नीम हकीम खतरा-ए-जान. यह कहावत आपने सुनी होगी. केंद्र सरकार एक ऐसा काननू पारित करने जा रही है, जो देश में नीम हकीमों को जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करने की कानूनी छूट दे देगा. यही नहीं इस कानून के पारित हो जाने के बाद प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ आ जाएगी, जो अपनी मर्ज़ी से एमबीबीएस की सीटें बढ़ा सकेंगे और मनमानी फीस की वसूली कर सकेंगेे. देश के छात्रों को अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रैक्टिस लाइसेंस हासिल करने के लिए रूस जैसे देशों से मेडिकल की पढ़ाई कर लौटे डॉक्टरों के साथ एग्जिट परीक्षा में बैठना होगा. इस कानून के पारित होने के बाद मेडिकल की पढ़ाई महंगी तो होगी, लेकिन इसके फलस्वरूप जनता के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं भी महंगी हो जाएंगी. यह कानून है राष्ट्रीय मेडिकल आयोग बिल 2017. साथ ही इस कवर स्टोरी में हमने देश की स्वास्थ्य नीति और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की भी तस्वीर आपके सामने रखने की कोशिश की है, ताकि देश की तत्कालीन और भविष्य की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की तस्वीर पाठकों के समक्ष आ सके.
पिछले वर्ष अगस्त महीने में वित्त मंत्री अरुण जेटली की अध्यक्षता वाले केंद्रीय मंत्रियों के समूह (जीओएम) ने बदलाव के कुछ सुझावों के साथ राष्ट्रीय मेडिकल आयोग बिल 2017 को अपनी मंज़ूरी दे दी थी. उसके बाद 29 दिसम्बर को स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने इस बिल को लोकसभा में पेश किया. लेकिन इंडियन मेडिकल काउंसिल के विरोध और डॉक्टरों के हड़ताल पर जाने की धमकी के बाद इस बिल को संसदीय स्थायी समिति (स्वास्थ्य) के विचार के लिए भेज दिया गया है. समिति अपनी रिपोर्ट बजट सत्र से पहले पेश कर सकती है. गौरतलब है कि वर्ष 2016 में नीति आयोग के तत्कालीन उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढ़िया की अध्यक्षता में बनी चार सदस्यीय समिति ने राष्ट्रीय मेडिकल आयोग (एनएमसी) बिल का मसौदा तैयार किया था, जिसे सार्वजनिक कर आम जनता और मेडिकल व्यवसाय से जुड़े अलग-अलग हितधारकों से सुझाव मांगे गए थे. उस समय भी बिल के प्रावधानों को लेकर मेडिकल व्यवसाय से जुड़े लोगों ने अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी.
बिल के प्रावधान
बहरहाल, संसद की मंजूरी के बाद राष्ट्रीय मेडिकल आयोग, वर्ष 1956 में पारित मेडिकल काउंसिल ऑ़फ इंडिया अधिनियम की जगह ले लेगा. फ़िलहाल यह बिल संसद की स्थायी समिति के पास है. समिति के सुझावों के बाद एक बार फिर इस बिल को पारित करवाने की पुनः कोशिश की जाएगी. यह देखना दिलचस्प होगा कि स्थायी समिति अपनी रिपोर्ट में मूल बिल में कौन-कौन से सुझाव पेश करती है. लेकिन यहां बिल के कुछ प्रावधानों पर एक नज़र डालना उचित होगा. इस बिल में मेडिकल शिक्षा और उच्च गुणवत्ता वाले डॉक्टर मुहैया कराने, अत्याधुनिक शोध को अपने कार्य में सम्मिलित करने और मेडिकल संस्थाओं का समय-समय पर निरीक्षण करने से संबंधित कई प्रस्ताव रखे गए हैं. बिल में एमबीबीएस ग्रेजुएट्स को डॉक्टरी की प्रैक्टिस का लाइसेंस हासिल करने के लिए एक एग्जिट परीक्षा पास करने का प्रावधान रखा गया है. ये परीक्षा पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्सेज में दाखिले के लिए नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नीट) का भी काम करेगी.
