भिन्न भाषायी काव्यरचनाओं के दो मिलते—जुलते प्रतिपाद्य का यहां जिक्र है। इनमें संभावनाओं, संयोग और संजीदगी का पुट ढेर में है। अत: मन को नीक लगता है। कल्पना को झकझोरता है। हृतंत्री को निनांदित भी। संदर्भ है कवि टामस ग्रे की ”एलेजी” (शोक—गीत) जिसकी बरसी (1752 में रचित) आज, फरवरी 16, पड़ती है। इत्तिफाक से बंसत पंचमी पर ही। सृजन तथा नवसंचार का माहौल भी है। कामायनी (जयशंकर प्रसाद की कालजयी कृति) से इसका सादृश्य होना अनायास ही हैं।
उदाहरणार्थ वहां प्रलय के बाद का विध्वंसक नजारा है। शिला की छांव तले बैठा मनु सोचता है। इधर ”एलेजी” में गांव (ब्रिटेन) के चर्च परिसर में दफन हुये लोगों पर कवि कल्पना करता है। ये लोग कैसे रहे थे? क्या हो सकते थे? क्यों हो नहीं पाये? बस इसी बिन्दु से कल्पनायें, अवधारणायें और सोच के नये आयाम मस्तिष्क खोजता रहता है, कुछ पाता है, कई लांघता भी है। किन्तु तलाश जारी रखता हैं।
मसलन टामस ग्रे चर्च में फैले कब्रों तले दफन लोगों के विषय में ख्याल करते हैं। अपने शब्दों में पेश करते हैं कि इनमें न जाने कितने सुगंधित पुष्प जैसे रहे होंगे जिनकी खुशबू (व्यक्तित्व) इसी बालुई धरा में गुम हो गयी होगी। इनमें न जाने कितने लोग हीरा—मोती जैसे रहे होंगे। पर धूलभरे धरातल में ही गुम हो गये, बिना चमके। फिर कवि याद कर सोचता है उन सागर की गुहाओं में दबे, छिपे अंसख्य रत्नों के बारे में जो बिना प्रगट हुये, बिना दमके, जलतले ही पड़े रह गये।
यथा मनुष्य खुद अपनी जीवन में आकांक्षाओं के भार से दबा रहे। इस पर गीतकार नैराश्य व्यक्त करता है कि गांव में पड़े कई रचनाकर्मी अवसर के अभाव में उभर नहीं पाये। भारत की पृष्टभूमि में कितने उदीयमान कवि अंचलों में ही सीमित, लुप्त होकर रह गये होंगे। टामस ग्रे स्वयं जीते जी ब्रिटेन के महान कवि बनने से चूक गये। हालांकि अपनी ”एलेजी” लंदन में प्रकाशित के बाद, वह ख्याति की ऊंचाई पर पहुंच गये थे।
तो कवि प्रसाद और रचनाकार टामस ग्रे की पंक्तियों को आज के संदर्भ में तराशे, उनमें नये मायने खोजे। गौर करें जरा। मल्लाह को किराया देने के लिये दो पैसे नहीं थे। वह तरुण तैरकर नदी पार करता था। पाठशाला जाने के लिये खुद मौका ढूंढा। वह भारत का द्वितीय प्रधानमंत्री बन गया। चर्मकार की दुहिता आईएएस परीक्षा की तैयारी कर रहीं थीं। नसीब चमकी कि लखनऊ में मुख्यमंत्री बनकर वरिष्ठ आईएएस पर ही हुक्म चलातीं थीं। फरगना (चीनी तुर्किस्तान) का छोटा सा जागीरदार था। उसे उसके चाचाओं ने बेघर कर दिया था। उस उजबेकी युवक ने लुटेरों और बटमारों को बटोरकर दिल्ली पर हमला किया। जीत गया तो अयोध्या में ढांचा खड़ाकर दिया। उसे तोड़कर मंदिर बनाने में पांच सदियां लग गयीं।
एक अंग्रेज सिपाही ने कोलकाता कब्जियाकर, मद्रास (चेन्नई) पर राज किया। एक बार ऊंची इमारत से छलांग लगाकर आत्महत्या का प्रयास किया। भारत का दुर्भाग्य था कि वह बच गया। फिर पूरे आर्यावर्त पर उसने बर्तानी हुकूमत लाद दी। राबर्ट क्लाइव नाम था उसका। यदि उसके ”गाड” (ईश्वर) उसे शीघ्र बुला लेते तो भारत में अंग्रेजी पैठती ही नहीं। राष्ट्रभाषा का झमेला ही नहीं होता।
के. विक्रम राव