ज्योति खरे कीपतंग की तरह कविताएं:ब्रज श्रीवास्तव

आज कवि ज्योति खरे की तीन कविताएँ प्रस्तुत हैं।
इन कविताओं ने कविता को परिभाषित कर दिया है।जिन कविताओं में अर्थ लय और भाव गति हो,मुद्दे तो जलते हुए हों,मगर उन्हें फील करते हुए अभिव्यक्ति का अंदाज़ थोड़ा भेदक हो तो वे अपने आप ही निर्बाध चलती हैं।ये कविताएं ऐसी ही हैं।जिस कविता में आग ही हो उसमें फूल कितने ही जमाओ,दिखाई नहीं देते।इसलिए ज्योति जी ने अपनी स्टाइल ऐसी ही चुनी है।वे कविता को लिखने के पहले ही उसके ढीले तारों को कस लेते हैं।फिर बजाते जाते हैं अपना राग।

उनकी कविताओं को अभी चर्चाओं के सघन दौर से भी गुजरना है।दरअसल वह भी अभी सिद्ध आलोचनाओं और प्रसिद्ध संस्थाओं द्वारा टीकित नहीं किए गए हैं।उनकी क्षमताओं ने हालांकि अपनी पतंग खुद आसमान में थाम रखी है,और वह सुंदर लग रही है।

आइए पढ़ते हैं उनकी कविताओं को।और उन पर समीक्षाओं को।

1

सेठ जी
**
सेठ जी
मेरी जवानी
आपको संतुष्ट करने
कोल्हू के बेल जैसी जुती रहती है
और मेरे बच्चों की भूख
आपके दिए हुए
एक मुट्ठी चांवल
और दो मुठ्ठी गेहूं
पर टिकी है

धुंधलाती शाम
लौटता हूं घर
गंध मारते पसीने
और धूल से लिपटा हुआ
ओढ़कर खाली पेट पर थकान
दौड़ने लगता हूं
कच्ची नींद में
पथरीली जमीन पर
अपने हिस्से का
सुनहरा सपना पकड़ने

लेकिन सेठ जी
आपकी याद आते ही
बजने लगते हैं
जोर जोर से फेंफड़े
दहशत में
घुस जाता हूं
कंटीले तारों के झुंड में
घबडाकर बैठ जाता हूं ऊकडूं

सेठ जी
सुना है
जो लोग
यातनाओं की सड़क पर चलते हैं
पलती हैं उनके भीतर भी कामनाएं
मैं बहुत थक चुका हूं
यातनाओं की सड़क पर चलते चलते
अब इतना तो साहस जुटा ही चुका हूं
कि, विद्रोह का बिगुल बजा सकूं

सेठ जी
मैं आपको
आज से,अभी से
मुक्त करता हूं
जा रहा हूं
किसी बंजर जमीन पर
असंभव को जोतकर
नयी फसलें ऊगाने—-

◆ज्योति खरे
———–
2
और एक दिन
*****
घंटों पछाड़कर फींचती है
फिर खंगारकर निचोड़ती हुई
बगरा देती है
घाट के पत्थरों पर
सूखने
अपने कपडे
जैसे रात में पछाड़कर कलमुहों ने
बगरा दी थी देह

बैठ कर घाट पर उकुडू
मांजने लगी
तम्बाखू की दुर्गन्ध से भरे दांत
दारु की कसैली भभकती
लार से भरी जीभ
देर तक करती रही कुल्ला

उबकाई ख़त्म होते ही
बंद करके नाक
डूब गयी नदी में
कई डुबकियों के बाद
रगड़कर देह में साबुन
छुटाने लगी अंग-अंग में लिपटा रगदा

नदी बहा तो ले जाती है रगदा
नहीं बहा पाती
दरिंदों से भरी गंदगी
नदी तो खुद छली जाती है
पहाड़ों की रगड़ से

हांफती, कांपती
चढ़ रही है घाट की सीढियां
जैसे चढ़ती है एक बुढ़िया
मंदिर की देहरी

गूंज रही है
उसके बुदबुदाने – बडबडाने की आवाज़
जब तक जारी रहेंगी बतौलेबाजियाँ
घाट की सीढियां
इसी तरह रोती रहेंगी

और एक दिन
सूख जाएगी नदी
रगदा बहाते बहाते —–

◆ज्योति खरे
——-
3
आसमान तुम चुप क्यों हो
********
आश्चर्यजनक होगी
धरती की दुनियां
मजदूर के
काट दिए जायेंगे हांथ

