उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन और पूर्वांचल राज्य की मांग कोई नई नहीं है. बीते 30 वर्षों में समय-समय पर उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में पुनर्गठित करने की मांग उठती रही है और उत्तर प्रदेश में सक्रिय राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे को अपने फायदे नुकसान के आकलन के साथ इस्तेमाल भी किया है. 21 नवम्बर 2011 को तत्कालीन बसपा सरकार द्वारा भी उत्तर प्रदेश के विभाजन का प्रस्ताव राज्य विधानसभा में लाया गया था, जिसे राज्य विधानसभा से पारित कर केंद्र सरकार को विचार के लिए भेज दिया गया था.
विधानसभा में पारित उस प्रस्ताव के अनुसार, उत्तर प्रदेश के चार भागों में क्रमशः पश्चिमांचल (पश्चिमी उत्तर प्रदेश), बुंदेलखंड, अवध (मध्य क्षेत्र) और पूर्वांचल (पूर्वी उत्तर प्रदेश) आते हैं. इसके अनुसार पश्चिमांचल में 17 जिले, बुंदेलखंड में 7 जिले, अवध क्षेत्र में 21 जिले तथा पूर्वांचल में सर्वाधिक 26 जिले आते हैं, जिसके अनुसार सर्वाधिक जनसंख्या पूर्वांचल की और न्यूनतम आबादी बुंदेलखंड क्षेत्र की होगी.
तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी वाराणसी में उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन की बात पर सहमति जताई थी और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मुख्यमंत्री बनने से पूर्व पूर्वांचल को राज्य बनाने का मसला उठाया था. इसके अतिरिक्त अनेक संगठन जैसे, पूर्वांचल राज्य बनाओ दल, पूर्वांचल विकास पार्टी, पूर्वांचल जन आंदोलन आदि अस्तित्व में आए, लेकिन पूर्वांचल का विषय राजनीतिक नफा-नुकसान के बोझ तले दबकर कभी आम बहस के केंद्र में नहीं आ सका.
उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन की मांग का फायदा केवल राजनीतिक तबका ही नहीं, बल्कि विकास की संभावनाओं को केंद्र में रखते हुए बुद्धिजीवी वर्ग भी उठाता ही रहा है. दिसंबर 2016 के ‘इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में ‘द डिमांड फॉर डिवीज़न ऑफ़ उत्तर प्रदेश एंड इट्स इम्प्लिकेशन्स’ शीर्षक से प्रकाशित एक लेख में कहा गया कि ‘उत्तर प्रदेश का असमान क्षेत्रीय विकास राज्य के बड़े और अप्रबंधनीय आकार के कारण है, जो कि राज्य के विकास और बेहतर प्रशासन के लिए राज्य को छोटे राज्यों में पुनर्गठित करने का प्रमुख कारण बनता है.’
इसके अतिरिक्त 18 जनवरी 2018 को ‘रिफ्लेक्शन ऑफ़ इंडियाज डेमोग्राफिक फ्युचर’ विषय पर वक्तव्य देते हुए अर्थशास्त्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था, ‘उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन अपरिहार्य है.’
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक हालात और पूर्वांचल राज्य की मांग को समझने के लिए यदि उत्तर प्रदेश को पूर्व प्रस्तावित चार भागों में विभाजित करके इसका अध्यन करें, तो पाएंगे कि उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि एवं कृषि सम्बन्धी उत्पादों पर आधारित उद्योगों की अर्थव्यवस्था है.
इसमें एक ओर जहां पश्चिमी भाग की आर्थिक स्थिति हरित प्रदेश होने और उसका कुछ भाग दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में आने के कारण बाकी राज्यों से बेहतर बनी हुई है, तो वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश कृषि योग्य उपजाऊ भूमि और पारंपरिक तौर पर स्थापित कई प्रकार के छोटे, मझोले उद्योगों के होने के बावजूद आज बदहाली की हालत में है. वर्तमान स्थिति के आकलन के लिए यदि उत्तर प्रदेश राज्य आर्थिक एवं सांख्यिकी विभाग द्वारा प्रकाशित राज्य सकल घरेलू उत्पाद की रिपोर्ट का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद 4,54,758 करोड़ है, जबकि पूर्वी उत्तर प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद महज 2,51,935 करोड़ है, जो कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की तुलना में लगभग आधा है.
