मोदी सरकार की विदेश मंत्री हैं सुषमा स्वराज, लेकिन एक विदेश मंत्री के तौर पर न तो उनके काम बोल रहे हैं और न ही मीडिया उनको तवज्जो दे रही है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि विदेश मंत्रालय को साइलेंट कर सारे नीतिगत फैसले पीएमओ ले रहा है और पीएमओ के फैसले की जानकारी विदेश मंत्रालय को पहुंचाई तक नहीं जाती. ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब पीएमओ ही विदेश मंत्रालय का काम देख रहा है तो सुषमा विदेश मंत्री के तौर पर क्या कर रही हैं…
पीवी नरसिम्हा राव, प्रणब मुखर्जी, यशवंत सिंह सहित अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने विदेश मंत्री के तौर पर भारत से अंतर्राष्ट्रीय संबंध को एक नये मुकाम तक पहुंचाया. ये मंत्री अपने मंत्रालय का काम बिना किसी रोकटोक के अंजाम देते थे, लेकिन मोदी सरकार की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के साथ ऐसा नहीं हो पा रहा है. सुषमा विदेश दौरे तो जरूर कर रही हैं, लेकिन अन्य देशों के साथ भारत को कहां तक मुकाम तय करना है, किस समय कौन निर्णय लेना है, इसका निर्णय कोई और ही कर रहा है. भले ही सुषमा स्वराज भारत सरकार में विदेश मंत्री हैं, लेकिन हाल के दिनों में सुषमा को कोई बडा फैसला लेते नहीं देखा गया और न ही मीडिया ने उन्हें कभी उचित कवरेज दिया. कहा तो यहां तक जाता है कि विदेश नीति संबंधी सारे निर्णय पीएमओ लेता है. सूत्रों का यह भी कहना है कि पिछले 6 महीने में विदेश मंत्रालय ने राजदूत और हाई कमिश्नर की नियुक्तियों पर जितनी सिफारिशें भेजीं, उनको पीएमओ ने कबूल ही नहीं किया. पूर्व डिप्टी नेशनल सिक्योरिटी अडवाइजर नेहचल संधु को हटाने का मसला हो या विदेश सचिव सुजाता सिंह की बर्खास्तगी के बाद उनकी जगह अमेरिका में भारतीय राजदूत सुब्रमण्यम जयशंकर की नियुक्ति का मसला हो, सारे फैसलों पर हरी झंडी मिली तो पीएमओ के इशारे पर. बताया जाता है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज सुजाता सिंह को हटाने के पक्ष में नहीं थीं. सूत्रों के मुताबिक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और सुषमा स्वराज में सुजाता सिंह पर तनातनी की स्थिति थी. हालांकि मामला ज्यादा लंबा न खिंचे, इसलिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्वीट कर बताया कि वह जयशंकर की नियुक्ति पर हुए फैसले में पूरी तरह से शामिल थीं. कहा तो यहां तक जाता है कि इस फैसले की जानकारी आधिकारिक तौर पर विदेश मंत्रालय को नहीं दी गई थी. मोदी सरकार द्वारा सुषमा स्वराज की जासूसी की भी मीडिया में खबरें सुनने को मिलीं.
सवाल यह उठता है कि एक विदेश मंत्री के तौर पर आखिर सुषमा स्वराज क्या कर रही हैं. यह सवाल इसलिए भी खडा हो रहा है, क्योंकि विदेश मंत्रालय से संबंधित छोटे नीतिगत फैसलों की भी जानकारी सुषमा या उनके मंत्रालय को नहीं दी जाती. सच्चाई तो यह है कि मोदी विदेश नीति पर शुरू से ही काफी संजीदा हैं. जिस तरह से अपने शपथ ग्रहण समारोह में अपने पडोसी देशों को उन्होंने बुलाया और प्रमुख देशों की यात्रा की, उससे यह साफ है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने विदेश नीति के विजन को अमलीजामा पहनाने की ठान चुके हैं. वास्तव में देखा जाए तो मोदी सरकार अपनी विदेश नीति को लेकर प्रो-एक्टिव होना चाहती है, क्योंकि वह यूपीए सरकार की ढुलमुल विदेश नीति को हरगिज नहीं अपनाना चाहती. यही कारण है कि मोदी अपने सरकार की विदेश नीति को मुख्य रूप से चार कसौटियों पर कस कर चल रहे हैं. पहला, अमेरिका से संबंधों को मजबूत बनाना, जापान से रिश्तों को नए सिरे से परिभाषित करना, पड़ोसी चीन से संवाद में सीमा से जुड़े मसलों के साथ-साथ व्यापारिक संबंधों पर खास फोकस देना और साउथ एशिया के पड़ोसी मुल्कों से फिर से रिश्तों में नई जान फूंकना.
सुषमा के मंत्रालय को साइलेंट करना या फैसला लेने के अधिकारों से वंचित करना यह बताता है कि मोदी सरकार को सुषमा या उनके अधिकारियों के फैसले पर विश्वास नहीं है. मोदी सरकार का यह फैसला अनायास नहीं है, क्योंकि पूर्व के विदेश मंत्रियों के कार्यों पर नजर डालें तो हम पाएंगे कि उन्होंने अपने हूनर और कार्यों से खुद को प्रूफ किया और उनके मंत्रालय का कामकाज सरकार के सिर चढकर बोला. प्रणब मुखर्जी जब विदेश मंत्री थे तो अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार सन्धि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुए हस्ताक्षर जैसे कार्य किए. पी वी नरसिम्हा राव की विदेश मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान 1981 में गुट निरपेक्ष देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन में उनकी भूमिका के लिए बहुत प्रशंसा की गई थी. श्री राव विशेष गुट निरपेक्ष मिशन के भी नेता रहे, जिसने फिलीस्तीनी मुक्ति आन्दोलन को सुलझाने के लिए नवंबर 1983 में पश्चिम एशियाई देशों का दौरा किया. अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने विदेश मंत्री रहते भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारने का भरसक प्रयास किया. वाजपेयी के करीबी लोगों का कहना है कि वाजपेयी ने पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने का प्रयास 70 के दशक में मोरारजी देसाई की सरकार में बतौर विदेश मंत्री रहते हुए ही कर दिए थे. इस तरह से हम देखें तो अपने पूर्व के विदेशमंत्रियों की तुलना में सुषमा स्वराज के कार्य कहीं नहीं ठहर पाते. इसके पीछे उनकी खुद ही नीतियां ही जिम्मेदार हैं, क्योंकि अगर वे खुद को प्रूफ कर पातीं तो मोदी सरकार उन्हें स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए जरूर आने को कहती. प