नहीं सिकेंगी चूल्हे में रोटियां
पाठशाला घर घर होगी
पाऊच में संवेदना बिकेगी
हंसी हमारी छीनकर
निर्यात कर दी जाएगी

हो जाएगा
धरती की दुनियां में
आवश्यकताओं का पेटेंट
कम्प्यूटर सबसे चहेता रिश्तेदार होगा

फिनाईल की गंध होगी वातावरण में
दंगा,हत्या,बलात्कार
आम बात होगी

हमारी सभ्यता का इतिहास
नये सिरे से
फ्लापी में कैद होगा
कला कुंद दिमागों को
जन्म देगी
कोई नहीं पढ़ेगा
प्रेमचंद नागार्जुन निराला
पढ़ा जायेगा तो बस
मस्तराम गदरीला

बर्फ की तरह जम जाएंगी
इच्छाएं मनुष्य की
मूक दर्शक की तरह
खड़ा रहेगा समय
नहीं बचेंगे
हरियाली को बचाने वाले

मनुष्य की नस्ल बचाने की
कोशिश धरी की धरी
रह जायेंगी
कौन करेगा बीच बचाव

बंजर धरती पर
अंकुरित नहीं होगा बीज
नहीं चलेगी हवा
नहीं बरसेगा पानी

धरती की दुनिया में
मनुष्य की चीख में
शामिल होगा
एक सवाल
आसमान तुम चुप क्यों हो—

◆ज्योति खरे

टिप्पणियां

सुनीता पाठक

ज्योति खरे जी कविताएं आज पटल पर पढ़ने का अवसर मिला है। जन सामान्य के आक्रोश को दर्शाती कविता सेठ जी,
एक दमित जीवन की सुप्त ज्वालामुखी को समेटे है।

और एक दिन सूख जाएगी नदी
रगदा बहाते बहाते
हमें सोचने की विवश करती है कि अब भी न चेते तो विनाश तय है।

आसमान से पूछे सवाल दरअसल
हमारे दिल पर कड़ी चोट कर रहे हैं

इन संवेदनाओं को साधुवाद
धन्यवाद सा की बा

बबीता गुप्ता

मिथलेश राय

एक अच्छी कविता की रचना प्रक्रिया ठीक उसी तरह से गुजरती है, जैसे, विज्ञान की रचना प्रक्रिया, या कविता स्वयं को व्यक्त करने की क्रमिक प्रक्रिया है। जबकि विज्ञान किसी वस्तु के निर्माण का तरीका है साधन है, दोनों ही प्रक्रिया में साम्य है समन्वय हाई, परन्तु आज की कविता दुर्घटनाओं की तरह हमारे सामने से गुजर रही है, इस तरह विज्ञान के बढ़ते प्रभाव के कारण आज कवि और कविता उपभोक्तावाद, बाजारवाद, आधुनिकता के मकड़जाल में फंसता जा रहा है।
आज जीवन की प्रासंगिकता और सार्थकता दोनो खतरे में दिखाई दे रही है। आप की तीनों ही कविता के मूल में हम यही पाते है।
आप कविता लिखते नही बल्कि कविता लिखते हुए खुद निचोड़ते है, उसमे सत्य को श्रमसाध्य तरीके से खोजने की जिद्द भी दिखाई पड़ती है।
यथा-
जा रहा हूँ ,
किसी बंजर जमीन पर
असम्भव को जोतकर,
नयी फसलें ऊगाने

लोभ, घृणा एवम हिंसक वृत्तियों की गिरफ्त से मनुष्य को आज़ाद कराने की अपील आपकी कविता में है, वैचारिक थोटेपन अंधविश्वास, अत्याचार से कठमुल्लापन से आप अकेले ही सतत लड़ रहे है, जो बेहद जरूरी कविकर्म है। आदमी होने की लडाई लड़ते रहना बेहद आवश्यक है।जो आप सहज ही बिना कवि होने के ट्रेड मार्क के भी रखे हुए है। सर्जनात्मक यातना झेलते हुए कविता लिखना बहुत दुष्कर कार्य है पर आप सतत उसमे लगे हुए है। आप बेहद उचित बात कहते है।

जब तक जारी रहेगी बतौलबाजियां
घाट की सीढ़ियां
इसी तरह रोती रहेंगी

एक मननशील व्यक्ति के रूप में आप कविता के माध्यम से मनुष्य को स्व के प्रति जागरूक करते हुए उसे एक दूसरे के करीब लाने की संभावना की तलाश करते है। आप का अंतिम विश्वास कविता पर ही ठहरता है कि इस समय मे जब आदमी अपने जड़ों से उखड़ता जा रहा है, कविता से ही उसे बचाया जा सकता है, आप सजग करते हुए कहते है।

