कांग्रेस को, विषेशकर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह को यह समझने की ज़रूरत है कि इनके एक-एक बयान पर, उनके एक-एक क़दम पर लोगों की निगाह है. लोगों को कोई आशा भाजपा से नहीं है, यह उन्होंने चुनावों में दिखा दिया है पर उनकी आशा कांग्रेस से है, इसका तो इशारा दे ही दिया है. इस इशारे को सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के लिए ज़रूरी है कि वे समझें. उनका समझना तो ज़रूरी है, लेकिन उससे भी ज़रूरी है कि वे लोगों को बताएं कि वे समझ रहे हैं.
सौ दिन का कार्यक्रम सरकार बना रही है और कह रही है कि सौ दिन के बाद वह समीक्षा करेगी कि कितना वह सफल रही, साथ ही इस समीक्षा को वह जनता के सामने प्रेस के द्वारा लाएगी. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. सौ दिन के पहले एजेंडे को जनता के सामने बार-बार रखना चाहिए ताकि जनता उस एजेंडे को समझ सके और देख सके कि वह लागू हो रहा है या नहीं. यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि अब तक जनता के हित के कार्यक्रम काग़ज़ पर बनते थे, काग़ज़ पर ही पूरे हो जाते थे, काग़ज़ पर ही समीक्षा हो जाती थी और काग़ज़ पर ही शाबासी ले ली जाती थी.
कांग्रेस एक नई शुरुआत कर सकती है. सौ दिन के एजेंडे पर अमल करने और निगरानी रखने में जनता को शामिल कर सकती है. इससे वह एक नया माहौल बना सकती है, ताकि जनता उसे अपना पूरा भरोसा देने के बारे में सोच सके.
प्रधानमंत्री ने अपने वित्त मंत्री को एक ख़त लिखा है जिसमें उनसे कहा गया है कि वह ऐसा बजट बनाएं, जो कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार के एजेंडे को पूरा करने में मदद करे. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी हैं, जो राजनीति में मनमोहन सिंह से वरिष्ठ हैं, लेकिन पद में छोटे हैं. क्यों प्रधानमंत्री को ऐसा ख़त लिखना पड़ा और क्यों उसे प्रेस में देना पड़ा? क्या वित्त मंत्री कुछ ऐसा रुख़ अपना रहे थे जो एजेंडे को पूरा करने में रुकावट बन रहा था या फिर इसे प्रचार करने के लिए दिखाया गया था. ऐसी बातें मन में शंका पैदा करती हैं. तीन जुलाई को बजट पेश होने वाला है, और देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री के इस ख़त का वित्त मंत्री पर कितना असर हुआ और बजट का कितना हिस्सा कमज़ोर वर्गों के लिए आरक्षित किया गया है. बजट कई बातें और साबित करेगा.
राष्ट्रपति ने अपने अभिभाषण में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का जिक्र किया है. देखना होगा कि यह बजट इस घोषणा को पूरा करने के लिए पैसा भी देता है या नहीं. इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री ने दो हज़ार छह में एक मशहूर बयान दिया था जिसका देश के लोगों ने खुले दिल से स्वागत किया था. यह बयान था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़  ग़रीब, कमज़ोर और अल्पसंख्यक वर्ग का है. अब सरकार पूरी तरह मनमोहन सिंह के नियंत्रण की सरकार है, इसलिए आशा करनी चाहिए कि इस घोषणा को पूरा करने वाला यह बजट होगा.
जब आशाएं जगती हैं तो वे एक ख़तरा भी पैदा करती हैं. ख़तरा होता है कि वे लोग जो आशान्वित होते हैं वे क़दमों को कसौटी पर जल्दी-जल्दी कसने लगते हैं. फैसले भी जल्दी-जल्दी लेने लगते हैं. कांग्रेस के लिए यह स्थिति ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि उसे आने वाले कई सालों तक विधानसभा चुनावों का सामना करना है. इसी साल महाराष्ट्र और अगले साल बिहार, झारखंड और हरियाणा, फिर साल बाद उत्तर प्रदेश. बीच में बंगाल का चुनाव. इस सारे चुनावों में कांग्रेस को कितना समर्थन मिलेगा, यह इस पर निर्भर करता है कि वह केंद्र की सरकार कैसे चलाती है और उसका ़फायदा कितना जनता को मिलता है. कांग्रेस के लिए सब कुछ आसान नहीं है. राष्ट्रपति ने सौ दिन के भीतर महिला आरक्षण विधेयक लाने की घोषणा की है. इसका मतलब बजट सेशन में यह बिल आएगा. बिल पास भी हो जाएगा. लेकिन शरद यादव व मुलायम सिंह यादव ने उसका विरोध सदन और बाहर करने की घोषणा कर दी है. इस घोषणा के साथ उन्होंने एक सवाल खड़ा किया है कि वे महिलाएं कभी चुन कर नहीं आ पाएंगी जो पिछड़े और कमज़ोर वर्गों की हैं. वे चाहते हैं कि महिला आरक्षण में पिछड़े वर्ग की महिलाओं को अलग से आरक्षण मिले.
क्या यह मांग संपूर्ण रिज़र्वेशन नीति पर लागू करने का सिद्धांत बन सकती है? जैसे सत्ताईस प्रतिशत सरकारी नौकरियां पिछड़ों के लिए आरक्षित हैं, उसे भी और कारगर बनाने के लिए पिछड़ों की कमज़ोर जातियों को  उप आरक्षण का प्रावधान कर दिया जाए. फिर मुस्लिम महिलाओं का क्या होगा?  मुसलमान कमज़ोर वर्गों की श्रेणी में आते हैं और उनके पास आरक्षण है ही नहीं.
वैसे हमारे देश में महिलाएं पूरे तौर कमज़ोर वर्ग की श्रेणी में ही आती हैं. इसलिए शुरुआत करनी चाहिए कि वे सत्ता और प्रशासन की मुख्यधारा में आएं. पर साथ ही रिज़र्वेशन की संपूर्ण नीति पर भी बहस होनी चाहिए कि इसमें कौन से संशोधन हों, जिससे समाज के सभी कमज़ोर, वंचित और पिछड़े वर्ग को ज़्यादा से ज़्यादा सामाजिक, प्रशासनिक और राजनैतिक हिस्सेदारी मिल सके.
ऐसी कई चुनौतियां हैं जो मनमोहन सिंह सरकार के सामने आने वाले दिनों में आएंगी. जनता यही देखना चाहेगी कि इनका सामना करने के लिए उठने वाले क़दम जनता की आशाओं को पूरा करने की ओर जाते हैं, या इसे और निराश करते हैं. जनता को निराशा न मिले, इसकी आशा कम से कम अभी तो करनी चाहिए.

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