इसी प्रकार यदि प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े देखें, तो पाएंगे कि पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय अन्य क्षेत्रों से निम्न है. एक तरफ जहां उत्तर प्रदेश के पश्चिम क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय सर्वाधिक 49,931 रुपए, अवध क्षेत्र की 35,191 रुपए और बुंदेलखंड क्षेत्र की प्रति व्यक्ति आय 34,783 रुपए है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय मात्र 25,714 रुपए है. पूर्वांचल की प्रति-व्यक्ति आय उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 36,883 रुपए से भी कम है और पश्चिम के क्षेत्रों की तुलना में आधी है.
विकास का असमान क्रम
इस अंतर को समझने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के विकास के क्रम को समझना होगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कृषि अर्थव्यवस्था होने के नाते कृषि आधारित लघु एवं कुटीर उद्योग स्थापित हुए. उत्तर प्रदेश में प्रमुख नकदी फसल गन्ना थी, जिसका केंद्र देवरिया गोरखपुर क्षेत्र बना, जहां आजादी के समय तक 14 चीनी मिलें स्थापित हुई थीं. इसी प्रकार सिल्क के काम के लिए बनारस और कालीन बनाने के लिए भदोही प्रसिद्ध हुआ.
कई अन्य छोटे-छोटे व्यापारिक केंद्र जैसे मिर्जापुर, गाजीपुर, मऊ, टांडा, बस्ती आदि सीमेंट, साड़ी, कपड़ा, हथकरघा के उत्पादन के लिए मशहूर हुए और स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा किया. मगर नई आर्थिक नीति के लागू होने के साथ-साथ जितनी तेजी से दिल्ली, सूरत, मुंबई, लुधियाना आदि ट्रेड सेंटरों का विकास हुआ, उतनी ही तेजी से स्थानीय रोजगार खत्म किए गए.
विनिवेश के शुरू होने के साथ-साथ मिलों और उद्योगों का निजीकरण शुरू हुआ और अधिकतर उद्योगों पर ताला पड़ गया, जिसके परिणामस्वरूप रोजगार की तलाश में पूर्वी उत्तर प्रदेश के युवाओं ने बड़ी संख्या में पश्चिम की ओर पलायन करना शुरू कर दिया. पलायन को लेकर एनएसएसओ की रिपोर्ट में प्रकाशित आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश से अन्य राज्यों में 2.36 करोड़ लोगों ने पलायन किया, जिनमें 1.42 करोड़ लोग पूर्वी उत्तर प्रदेश के थे, जो कि कुल पलायित आबादी का 60 प्रतिशत है और इनमें भी सर्वाधिक आबादी कृषि और गैर कृषि कार्यों में संलग्न श्रमिकों की थी.
कुल पलायित आबादी का छह प्रतिशत शिक्षा के लिए तथा एक प्रतिशत से भी कम आबादी व्यापार के उद्देश्यों से पलायित हुई. हैरान करने वाली बात यह भी है कि यदि जिलावार पलायित लोगों की संख्या देखें, तो पाएंगे कि सर्वाधिक पलायन वाले शीर्ष 15 जिलों में उन्नाव को छोड़कर बाकी सभी जिले पूर्वी उत्तर प्रदेश के हिस्से हैं, जिनमें आजमगढ़ प्रथम स्थान पर है. इसके बाद, जौनपुर, गाजीपुर, गोरखपुर, देवरिया आदि आते हैं. रोजगार के अवसरों में लगातार होती कमी और बड़े पैमाने पर शिक्षित युवाओं और कुशल-अकुशल श्रमिकों के पलायन ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के आर्थिक विकास की कमर तोड़ दी.
80 के दशक से देश में आईटी उद्योगों की शुरुआत हुई और 21वीं सदी में प्रवेश के साथ-साथ आईटी उद्योगों का और सेवा क्षेत्रों का तेज़ी से विकास हुआ. नोएडा, मुंबई, बेंगलुरु आदि आईटी हब बने और सेवाएं जैसे ट्रांसपोर्टेशन, टूरिज्म, हेल्थ, इन्श्योरेंस, बैंकिंग आदि देश के शहरों में तेज़ी से बढ़ी, मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश और अन्य पिछड़े इलाकों में आईटी उद्योग विकसित नहीं हो पाए और सेवा क्षेत्र के विकास की गति भी धीमी ही रही.