हो जाएगा
धरती की दुनियां में
आवश्यकतओं का पेटेंट
कम्प्यूटर सबसे चहेता रिस्तेदार होगा

आपकी सभी कविता अच्छी लगी पढ़ने से हम सम्वेदना की एक अलग भावभूमि में स्वयं को पाते है। आपका आभार धन्यवाद

अजय श्रीवास्तव

आ0 ज्योति खरे जी की 3 कविताएं

1- सेठ जी

मुख्यतया असंगठित क्षेत्र/निजी क्षेत्र के कामगारों का निष्ठुर पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा शोषण को केंद्रीय भाव में लेकर रची गयी कविता है।सिवाय मालिक के सबका अलग अलग स्तर पर संवेदनहीन दोहन हो रहा है।
अंत में त्रस्त होकर शोषित के माध्यम से यह कहा जाना सेठ जी आपको मैं अपनी जिम्मेदारी से मुक्त करता हूँ …यह पराकाष्ठा है।

कोरोना काल में घर लौटे बहुत से श्रमिकों द्वारा अपना खुद का काम करना ,सफल होना भी इस बात का परिचायक है,कविता के अभिप्राय का समर्थन करता लगता है।

2- और एक दिन

नारी के शोषण पर लिखी मार्मिक कविता है।नारी विमर्श पर अनेक कविताएं लिखी गयी हैं ,किन्तु सफलता की कहानी गढ़ने वाली ,हौसला बुलंद करने वाली कविताओं की कमी है।किसी को लगातार कमजोर कहना भी योजनाबद्ध तरीके से उसके मानसिक संबल को कमतर करने जैसा ही है।
यदि आर्थिक व शारीरिक सुदृढ़ता का परिचय नारी वर्ग दे तो आत्मनिर्भर होने में समय न लगेगा।
नारी की शोचनीय दशा पर ज्योति जी की अच्छी कविता।

3- आसमान तुम चुप क्यों हो …

अंधाधुन्द विकास से उतपन्न विकट परिस्थितियों को रेखांकित करती हुई कविता…

पाश्चात्य का भौतिकवादी दर्शन ने इस बात को ज्यादा बल दिया कि जब तक जीवित हो,अपनी सुख-सुविधा के लिये उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों का यदि क्रूरता से भी दोहन करना है तो कीजिये …अगला जन्म होगा या नही …यह प्रश्न बेमानी है।
सनातन परंपरा में विकास के साथ प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने का पूर्णतया ध्यान रखा जाता था व अनुकरण होता था।
सामयिक स्थितियों में क्लाइमेट चेंज के कारण गर्मी ,अतिवर्षा आदि का जो प्रकोप देखना पड़ रहा है यह उसकी ही बानगी है।

आसमान ने तो वेद दे दिए …पढिये,समझिए,अनुपालन कीजिये

बाकी उसका न्याय निरपेक्ष ही रहता है…😃

यह कविता भी भविष्य के खतरों को आगाह करती हुई प्रतीत हुई।

आ0 ज्योति खरे जी ,अपनी बात सीधे सीधे संप्रेषित करना चाहते हैं , बिना किसी लाग-लपेट के,जो काफी प्रभावित करता है।साहित्यिक जगत में प्राप्त सम्मान भी बहुत महत्वपूर्ण हैं।

पुनः ज्योति खरे जी को बधाई व शुभेच्छाएँ

~अजय कुमार श्रीवास्तव

आनंद सौरभ

आज पटल पर आदरणीय ज्योति खरे जी की कविता को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा।
आपने समाज के दुख को करीब से देखा है, हर प्रकार के अन्याय, अत्याचार, अनाचार और गैर बराबरी के खिलाफ आवाज़ उठाती कविताएं।

आप की कविताएं बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं, क्योंकि यह शोषित और वंचितों वाले वर्ग को सामाजिक न्याय दिलाना चाहती हैं।
गहरी संवेदनाओ से भरी आपकी भाषा ने भी बहुत प्रभावित किया है।
तीनों कविता सेठ जी, और एक दिन, आसमान तुम चुप क्यों हो पाठक के अंदर एक बेचैनी पैदा करती है।
कविता भीतर उठ रहे प्रतिरोध को व्यक्त करना चाहती है ,तकलीफ से सीधे-सीधे साक्षात्कार कराने के साथ आक्रोश की चोट भी सुनाई देती है।