इसके अलावा बिल में चार स्वायत्त बोर्ड गठित करने का भी प्रावधान है. स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा के संचालन, मेडिकल संस्थानों की रेटिंग और निरीक्षण, डॉक्टरों का रजिस्ट्रेशन और मेडिकल एथिक्स को लागू करना, बोर्ड की जिम्मेदारी होगी. सदस्यों को मनोनीत करने पर जोर दिया गया था. इसपर देश के अलग-अलग हिस्सों के डॉक्टरों ने एतराज जताया था, उसके बाद जीओएम ने इस प्रावधान में बदलाव करते हुए इसमें कुछ चयनित सदस्यों को भी शामिल करने की सिफारिश की.
डॉक्टरों की पूर्ति नीम-हकीमों से
इस बिल को लेकर सबसे पहली आपत्ति यह है कि आयुष (आयुर्वेद, सिद्ध, यूनानी आदि) के चिकित्सक एक ब्रिज कोर्स पास कर लेने के बाद एलोपैथी की दवाएं देने के पात्र हो जाएंगे. इस तरह का एक क़ानून मध्यप्रदेश में लागू है, जहां तीन महीने की क्लास के बाद पारंपरिक चिकित्सा कर्मियों को 72 एलोपैथिक दवाएं देने का लाइसेंस दे दिया जाता है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) का मानना है कि इस प्रावधान की वजह से देश में नीम-हकीमों की बाढ़ आ जाएगी. ज़ाहिर है पारंपरिक चिकित्सा का अपना स्थान है. कई मामलों में आयुर्वेद, यूनानी और दूसरी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियां कारगर साबित होती हैं और मरीज़ भी इस इलाज को प्राथमिकता देते हैं, लेकिन महज़ कुछ महीनों की ट्रेनिंग के बाद एलोपैथिक पद्धति की प्रैक्टिस की इजाज़त दे देना गरीब जनता की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करना होगा.
स्वास्थ्य सेवा का बाज़ारीकरण
इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद देश में मेडिकल शिक्षा पर दूरगामी प्रभाव पड़ना लाजिमी है, लेकिन इसमें स्वास्थ्य सेवाओं में किसी विशेष बदलाव की गुंजाइश नज़र नहीं आ रही. केवल यह कह देने से कि स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण से उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो जाएंगी, दूर की कौड़ी लगती है. व्यावसायीकरण ने इलाज इतना महंगा कर दिया है कि गरीब आदमी किसी निजी अस्पताल में इलाज कराने की सोच भी नहीं सकता है. निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए मुफ्त इलाज का जो प्रावधान है, उसे भी अस्पताल प्रबंधन ने पैसे कमाने की लालच में छीन लिया है. इस काम में देश के बड़े-बड़े अस्पताल शामिल हैं. अस्पतालों द्वारा इलाज से मना करने की खबरें या इलाज में लापरवाही या केवल पैसे ऐंठने के लिए अनावश्यक इलाज के मामले अक्सर सुर्ख़ियों में रहते हैं. इन मामलों को लेकर ये विधेयक खामोश है. एथिक्स की बात केवल शिक्षा के स्तर पर है.
पहले से ही देश के निजी मेडिकल कॉलेज लाभ कमाने वाले संस्थान बने हुए हैं. हर एडमिशन सत्र के समय, इन कॉलेजों द्वारा फीस के नाम पर करोड़ों रुपयों उगाही की ख़बरों से अख़बार भरे रहते हैं. इस बिल में डॉक्टरों की कमी को पूरा करने के लिए उच्च गुणवत्ता वाले डॉक्टर मुहैया कराने और अत्याधुनिक शोध को अपने कार्य में सम्मिलित करने के लिए फॉर-प्रॉफिट (लाभ कमाने वाले) मेडिकल कॉलेज खोलने का भी प्रस्ताव रखा गया है. ये कॉलेज ज़रूरत पड़ने पर सीटें बढ़ा-घटा सकते हैं. वहीं नेशनल मेडिकल कमिशन, निजी कॉलेजों के केवल 40 प्रतिशत सीटों की फीस को नियंत्रित करेगा. इसका मतलब यह होगा कि कॉलेज अपनी मर्जी से जितना फीस रखना चाहे, रख सकते हैं. इसके लिए यह दलील दी जा रही है कि यदि एनएमसी ने फीस नियंत्रित किया, तो निजी निवेशक कॉलेज खोलने में अपना पैसा लगाने से घबराएंगे और देश में मेडिकल शिक्षा के विस्तार का उद्देश्य नाकाम हो जाएगा.