उत्तर प्रदेश में संरचनात्मक विकास के अभाव और मूलभूत आवश्यकताओं जैसे बिजली, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा से वंचित लोगों का यह क्षेत्र निजी निवेशकों के लिए आकर्षण का केंद्र कभी नहीं रहा. इन परिस्थितियों में यह केवल प्रदेश और देश की सरकारों की जिम्मेदारी बनती थी कि वो पूर्वांचल के संरचनात्मक और संस्थागत विकास पर जोर देती और पूरब के पारंपरिक उद्योगों का आधुनिकीकरण कर उन्हें जीवंत करती और साथ-साथ नए उद्योगों पर आधारित आर्थिक विकास की परिस्थितियों के अनुकूल बनाती.
लेकिन इसके विपरीत तमाम सरकारें कभी जाति तो कभी धर्म की लाठी पकड़ कर सत्ता में आईं और पूर्वांचल के युवाओं, किसानों, मजदूरों, छात्रों, महिलाओं की मूलभूत आवश्यकताओं के विषय को राजनीति के केंद्र में कभी नहीं आने दिया. और तो और निजीकरण और ठेकेदारी प्रथा को बढ़ावा देते हुए और पिछड़े क्षेत्रों में संरचनात्मक और संथागत विकास के लिए बड़े निवेश की जरूरत को दरकिनार करते हुए सरकारों ने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लिया और औद्योगिक पिछड़ेपन, शिक्षा के गिरते स्तर और निजीकरण ने समूचे क्षेत्र को गरीबी के दुष्चक्र में ला खड़ा किया.
पूर्वांचल के पालायित मज़दूर
आज पूरब से पश्चिम जाने वाली ट्रेनों में पूरब से उत्पादित माल नहीं बल्कि मालगाड़ी में लादे गए कोयले की तरह मजदूर भर कर जाते हैं, जो बड़े-बड़े व्यापारिक केंद्रों में नालों के किनारे झुग्गियां बसाकर जीते हैं या शहर से कुछ दूर के इलाकों में किराए के एक कमरे में पूरे परिवार के साथ गुजारा करते हैं. उन पलायित मजदूरों के श्रम की लूट की कोई सीमा नहीं है. सभी श्रम कानूनों को ताक पर रख कर उनसे काम लिया जाता है.
ये वही मजदूर हैं, जो कभी बंद पटाखा फैक्ट्रियों के अंदर काम करते हुए हादसों के शिकार होते हैं, कभी सड़क पर सोते हुए बड़ी गाड़ियों के नीचे आकर मारे जाते हैं, तो कभी ठेकेदारों द्वारा जबरन सीवर में उतारे जाते हैं और अपनी जान गंवाते हैं और बावजूद इसके, पेट की भूख इन सभी मजदूरों को अपनी जान का खतरा लेकर बिना शर्त काम करने पर मजबूर करती है. पूर्वांचल की प्रति व्यक्ति आय और पलायन के आंकड़ों से स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश के विकास के लिए प्रदेश और केंद्र की सरकारों के रवैये और नीतियों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश को बदहाली और अमानवीय जीवन जीने के लिए विवश किया है.
अपने नाकारेपन को छुपाने के लिए प्रदेश सरकार की एजेंसियां अपनी रिपोर्ट में यह दावा करती हैं कि हमारे यहां कुशल श्रमिकों की कमी है. तो कोई उन्हें यह भी समझाए कि यदि उत्तर प्रदेश के लोगों में कुशलता की कमी है, तो ये सारे बड़े-बड़े नगर आखिर पलायित श्रमिकों के बूते नहीं तो किस के बूते चल रहे हैं?