उत्कृष्ट लेखन है आपका।
बेहतरीन लेखन के लिए आदरणीय खरे जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई🙏

शुक्रिया साकीबा💐👏

हरगोविंद मैथिल

आज पटल पर आदरणीय ज्योति खरे जी की कविताएं सहज सरल और संप्रेषणीय है जो पाठक को आकर्षितत करती है पहली कविता सेठ जी श्रमिक वर्ग के मनोदशा की अभिव्यक्ति है यह सही है कि यदि सभी श्रमिक जागरूक हो जाएं तो वह बंधनमुक्त होकर अपने स्वतंत्र जीवन की शुरुआत कर सकते हैं ।
और एक दिन इसमें नदी को प्रतीक मानकर नारी मन की पीड़ा को अभिव्यक्त करती बहुत मार्मिक कविता
आसमान तुम चुप क्यों हो कविता में की गई भविष्यवाणी वर्तमान समाज में अक्षरश: चरितार्थ होती दिखाई दे रही है । आज मनुष्य इतना भौतिकवादी हो गया है कि उसके लिए मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह गया है ।
सही कहा आपने कंप्यूटर या मोबाइल ही अब व्यक्ति का सगा सबंधी है ।
आदरणीय ज्योति खरे जी को हार्दिक बधाई और पटल का बहुत आभार
हरगोविन्द मैथिल

शिवानी जयपुर.

हमेशा से पसंद हैं मुझे ज्योति खरे सर की कविताएँ🙏💐
सेठ जी कविता बहुत ही मार्मिक है!
इतना आसान है क्या मुक्त होना और मुक्त करना! पर ऐसा सोचना बहुत ही हिम्मत की बात है! जब ऐसा सोचना शुरू होगा तो एक दिन कर भी दिया जाएगा!

और एक दिन
बहुत ही स्तब्ध कर देने वाली कविता है! दैहिक शोषण की शिकार स्त्री की मन: स्थिति और नदी का बिम्ब!
उस पर देशज शब्दों का प्रयोग! बहुत कमाल!

आसमान तुम चुप क्यों हो
वर्तमान बदलते परिवेश का शाब्दिक चित्र है ये कविता!

मधु सक्सेना,रायपुर

ज्योति खरे जी की कविताएं बहुत दिनों से पढ़ रही हूँ ।वे मेरे पसंदीदा कवियों में से एक है ।

1..मजदूर के मुख से उसी का दर्द कहकर ,कहने की एक राह प्रशस्त कर दी ।समस्या के साथ समाधान भी.. की अन्याय के खिलाफ बोलना जरूरी है ।हक़ के लिए आवाज़ उठाना ही होगा …सरल शब्दों में कठोर कविता ..

2..स्त्री के दुख … और उस पर हुए अत्यचार का विरोध अपनी भंगिमाओं से दिखा देती है ।जुबान की खामोशी की छटपटाहट उसके रोजमर्रा के काम करने के तरीकों से व्यक्त होती है ।नदी और स्त्री आखिर कब तक किसी के पाप का बोझ सम्हालेगी ?
एक दिन नष्ट हो जाएगी ।
सोचलो क्या होगा जब नदी नहीं होगी और स्त्री भी नही होगी । इसलिए समय रहते सावधान… बचा सको तो बचा लो ।समझो इनकी भाषा और और महत्व …

3..मनुष्य की चीख में शामिल होगा एक सवाल
आसमान तुम चुप क्यों हो
इन पंक्तियों में भी पूरी कविता का सार है …
कमज़ोर की चीख और सक्षम की चुप्पी …
सक्षम जब मौन होगा तो दुनिया बदल जाएगी ..
कविता डराती है । भय होना जरूरी है। भय ही हमे सावधान बनाता है । समय का जो ख़ाका खींचा है कवि ने वो चेतावनी की तरह है ।
मनुष्य को जगाने का प्रयास है ।कवि कर्म की सार्थकता है ।

ज्योति जी की कविताये अपने आसपास के प्रति सचेत है ।अच्छे बुरे की पहचान में सक्षम है और राह भी निर्मित करती
है ।बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई और शुभकामनायें ज्योति खरे जी को ..
💐💐💐💐
मधु सक्सेना