फिर कौन बनेगा डॉक्टर?
ऐसे में जब फिलहाल देश में फॉर-प्रॉफिट मेडिकल कॉलेज खोलने का प्रावधान नहीं है, तब यहां कॉलेजों द्वारा फीस के नाम पर करोड़ों रुपए ऐंठे जा रहे हैं. मनमानी फीस वसूलने की इजाज़त मिलने के बाद क्या स्थिति होगी, ये समझना मुश्किल नहीं है. व्यापम् जैसे एडमिशन के दलालों का जो बाज़ार गर्म होगा, सो अलग. ज़ाहिर है, मेडिकल शिक्षा का खर्च बढ़ने से स्वास्थ्य सेवाएं और अधिक महंगी और गरीबों की पहुंच से दूर हो जाएंगी. सबसे महत्वपूर्ण ये है कि जब कॉलेजों की फीस करोड़ों रुपए होगी, तो निम्न आय वर्ग की श्रेणी में आने वाली देश की 80 फीसदी से अधिक आबादी के लिए शिक्षा का यह विस्तार बेमानी हो जाएगा. पिछड़ी, अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग फीस का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे.
अब रही बात गुणवत्ता की, तो इस सिलसिले में ये दलील दी जा रही है निजी क्षेत्र के निवेश के बाद मेडिकल शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आएगा. यहां गौर करने वाली बात यह है कि जब प्राइवेट कॉलेज खोलने की बात चल रही थी, उस समय भी यही दलील दी जा रही थी कि ऐसा करने से शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा. लेकिन इन प्राइवेट कॉलेजों के सम्बन्ध में जो रिपोर्ट आ रही हैं, वो किसी भी तरह उत्साहप्रद नहीं हैं. एक अध्ययन के मुताबिक, प्राइवेट कॉलेजों से पास होने वाले 80 फीसदी इंजीनियर किसी काम के नहीं हैं. मौजूदा विधेयक में इस तथ्य का एक समाधान यह निकाला गया है कि एमबीबीएस पास करने वाले हर विद्यार्थी को प्रैक्टिस लाइसेंस हासिल करने के लिए एक अखिल भारतीय एग्जिट परीक्षा में बैठना होगा.
पढ़ाई से ज्यादा एग्जिट परीक्षा पर भरोसा!
एग्जिट परीक्षा के सम्बन्ध में यह दलील दी जा रही है कि इससे मुन्नाभाई टाइप के डॉक्टरों पर रोक लग सकेगी और देश की स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार हो सकेगा. अब सवाल ये उठता है कि जब किसी छात्र ने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो उसी तरह की परीक्षा से गुज़रने का क्या औचित्य है? ऐसे मेडिकल कॉलेज ही क्यों खुलने दिए जाएं, जहां शिक्षा की गुणवत्ता में शक की गुंजाइश हो? जाहिर है, सरकार ये मान कर चल रही है कि मेडिकल कॉलेज चाहे जो पढ़ाएं, हम एक परीक्षा के जरिए डॉक्टर की प्रतिभा जांच लेंगे. इसका मतलब ये है कि सरकार ये सुनिश्चित नहीं करेगी कि कोई मेडिकल कॉलेज करोडों रुपए लेकर किस स्तर की मेडिकल शिक्षा देगा. इसका एक और पहलू है कि मेडिकल में दाखिले के लिए अभिभावकों को बच्चों की कोचिंग पर लाखों रुपए खर्च करने पड़ते हैं.
अब इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि एमबीबीएस की पढ़ाई में लाखों रुपए खर्च करने के बाद इस टेस्ट को पास करने के लिए भी कोचिंग का कारोबार शुरू हो जाएगा. दूसरी चीज़ यह है कि कहीं यह परीक्षा इसलिए तो नहीं ली जा रही है ताकि कमज़ोर वर्गों को दिए जाने वाले आरक्षण पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सके? क्योंकि आरक्षण का विरोध करने वाले अक्सर यह दलील देते हैं कि आरक्षण का लाभ लेकर एमबीबीएस पास करने वाले डॉक्टर किसी काम के नहीं होते और विधेयक में आरक्षण शब्द का एक बार भी ज़िक्र नहीं किया गया है. देश के मेडिकल ग्रेजुएट के साथ जो दूसरी नाइंसाफी हो रही है वो यह है कि उन्हें भी विदेश से मेडिकल की पढ़ाई कर वापस लौटे ग्रेजुएट्स के साथ इस परीक्षा में बैठना होगा.
