्षण, अनुशासनिक प्रक्रिया, ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस की कार्यशैली, क़ानून-व्यवस्था व जांच प्रक्रिया में अंतर, पुलिस के अधिकार और कर्तव्य, रिकॉडर्स का रखरखाव, पुलिस की नैतिकता एवं क्षमता, भ्रष्टाचार, समाज के साथ पुलिस का संबंध आदि. इन सबके बावजूद किसी भी आयोग ने पुलिस को जवाबदेह बनाने की तत्काल ज़रूरत पर चर्चा तक नहीं की.
राजनीतिक व्यवस्था की ख़ामियों ने सुधार की नीतियों में किसी तरह का बदलाव नहीं होने दिया. हालांकि इन सबके बावजूद न्यायिक मोर्चे पर पुलिस सुधार के वायदे किए जा रहे हैं. उच्चतम न्यायालय इस मामले में का़फी सक्रिय दिख रहा है और सुधार के मसले पर कई सकारात्मक निर्णय भी दे चुका है. संभवत: हवाला के ज़रिए विदेशी ख़ातों में पैसा जमा करना सबसे दिलचस्प मामलों में एक है. 12 जुलाई 1997 को नारायण नामक एक शख्स ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे एस वर्मा को एक चिट्ठी लिखी, जिसमें विस्तार से बताया गया कि 1996 से ही किस तरह हवाला घोटाले की साज़िश रची जा रही है. उस जनहित याचिका में ज़िक्र किया गया कि किस तरह शीर्ष नौकरशाह और राजनेता काले धन को स़फेद (वैध) बनाने में शामिल हैं. शीर्ष अधिकारियों और राजनेताओं के शामिल होने की वजह से जांच प्रक्रिया को भी प्रभावित किया जा रहा है. न्यायालय ने यह निर्देश दिया कि सीबीआई को स्वयं की कार्य प्रणाली पर संपूर्ण नियंत्रण होना चाहिए और उस पर किसी तरह का बाहरी दबाव नहीं होना चाहिए. न्यायालय का यह पहला निर्णय था, जबकि पुलिस की कार्य प्रणालियों पर बाहरी दबाव का सा़फ तौर से ज़िक्र किया गया.
1987 में सेवानिवृत्त न्यायाधीश डी के बासु ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की. इस याचिका में उन्होंने हिरासत में लिए गए लोगों की सुरक्षा और पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों पर विस्तृत जानकारी मांगी. याचिका में हिरासत के दौरान होने वाली हिंसा और संदिग्धों को हिरासत में लेने की प्रक्रिया का भी ज़िक्र किया गया. न्यायालय ने 1996 में एक प्राथमिक निर्णय दिया, जिसमें आम नागरिकों के अधिकार और पुलिस के साथ उनके संबधों का ज़िक्र किया गया. यह भी कहा गया कि हिरासत और क़ैद के दिशा-निर्देश सभी नागरिकों को मुहैया होने चाहिए यानी उक्त दिशा-निर्देश सभी पुलिस थानों में मौजूद होने चाहिए. कई दूसरी अर्द्ध न्यायिक संस्थाओं ने भी पुलिस सुधार की दिशा में योगदान किया. मसलन 1993 में संसद के एक अधिनियम के तहत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
(एनएचआरसी) का गठन किया गया. एक सांविधिक निकाय होने की वजह से एनएचआरसी के निर्देशों को पुलिस और सरकार दोनों मानती है. 1996 में आयोग ने कहा कि हिरासत में मौत अथवा बलात्कार के मामले में 24 घंटे के भीतर आयोग और पुलिस मुख्यालय को रिपोर्ट देना जरूरी होगा. साथ ही पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज़ करना भी आवश्यक है. दूसरे उदाहरण के तहत आयोग ने यह फैसला दिया कि न्यायिक हिरासत में मौत के मामले में रिपोर्ट पर 24 घंटे के भीतर एक सुनिश्चित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए. 1984 का सिख और 2002 का गुजरात दंगा हालिया और शायद सबसे भीषण घटनाओं में से एक हैं, जिनमें पुलिस की लापरवाही और राजनेताओं द्वारा पुलिस का दुरुपयोग देखा गया. इन घटनाओं के तथ्य आम आदमी के सामने हैं और अभी तक इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के मामले में न्याय का इंतज़ार है. कई पुलिस अधिकारी, जो भीड़ को उकसाने में शामिल थे, उन्हें राजनीतिक प्रतिष्ठान द्वारा पुरस्कृत किया गया. पुलिस व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत आम आदमी भी महसूस कर रहा है.
2002 के गुजरात दंगे और कई दूसरी घटनाओं ने पुलिस सुधारों के लिए सरकारी प्रयासों पर का़फी प्रभाव डाला. भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों ने अपने घोषणा पत्रों में पुलिस सुधार और पुलिस को पेशेवर बनाने का वायदा किया, लेकिन 1999 और 2004 में उनकी सरकार बनने के बावजूद ज़मीनी स्तर पर कुछ भी नहीं किया गया. 2005 के बाद से इस मामले में कुछ क़दम उठाए जा रहे हैं, जिनसे पुलिस सुधारों के प्रति आम आदमी को उम्मीद की एक रोशनी नज़र आती है. एक सितंबर 2005 को प्रधानमंत्री ने एक सम्मेलन बुलाया और उन्होंने सभी ज़िलों के शीर्ष अधिकारियों को पुलिस के सामने आने वाली चुनौतियों एवं उसकी अक्षमताओं पर अपने विचार साझा करने के लिए कहा. प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि सुधार की योजनाएं, जो बग़ैर किसी योजना के अंतर्गत हैं, अब व़क्त आ गया है कि उन्हें विकास की योजनाओं से जोड़ा जाए. इसी साल यानी 2005 में मॉडल पुलिस अधिनियम का मसौदा तैयार करने में ग़ैर सरकारी संगठनों को शामिल कर एक ऐतिहासिक कोशिश की गई.