नीलिमा करैया

आपकी कविताएँ!ओह!!
विद्रोह, आक्रोश और बगावत की कविताएँ हैं ।
सभी कविताएँ भले ही नाम से अलग-अलग हैं पर शैली और तेवर लगभग एक से।
सबके लिये इस तरह की कविता लिखना सरल नहीं।
सेठ जी कविता में आपने श्रमिक या मजदूर कहें, की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी और मुक्ति का बिगुल बजाने का ऐलान भी किया।
और एक दिन
इस कविता में नदी और नारी की पीड़ा को समान मानते हुए उस अन्तहीन पीड़ा को शनैः- शनैः मृत्यु की ओर जाते महसूस किया।
आसमान तुम क्यों चुप हो
यह कविता भविष्य का दर्पण है।एक पल सिहरन होती है!हम अपने आने वाली पीढ़ी को कैसी दुनिया देकर जा रहे हैं ।
बेहद डरावना है सब।

मात्र तीन कविताएँ!पर बेहद दमदार । बेहतरीन और सटीक शब्द-संयोजन! एक शब्द भी अनावश्यक नहीं । गहरी सच्चाई की व्यथा। आपके चिंतन की गहराई मानव के सर्वहारा वर्ग के प्रति अति संवेदनशील है।
एक बात पर हम थोड़ा हिचक के साथ कहना चाहते हैं-
सेठ जी कविता में सेठ जी तो मुक्त हैं ही। बंधक आप हैं (मजदूर) अतः मुक्त मजदूर हो रहा है।
बस आपको की जगह स्वयं को लिखना पर्याप्त होगा । अगर उचित समझें तो वर्ना तो कुछ ऐसा नहीं जिस पर लाल कलम चले।

 

🟣

 

तीनों कविताओं में वर्तमान परिवेश के ज्वलंत मुद्दों पर गहरी भावाभिव्यक्ति…
पूंजीवादी समाज की शोषण प्रवृति पर रचित कविता सेठजी अंतर्मन की सुप्त स्वाभिमानी जीवन जीने की कामना को प्रबल होकर विद्रोह का बिगुल बजाकर जतलाती हैं कि उसकी भी आकांक्षाएं हैं…
यातनाओं की सड़क पर चलते हैं
पलती हैं उनके भीतर की कामनाएं।
अब वो कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात जुतकर आपको संतुष्ट नही करेगा बल्कि…
किसी बंजर जमीन पर
असंभव को जोतकर
नयी फसल उगाने।
इन पंक्तियों में बहुत गहरे अर्थ छिपे… पांव तले दबाने की सोच को बदलने के …कि वो अपनी कर्मठता,दृढ़ इच्छा शक्ति से ओहदा बदलकर एक नयी फसल उगाना यानि अपने विषय में नई परिभाषा गढ़ सकता हैं। बहुत सटीक बात कह दी सामाजिक प्रस्थिति को बदलने की।
नदी को नारी का प्रतीक बनाकर उसके शोषण पर रचित और *एक दिन कविता.* ..स्त्री विमर्श क्यों उसे आज भी भोग की वस्तु समझा जाता हैं।
नदी तो खुद छली जाती हैं
पहाड़ों की रगड़ से
नारी शोषण के खिलाफ दिखावे की आंदोलित करती आवाजों पर तंज कसा…उसे नक्कारखाने की तूती ही समझा जाता हैं…
घाट की सीढियां इसी तरह रोती रहेंगी
और एक दिन सूख जायेंगी
नदी रगदा बहाते-बहाते।
भविष्यवक्ता बनती रचना *आसमान तुम चुप क्यों हो?* संवेदनहीन स्वार्थलोलुप संसार की झांकी …जीवन को आसान बनाने की तकनीकि ने जीवन को जटिल बना दिया…
हो जाएगा धरती की दुनिया में
आवश्यकताओं का पेटेण्ट
कम्प्यूटर सबसे चहेता रिश्तेदार हैं
आधुनिकता का जामा पहने कठपुतली बना मानव संस्कारो सभ्यता से निर्मूल होता पाश्चात्यीकरण तले ….अपने इतिहास को विस्मृत कर व्यक्तिवादिता में दफन कर दिया…
कोई नहीं पढ़ेगा प्रेमचंद नागार्जुन निराला
पढ़ा जायेगा यो बस मस्तराम गदरीला
आने वाले समय की भयावही डरावनी तस्वीर की झलक जो चेताती हैं खुद के पैर पर कुल्हाड़ी पटकते दिग्भ्रमित इंसान को विशेषकर युवा पीढ़ी को जो अपनी जड़ों से कटकर एक दिशाहीन डगर पर अंधाधुंध अनुकरण अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए घातक बन रहा हैं।
बेहतरीन कवितायें पढ़वाने के लिए आभार साकीबा मंच।
बहुत-बहुत बधाई, ज्योति सर!

बबीता गुप्ता

 

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