कुल मिलाकर देखा जाए, तो यह कहा जा सकता है कि इस विधेयक से स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार हो या न हो, सतही मेडिकल कॉलेजों की बाढ़ आ जाने और झोला छाप डॉक्टरों की फौज तैयार करने की पूरी गुंजाइश है. नतीजतन, मेडिकल जैसी उच्च शिक्षा गरीब और वंचित वर्ग के छात्रों की पहुंच से दूर हो जाएगी, दूसरी तरफ मरीज़ इलाज के बिना मरते रहेंगे.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का़फी नहीं
गोरखपुर की घटना भूल जाइए, अगर भूल सकते हैं. दिल्ली आइए, देश की राजधानी. यहां पांच सितारा अस्पताल है. जहां जिन्दा बच्चे को मृत बता दिया जाता है, क्योंकि परिवार ने लाखों रुपए देने में असमर्थता जताई थी. दिल्ली के बगल में ही आईटी हब है गुरुग्राम. यहां के फोर्टिस अस्पताल में एक बच्ची डेंगू जैसी बीमारी से मर जाती है और बिल आता है 27 लाख रुपए. परिवार मीडिल क्लास है, जिसके पास दस लाख रुपए का बीमा था. बाकी पैसा उस परिवार ने कैसे चुकाया होगा?
2015 में भारत में हरेक दिन 321 बच्चों की डायरिया से मौत हुई. ये रिपोर्ट विश्व स्वास्थ्य संगठन की है. भारत में 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत का ये दूसरा सबसे बड़ा कारण है. गौरतलब है कि डायरिया गन्दे पानी पीने की वजह से होती है. नतीजतन, ये आंकड़ा साबित करता है कि भारत में साफ-सफाई और पीने के पानी की क्या स्थिति है? 2015-16 में आधे के करीब बच्चों को ही ओआरएस की सप्लाई की जा सकी थी, जिससे भारत की हेल्थ सिस्टम की दुर्दशा का पता चलता है. भारत के मुकाबले 2015 में पाकिस्तान, केन्या, म्यान्मार जैसे देशों में डायरिया से कम मौतें हुईं. डायरिया की रोकथाम के लिए रोटावायरस का टीका लगाया जाता है, लेकिन ये टीका सरकार के मिशन इन्द्रधनुष कार्यक्रम में शामिल नहीं है.
प्राइवेट अस्पतालों से ये टीका काफी महंगा मिलता है. दूसरी तरफ, दुनिया भर में भारत सबसे अधिक टीबी प्रकोप से ग्रसित है. साल 2015 में भारत में करीब 28 लाख टीबी के मरीज थे. भारत में टीबी के मरीजों की संख्या अनुमान से तीन गुणा ज्यादा हो सकती है. मशहूर मेडिकल पत्रिका लेसेंट ने साल 2014 में किए गए एक अध्ययन में पाया कि भारत में निजी क्षेत्र में करीब 19 लाख से लेकर 53 लाख तक मरीजों का इलाज किया जा रहा है, जो सरकारी अस्पतालों में इलाज करा रहे मरीजों की संख्या से दोगुनी है. भारत में टीबी के कुल मामलों में से 10 फीसदी बच्चों में होते हैं, लेकिन सिर्फ छह फीसदी का ही पता चल पाता है.