पूर्वी उत्तर प्रदेश में अनेक धर्म और संस्कृतियों का प्रभाव देखने को मिलता है. हिंदू सभ्यता और संस्कृति को दिखाता हुआ बनारस शहर बुद्ध के उपदेशों, तुलसी के समन्वयकारी विचारों के साथ-साथ कबीर के विद्रोही विचारों को भी सहेजे हुए है, जो समाज से प्रभावित भी है और समाज को प्रभावित भी करता है.
अनूठी बात है कि कबीर के आध्यात्मिक विचार भी भौतिक आधार से लैस हैं. बातचीत के लिए मुख्यतः भोजपुरी बोली जाती है जो कि उत्तर प्रदेश के अन्य भागों में बोली जाने वाली बोलियों जैसे बृज, अवधी और खड़ी बोली हिंदी से भिन्न है. यहां अमीर खुसरो की मुकरियां और पहेलियां हिंदू-मुस्लिम दोनों की जुबान पर है.
इसके अलावा जनसंख्या को देखें, तो पूर्वांचल के 27 जिलों की आबादी 9 करोड़ से अधिक है, जो कि जनसंख्या की दृष्टि से भारत के चौथे सबसे बड़े राज्य पश्चिम बंगाल के बराबर होता है.
यदि कोई क्षेत्र विशेष राज्य के अन्य क्षेत्रों से बेहतर स्थिति में चला जाए, तो उसके लिए लक्षित मानक राज्य के लिए तय मानकों से भिन्न होते हैं. किसी राज्य के विभाजन का यह भौतिक आधार होता है. यदि किसी राज्य का कोई क्षेत्र पिछड़ जाए, तो उसके विकास के लिए अलग मॉडल की आवश्यकता होती है, जो पूरे राज्य के लिए उचित नहीं होती और जिसके लिए विशेष तौर-तरीकों और प्रशासन की जरूरत होती है, तब विभाजन एक उपाय बनता है.
लेकिन राज्यों के बनने की ये सारी अवधारणा औद्योगिक पिछड़ेपन और गरीबी के दुष्चक्र में फंसे उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में शातिराना तरीके से विलुप्त कर दी गई है. जबकि उत्तर प्रदेश के पूरब के हिस्से को पूर्वांचल राज्य के रूप में पुनर्गठित होने का मजबूत भौतिक, जायज और न्यायसंगत आधार है.
राज्य विभाजन का इतिहास
वर्तमान में भारत में 29 राज्य हैं और सात केंद्र शाषित प्रदेश हैं. इनमें अधिकतर राज्य आजादी के बाद ही अस्तित्व में आए. वर्ष 1947 में संयुक्त अवध प्रांत और आगरा प्रांत के क्षेत्रों को मिलाकर संयुक्त प्रांत बनाया गया, जिसे आगे चलकर 1950 में उत्तर प्रदेश नाम दिया गया. इसी प्रकार पश्चिम बंगाल जो कि 1905 में बंगाल के दो भागों के विभाजन के साथ अस्तित्व में आया, से अलग होकर 1950 में बिहार और उड़ीसा राज्य बने. 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा भाषा को आधार मानते हुए, मद्रास से तेलुगु भाषी क्षेत्रों को अलग कर उसमें हैदराबाद प्रांत को मिलाते हुए आंध्र प्रदेश राज्य बनाया गया, जो कि भाषाई आधार पर बनने वाला पहला राज्य बना.
मैसूर प्रांत में कन्नड़ भाषी क्षेत्रों को मिलाकर कर्नाटक राज्य बनाया गया और ब्रिटिश इंडिया के केंद्रीय प्रांत और बेरार क्षेत्र को मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल के साथ मिलाकर मध्य प्रदेश राज्य बना. 1960 में बॉम्बे प्रांत को दो भागों में बांटकर पश्चिमी भारत के दो बड़े राज्यों महाराष्ट्र और गुजरात बनाया गया. वर्ष 1957 में नागा हिल्स का तेसांग क्षेत्र केंद्रीय अधिकार में आ गया, जिसे असम राज्य से प्रशासित किया जाने लगा, मगर आगे चल कर नागालैंड की विशेष पहचान और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए हुए लगातार आंदोलनों के परिणामस्वरूप 1963 में नागालैंड को असम से पृथक राज्य बना दिया गया.
आजादी के बाद पटियाला प्रिंसली स्टेट को अन्य आठ राज्यों से जोड़कर ‘पटियाला एंड ईस्ट पंजाब स्टेट यूनियन (पेप्सू)’ बनाया गया था, जिनमें कुछ अन्य क्षेत्रों को जोड़कर 1956 में पंजाब राज्य बना और वर्ष 1966 में हरियाणा को पंजाब से ही पृथक कर अलग राज्य बनाया गया. वर्ष 1970 में असम के क्षेत्र मेघालय को स्वायत्त घोषित कर दिया गया, जिसे वर्ष 1972 में पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ. इसी प्रकार असम राज्य में ही नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी का एक भाग, जो कि केंद्र सरकार द्वारा प्रशासित होता था, को अलग करके 1972 में अरुणाचल प्रदेश बनाया गया.
इसके अलावा 1972 में ही असम के जिले मिजोरम को केंद्र शासित प्रदेश घोषित किया गया, जिसे वर्ष 1986 में मिजो नेशनल फ्रंट के साथ संधि करके वर्ष 1987 में पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया. इसके अलावा वर्ष 2000 में झारखंड और छत्तीसगढ़ क्रमशः बिहार और मध्य प्रदेश से अलग करके बनाए गए, जबकि 2000 में ही उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों को उनकी प्राकृतिक विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए और उनके संरक्षण और विकास के लिए उत्तरांचल राज्य बना, जिसका वर्ष 2007 में नाम बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया और वर्ष 2014 में आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य अस्तित्व में आया.
राज्यों के बनने के इस संक्षिप्त इतिहास को बतलाने का आशय यह है कि देश में राज्यों का पुनर्गठन कभी भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर हुए जनांदोलनों का परिणाम रहा है, तो कभी प्रशासनिक दृष्टि से सुगमता के आधार पर किया गया है. कभी राज्यों के आर्थिक हालात मुख्य रहे हैं, तो कभी क्षेत्र विशेष में प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण, खनिज पदार्थों की उपलब्धता आदि को महत्त्व दिया गया है. दिए गए तथ्यों से यह स्पष्ट है कि समय-समय पर राज्यों की सीमा में परिवर्तन हुए हैं.
आवश्यक होने पर राज्यों की सीमाओं को बढ़ाया गया है और कई क्षेत्रों को जोड़कर एक राज्य बना है, जबकि इसके विपरीत कई क्षेत्रों को बांटा भी गया है, इसलिए यह माना जाना बेमानी है कि राज्यों के पुनर्गठन की मांग से राष्ट्रीय एकता को खतरा होता है. देश में सभी राज्यों के अस्तित्व में आने के इतिहास से यह स्पष्ट है.
पुरानी है पूर्वांचल राज्य की मांग
उल्लेखनीय है कि पूर्वांचल राज्य औपचारिक शक्ल में नहीं है, लेकिन उत्तर प्रदेश के पूरब के क्षेत्र को पूर्वांचल ही कहा जाता है. पूर्वांचल में 28 जिले हैं. इन्हीं जिलों को मिलाकर अलग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग की जा रही है. 28 जिलों को मिलाकर बनने वाला पूर्वांचल प्रदेश अगर स्वतंत्र अस्तित्व में आया तो 79,807 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाला प्रदेश देश का 30वं प्रदेश बन जाएगा. जनसंख्या के हिसाब से पूर्वांचल प्रदेश में 22 लोकसभा और 144 विधानसभा सीटें होंगी.
पूर्वांचल के लोग कहते हैं कि सत्ता आते ही भाजपा ने पूर्वांचल राज्य बनाने का अपना वादा तोड़ दिया. बुंदेलखंड के बाद पूर्वांचल उत्तर प्रदेश का सबसे पिछड़ा क्षेत्र है. बुंदेलखंड को भी अलग राज्य बनाने की मांग लगातार हो रही है. पूर्वांचल विकास से कोसों दूर रह गया है. कई सरकारें आईं और चली गईं, लेकिन पूर्वांचल का पिछड़ापन बना रहा. अलग पूर्वांचल राज्य के गठन की मांग की लड़ाई लंबे समय से होती रही है, लेकिन संगठित रूप से लड़ाई नहीं हो पाने के कारण पूर्वांचल का मुद्दा ठोस शक्ल नहीं ले पाया.