एक सबसे खतरनाक ट्रेंड मधुमेह यानी डायबिटिज को लेकर देखने को मिल रहा है. दुनिया में 35 करोड़ लोग डायबिटिज के शिकार हैं. भारत में ही सिर्फ 6.3 करोड़ डायबिटिज के मरीज हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, 2030 तक डायबिटीज लोगों की मौत का सातवां सबसे बड़ा कारण होगा. खतरनाक ट्रेंड ये है कि डायबिटिज आज शहरी गरीबों में तेजी से फैल रहा है. चीन के बाद भारत में सबसे अधिक डाइबिटिज पीड़ित हैं. ये जाहिर तौर पर जीवन शैली और खाने की वजह से है. भारत को विश्व की मधुमेह राजधानी के रूप में जाना जा रहा है और 2025 तक यहां 5 से 7 करोड़ मधुमेह रोगी होने की आशंका है. भारत सरकार ने 2008 में जन औषधि केंद्र खोले थे. मोदी सरकार ने इसे प्रधानमंत्री जन औषधि योजना का नाम दिया है और इसका विस्तार कर रही है.
लेकिन, सच्चाई ये है कि राजस्थान, उत्तराखंड, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल में खुले जन औषधि केंद्र बंद हो चुके हैं या हो रहे हैं. 2014 तक 178 जन औषधि केंद्र 16 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में खोले गए थे, जिसमें मात्र 98 ही कार्यरत हैं. एक तरफ, फार्मेसी कंपनियां अस्सी हजार करोड़ रुपये से अधिक घरेलू बाजार में दवाओं की बिक्री कर रही हैं, वहीं जेनरिक दवाएं दो करोड़ के आस-पास ही बिक पा रही हैं. दरअसल, ब्रांडेड दवा कंपनियों के मेडिकल रिप्रजेंटेटिव्स शहर के डॉक्टरों को दवाओं के सैंपल के साथ-साथ महंगे गिफ्ट आइटम्स भी देते हैं. डॉक्टर दवा कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए मरीजों को ब्रांडेड कंपनियों की दवा खरीदने को कहते हैं. दूसरी तरफ, जेनरिक दवा कंपनियां ऐसा नहीं कर पाती हैं, इसिइश गरीबों को सस्ते दर पर दवा तक नहीं मिल पाती.
राइट टू हेल्थ क्यों नहीं
इसके अलावा, देश के अन्य विकास सूचकांक की बात करें तो बच्चों में कुपोषण, महिलाओं में एनिमिया यानी खून की कमी की घटनाएं आम हैं. शिशु मृत्यु दर, प्रसव के दौरान महिला मृत्यु में भी जो कमी आनी चाहिए, वो अब तक हासिल नहीं की जा सकी है. ऐसे में जब 2017 में केंद्रीय कैबिनेट ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 को हरी झंडी दिखाई तो एक उम्मीद जगी. लेकिन, देश में जिस तरीके से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को बर्बाद किया गया है और प्राइवेट सेक्टर महंगे हैं, उसे देखते हुए राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्य के पूरा होने की संभावना पर शक पैदा होता है. यह स्थिति तब है, जब भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है. नई स्वास्थ्य नीति में सबके लिए स्वास्थ्य के सिद्धांत पर काम करते हुए कमज़ोर वर्ग के लोगों को मुफ्त दवा और इलाज की सुविधा उपलब्ध कराना है. साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में बजट को बढ़ाकर जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर तक लाना, जो अभी 1.5 प्रतिशत है.
इसके अलावा बीमारियों, शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर में कमी लाने के साथ जीवन प्रत्याशा को बढ़ाने का भी लक्ष्य निर्धारित किया गया है. नई नीति में सरकार का ध्यान प्राथमिक स्वास्थ्य पर अपेक्षाकृत अधिक केंद्रित करने की बात कही गई है. बड़ी बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र पर भी निर्भर होने की बात की गई है, यानी इसके लिए प्राइवेट अस्पतालों का सहयोग लिया जाएगा. लेकिन प्राइवेट अस्पतालों से जुड़ी घटनाएं कुछ और ही कहानी बयान करती है. इस नीति में प्राइवेट सेक्टर को भी इससे जोड़ दिया गया है. गौरतलब है कि बड़े निजी अस्पतालों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लोगों के लिए मुफ्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि दिल्ली जैसे शहर में भी इस आदेश का पालन नहीं होता. गौरतलब है कि जब 2015 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति का ड्राफ्ट जारी किया जा रहा था, तब इसमें हेल्थ को अधिकार बनाने का प्रस्ताव था, लेकिन बाद में उसे हटा दिया गया.