जानकार बताते हैं कि गाजीपुर के तत्कालीन सांसद विश्वनाथ प्रसाद गहमरी की पहल पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पूर्वांचल के आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए पटेल आयोग का गठन किया था. उस आयोग ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी, लेकिन सरकार ने रिपोर्ट दबा दी और उस बारे में कोई हवा नहीं लगने दी.
साठ के दशक में आंध्र प्रदेश को अलग राज्य बनाए जाने की मांग तेज हुई, तब उस समय पूर्वांचल को भी अलग राज्य बनाने के लिए अभियान चला, लेकिन जोर नहीं पकड़ पाया. आंध्र प्रदेश अलग हुआ. कालांतर में आंध्र प्रदेश से टूट कर तेलंगाना भी बना, लेकिन पूर्वांचल की मांग बेनतीजा रह गई.
राजनीतिक दलों और नेताओं ने पूर्वांचल को लेकर केवल राजनीति की, उसके विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया. गोरखपुर की खाद फैक्ट्री से लेकर चीनी मिलें बंद हो गईं. आजमगढ़, मऊ, गाजीपुर, बनारस के बुनकर बदहाल हो गए. गन्ना-प्रधान पूर्वांचल फाकाकशी की स्थिति में आ गया. भदोही का कालीन उद्योग प्रभावित हुआ. रोजगार के लिए पूर्वांचल के लोग बड़ी संख्या में पलायन कर गए.
मोदी-योगी की सभाओं में भी उछलने लगे हैं पूर्वांचल प्रदेश के बैनर-पोस्टर
पूर्वांचल राज्य की मांग धीरे-धीरे जोर पकड़ती जा रही है और यह हिंसक स्वरूप भी लेने लगी है. अलग पूर्वांचल को लेकर आंदोलन करने वाले लोग सरकार से सीधे टकराव भी लेने लगे हैं. प्रधानमंत्री मोदी से लेकर मुख्यमंत्री योगी तक की सभाओं में खुलेआम पूर्वांचल प्रदेश की मांग उठने लगी है और उनकी सभाओं में पूर्वांचल की मांग से जुड़े बैनर-पोस्टर उछाले जाने लगे हैं. पिछले ही दिनों इस आंदोलन ने ऐसा स्वरूप लिया कि एक महिला ने ही बस फूंक डाली.
पूर्वांचल राज्य जन-आंदोलन से जुड़ी वंदना रघुवंशी ने कैंट स्थित रोडवेज बस अड्डे पर पहुंचकर प्लेटफॉर्म संख्या-4 पर खड़ी वाराणसी-लखनऊ की वॉल्वो बस में आग लगा दी. वंदना रघुवंशी ने कहा कि पिछले पांच साल से पूर्वांचल राज्य की मांग के लिए गांधीवादी तरीके से आंदोलन चलाया जा रहा है. प्रधानमंत्री कार्यालय से लेकर मुख्यमंत्री कार्यालय तक को आमरण अनशन के बारे में पत्र लिखकर जानकारी दी गई थी. लेकिन दोनों सरकारों ने कोई तवज्जो ही नहीं दी.
लोकतांत्रिक नैतिकता के तहत सरकार को आंदोलनकारियों से बात तो करनी चाहिए थी! आंदोलन के सदस्य अनुज राही महीनेभर से अनशन पर बैठे थे और वंदना रघुवंशी का अनशन भी 22 दिन चल चुका था. इस बीच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कई बार बनारस हो आए, लेकिन उन्होंने अनशनकारियों पर कोई ध्यान नहीं दिया. वंदना ने कहा कि बस में हुई आगजनी की घटना के लिए योगी सरकार जिम्मेदार है. सरकारें जनता की बात नहीं सुनेंगी, तो यही हाल होगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब मगहर आए थे तब भी उनकी सभा के बीच ही पूर्वांचल प्रदेश की मांग के बैनर-पोस्टर लहराए गए थे. पोस्टरों पर लिखा था, ‘भीख नहीं अधिकार चाहिए. हमें पूर्वांचल राज्य चाहिए.’ मोदी जब जनसभा को संबोधित कर रहे थे, उसी समय कुछ लोग पूर्वांचल राज्य बनाने की मांग को लेकर नारेबाजी शुरू कर दी.
मंच पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद थे. सब जानते हैं कि पिछले लंबे अर्से से पूर्वांचल प्रदेश बनाने की मांग उठ रही है. भाजपा समेत तमाम सियासी दल प्रदेश के बंटवारे की राजनीति करते रहे हैं. केवल समाजवादी पार्टी प्रदेश के विभाजन के खिलाफ रही है. बसपा नेता व पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने तो उत्तर प्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा था. मुख्यमंत्री बनने से पहले योगी आदित्यनाथ भी कई बार पूर्वांचल राज्य की वकालत करते रहे हैं.
वे गोरखपुर को पूर्वांचल की राजधानी बनाने की मांग करते रहे हैं. कांग्रेस नेता कल्पनाथ राय हमेशा पूर्वांचल के विकास के लिए पूर्वांचल राज्य की मांग करते रहे थे. कल्पनाथ राय अलग पूर्वांचल राज्य बनाने और काशी को उसकी राजधानी बनाने की मांग करते थे.
राम मंदिर से अधिक ज़रूरी है पूर्वांचल प्रदेश का गठन
राम मंदिर के राजनीतिक हित साधने से अधिक जरूरी है, पूर्वांचल प्रदेश के गठन की अनिवार्यता. भारत राष्ट्रों का राष्ट्र है और देशों का देश. यह अनेक संस्कृतियों का संगम है और लगभग सभी प्रदेशों में अलग-अलग भाषाएं बोली जाती हैं. उनके रहन-सहन और काम करने की संस्कृति भिन्न है और साथ ही राज्य की आर्थिक, भौगोलिक और सामाजिक स्थितियां भी अलग हैं.
आजादी के बाद, 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया था, जिसने राज्यों के पुनर्गठन के लिए भाषाई और सांस्कृतिक आधार को प्रमुखता देते हुए अपनी रिपोर्ट के दूसरे भाग में कहा था, ‘केवल भाषा या संस्कृति के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन न ही संभव है और न ही वांछित, बल्कि दोनों के बीच में समन्वय बैठाना राष्ट्रीय एकता के हित में आवश्यक है.’ परन्तु उस समय यह विचार भी रहा था कि राज्यों की आर्थिक स्थिति को भी प्रमुख कारक के तौर पर लिया जाए.
इन सभी आधारों को जोड़कर देखा जाए तो स्पष्ट है कि किसी राज्य के बनने के लिए एक सीमा तक भाषाई एकरूपता और काम करने की संस्कृति के साथ-साथ राज्य की आर्थिक हालत, राज्य में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता, भौगोलिक परिस्थितियां और प्रशासनिक कुशलता को ध्यान में रखा जाना चाहिए.
किसी राज्य का क्षेत्रफल, उसकी जनसंख्या और संसाधनों की उपलब्धता उस राज्य के आर्थिक और सामाजिक विकास को सीधे प्रभावित करते हैं. एक ओर जहां बहुत बड़े राज्य राजनीतिक शक्ति के क्षेत्र विशेष में केंद्रीकरण और प्रशासनिक अकुशलता के कारण उपलब्ध संसाधन और पूंजी के क्षेत्रवार असंतुलित बंटवारे को बढ़ावा देते हैं, जो राज्य में असमान आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ाता है.
वहीं दूसरी ओर बहुत छोटे राज्यों के पास पूंजी और संसाधनों की कमी होती है, जो विकास की संभावनाओं को सीमित करती है और उन राज्यों की निर्भरता अन्य राज्यों पर बनी रहती है. इसलिए किसी भी राज्य के लिए जरूरी है कि उसके पास पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन, क्षेत्रफल, जनसंख्या और पूंजी हो, जो राज्य को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर तथा राजनीतिक तौर पर सशक्त बना सके. साथ ही ऐसे राज्यों में आर्थिक योजनाओं को लागू करना और उनका निष्पादन करना सहज होता है, जो आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के साथ-साथ भविष्य की संभावनाओं को भी बढ़ा देता है.