कहां हैं धरती के भगवान
अगस्त 2017 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक भारत के 1.3 अरब लोगों का इलाज करने के लिए भारत में मात्र 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं. इनमें से 1.1 लाख डॉक्टर सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में काम करते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य की देखभाल के लिए इन थोड़े से डॉक्टरों पर ही निर्भर है. आईएमए ये मानता है कि डॉक्टरों और मरीजों के अनुपात में इस अंतर के कारण सरकारी अस्पतालों में एक बेड पर दो मरीजों तक को रखना पड़ता है. सरकारी डॉक्टर भी काम के दबाव से ग्रस्त हैं. इस वजह से भी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता पर काफी बुरा असर पड़ता है और लोग मजबूरी में प्राइवेट सेक्टर की तरफ जाते हैं.
निजी हाथों में सौंपने की साज़िश
जब से हेल्थ इंडस्ट्री का रूपांतरण मेडिकल टूरिज्म के रूप में हुआ है, तब से सरकार ने जन स्वास्थ्य के क्षेत्र से पल्ला झाड़ लिया है. जन स्वास्थ्य का क्षेत्र मुनाफे का धंधा बनता गया और सरकार बेफिक्र बनी रही. लेकिन अब सरकार की छिपी मंशा स्पष्ट नजर आने लगी है. कर्नाटक ने आरोग्य बंधु योजना के तहत स्वास्थ्य केंद्रों को पीपीपी मॉडल के हवाले करने की शुरुआत की थी. लेकिन जल्द ही सरकार को यह एहसास हो गया कि जन स्वास्थ्य को निजी अस्पतालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. कर्नाटक सरकार समय रहते इस योजना से पीछे हट गई, लेकिन तभी राजस्थान सरकार को यह योजना भा गई. राजस्थान सरकार ने 2015 में ही पीएचसी को प्राइवेट सेक्टर के हाथों सौंपने का फैसला कर लिया था.
अब राजस्थान सरकार ने 299 प्राथमिक हेल्थ सेंटर्स, पीएचसी को निजी हाथों के हवाले करने का फैसला किया है. अब ये केंद्र निजी भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप यानी पीपीपी मॉडल पर चलाए जाएंगे. ग्रामीण इलाकों में, जहां सरकारी चिकित्सा सुविधाएं नदारद हैं, वहां पीएचसी ही गरीब-गुरबों के लिए बीमारी के एकमात्र निदान केंद्र हैं. अगर पीएचसी प्राइवेट हाथों में चले गए, तो ग्रामीण फिर झोलाछाप डॉक्टरों के चंगुल में फंस जाएंगे. सवाल यह है कि कोई भी निजी संस्था सिर्फ चैरिटी के लिए पीएचसी में इन्वेस्ट क्यों करेगी? ऐसे में अगर पीएचसी भी पैसे कमाने का जरिया बन गए, तो फिर शिक्षा की तरह ही स्वास्थ्य सेवाएं भी गरीबों की पहुंच से दूर हो जाएंगी. फिलहाल राजस्थान में 2082 प्राथमिक हेल्थ सेंटर्स हैं, जिन्हें धीरे-धीरे निजी सेक्टर के हवाले किया जाएगा.
राज्य सरकार का कहना है कि ये पीएचसी दूरस्थ क्षेत्रों और आदिवासी बहुल इलाकों में हैं. इन पीएचसी को प्राइवेट हाथों में दिए जाने से लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मिल सकेंगी. लेकिन सरकारी दावों से इतर, इनमें से अधिकतर पीएचसी शहरी क्षेत्रों या उसके नजदीक स्थित हैं. सवाल ये है कि दूरस्थ इलाकों में ग्रामीणों की बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कोई प्राइवेट सेक्टर भला क्यों आगे आएगा? जब सरकार, जो सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य का दावा करती हो, खुद कदम पीछे खींच रही हो.
ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो इतनी भयावह है कि यहां सरकार के तमाम लोक-लुभावन वादों के बावजूद कोई डॉक्टर जाना नहीं चाहता है. फिर अचानक इस सेवाभाव उत्पन्न होने के पीछे निजी सेक्टर का मकसद सिर्फ और सिर्फ मुनाफा कमाना ही है. तभी तो जब सरकार ने 299 पीएचसी के लिए निविदा मांगे, तो आनन-फानन में 43 पीएचसी के लिए प्राइवेट सेक्टर के साथ करार हो गया. करार के तहत, राज्य सरकार ऐसे सभी पीएचसी चलाने के लिए प्राइवेट सेक्टर को प्रति पीएचसी एकमुश्त तीस लाख रुपए देगी. इसके अलावा पीएचसी की बिल्डिंग, फर्नीचर और चिकित्सकीय उपकरणों के इस्तेमाल की भी पूरी छूट होगी.
सवाल यह है कि जब केंद्र सरकार ने इस योजना पर आपत्ति जताई थी, इसके बावजूद राज्य सरकार पीएचसी प्राइवेट सेक्टर को देने के लिए इतनी हड़बड़ी में क्यों है? केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने इस योजना को पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर छोटे से इलाके में चलाने की सलाह दी थी, लेकिन केंद्र की इस आपत्ति को दरकिनार कर राज्य सरकार ने यह फैसला लिया है. कुछ लोग यह आपत्ति जता रहे हैं कि शहरों में बड़े-बड़े अस्पताल चलाने वाले ये मुनाफाखोर यहां से मरीजों को अपने अस्पताल में रेफर कर गरीबों से भी जमकर कमाई करेंगे. यह हालत तब है, जब राजस्थान उन राज्यों में शामिल है, जहां सरकारी स्तर पर प्रति व्यक्ति खर्च बहुत कम किया जाता है.
पीएचसी का पीपीपी मॉडल
कर्नाटक में 1997 में पीपीपी मॉडल पर राजीव गांधी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल शुरू किया गया था. लेकिन देखा गया कि हर साल यहां इलाज कराने वालों में गरीब मरीजों की संख्या घटती चली गई है. उत्तराखंड सरकार ने भी कई सामुदायिक अस्पतालों को पीपीपी मॉडल के हवाले कर दिया था. अब वहां कई जगह पीएचसी को पीपीपी मॉडल से हटाने के लिए आंदोलन हो रहे हैं. नीति आयोग जिला अस्पतालों की जमीन और बिल्डिंग भी निजी अस्पतालों को लीज पर देने के लिए विचार कर रही है. इतना ही नहीं, सरकारी अस्पतालों की ब्लड बैंक और ऐंबुलेंस सेवा का भी निजी अस्पताल इस्तेमाल कर सकेंगे.
वर्ल्ड बैंक की सलाह पर ही जिला अस्पतालों की जमीन पर निजी अस्पताल खोले जा रहे हैं, जबकि स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा बताते हैं कि जिन क्षेत्रों तक सरकारी सुविधाएं नहीं पहुंची हैं, वहां तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने के लिए निजी क्षेत्र की मदद ली जा रही है. क्या निजी सेक्टर बिना अपना फायदा देखे इन क्षेत्रों में निवेश करेंगे? जब सरकार प्राथमिक चिकित्सा को बोझ समझ रही है, तो फिर प्राइवेट सेक्टर चैरिटी के लिए क्यों आगे आएंगे? इससे पहले भी प्राइवेट अस्पतालों पर एक रुपए लीज पर शहरों की महंगी जमीन उपलब्ध कराई गई थी, लेकिन वहां आलम यह है कि गरीबों को इलाज के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.
पोल खोलती कैग रिपोर्ट
सीएजी ने 2011 से 2016 के दौरान राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के कार्यकलाप और खर्चों का ब्यौरा 2017 में दिया था. इस रिपोर्ट में जो चौंकाने वाली बात है वो ये कि 27 राज्यों ने इस योजना के मद में दिए गए पैसे को खर्च ही नहीं किया. गौरतलब है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन बहुत महत्वपूर्ण योजना है. इस योजना के मद में 2011-12 में 7,375 करोड़ और 2015-16 में 9,509 करोड़ की राशि दी गई थी, जो ख़र्च ही नहीं हो सकी. सीएजी ने तो अपनी रिपोर्ट में ये भी कहा है कि देश के 20 राज्यों में स्वास्थ्य व्यवस्था से जुड़े 1285 प्रोजेक्ट कागज़ों पर चल रहे हैं. उनके नाम पर पैसों की उगाही हो रही है, लेकिन वे जमीन पर हैं ही नहीं.
सीएजी रिपोर्ट का ये खुलासा तो और भी चिंतनीय है कि 27 राज्यों के लगभग हर स्वास्थ्य केंद्र में 77 से 87 फीसदी डॉक्टरों की कमी है. हैरानी की बात ये है कि 13 राज्यों के 67 स्वास्थ्य केंद्रों में कोई डॉक्टर ही नहीं है. डॉक्टर और स्टाफ की कमी के कारण स्वास्थ्य उपकरण भी बेकार हो रहे हैं और मरीजों को उनका लाभ भी नहीं मिल रहा. सीएजी की रिपोर्ट कहती है कि 17 राज्यों में 30 करोड़ की लागत वाले अल्ट्रासाउंड मशीन, एक्स रे मशीन, ईसीजी मशीन जैसे कई उपकरणों का इस्तेमाल नहीं हो पा रहा, क्योंकि उन्हें ऑपरेट करने वाले मेडिकल स्टाफ नहीं हैं.
(साथ में शशि शेखर और चंदन राय)
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 का लक्ष्य
- 2025 तक पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में मृत्यु दर कम कर 23 तक लाना.
- जीवन प्रत्याशा को 5 से बढ़ा कर 2025 तक 70 वर्ष करना
- नवजात शिशु मृत्यु दर को घटाकर 16 करना तथा मृत पैदा होने वाले बच्चों की दर को 2025 तक घटाकर एक अंक में लाना.
- 2018 तक कुष्ठ रोग, 2017 तक कालाजार का उन्मूलन करना.
- क्षयरोग (टीबी) के नए रोगियों में 85 प्रतिशत से अधिक को रोगमुक्त करना तथा नए मामलों की व्याप्तता में कमी लाना, ताकि 2025 तक इसका उन्मूलन किया जा सके.
- 2025 तक दृष्टिहीनता के मामलों को वर्तमान स्तर से घटाकर एक-तिहाई करना.
- हृदयवाहिका रोग, कैंसर, मधुमेह या सांस के पुराने रोगों से होने वाली अकाल मृत्यु को 2025 तक घटाकर 25 प्रतिशत तक करना.
पीएचसी के जरिए बांटा जा रहा ज़हर ‘चौथी दुनिया’ ने किया खुलासा
8 से 14 जनवरी के ‘चौथी दुनिया’ के अंक की कवर स्टोरी, मोदी सरकार का खतरनाक नसबंदी अभियान, ये खुलासा करता है कि कैसे जिला स्वास्थ्य केंद्रों से लेकर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए अंतरा के नाम से डीएमपीए दवा का इंजेक्शन महिलाओं में ठोका जा रहा है. जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए केंद्र सरकार देश की मांओं को बांझ बनाने की दवा चुभो रही है. मोदी सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के साथ मिल कर महिलाओं में वह जहर इंजेक्ट कर रहा है, जो खूंखार यौन अपराधियों को केमिकल कैस्ट्रेशन की सजा के तहत ठोका जाता है. बलात्कारियों और यौन अपराधियों की यौन-ग्रंथी नष्ट करने के लिए दी जाने वाली दवा मिशन परिवार विकास के नाम पर महिलाओं में अनिवार्य रूप से इंजेक्ट की जा रही है, ताकि देश की जनसंख्या कम की जा सके.
यह मिशन परिवार विनाश अभियान है जो विदेशी कुचक्र और धन के कंधे पर चढ़ कर भारत के सात राज्यों के 145 जिलों में दाखिल हो चुका है. जिला स्वास्थ्य केंद्रों, सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक कौन सी महिलाएं जाती हैं और वे किस वर्ग से आती हैं, इसके बारे में सबको पता है. स्वास्थ्य केंद्रों को अधिकाधिक इंजेक्शन लगाने का लक्ष्य दिया गया है. इन स्वास्थ्य केंद्रों पर तैनात डॉक्टरों को यह भी नहीं कहा गया है कि इंजेक्शन देने के पहले वे सम्बन्धित महिला का हार्मोनल-असेसमेंट करें उसे डीएमपीए इंजेक्शन के खतरों के प्रति आगाह करें.