सब कुछ ग्लोबल हो रहा है । इक्कीसवीं सदी के नये युग में पत्रकारों की समझ और दिमाग भी धरती की तेजी से घूमते हुए अस्थिर हो रहे हैं । तो वैसे ही उनके आकलन भी । अपने चुनावों में तो हमने देखा ही । पाकिस्तान के ताजा संकट और रूस यूक्रेन के युद्ध में भी हमने बखूबी देखा और देख रहे हैं । एक जमाने में होता था कि पत्रकार ने कहा तो सेंट परसेंट वही होगा । पराड़कर से प्रभाष जोशी तक लंबी परंपरा है पत्रकारों की। ऐसी कि आप कायल हो जाएं । पर आज आप किसी पत्रकार की किसी बात पर रिस्क नहीं ले सकते । फिर भी कभी कभी यह होता है कि कोई पत्रकार आपको ‘तात्कालिक’ रूप से अपने आकलन से प्रभावित कर दे । हर रविवार को संतोष भारतीय के साथ अभय दुबे शो आता है । मंच संतोष जी का और शो अभय दुबे का । बहुत गौर से सुना जाने वाला यह कार्यक्रम कल बहुत दिनों बाद प्रभावित करने वाला था। यों अभय दुबे का आकलन अक्सर प्रभावित करता है पर कभी कभी ज्यादा असरदार होता है । एक शिकायत के साथ बात करें कि वे बोलते हुए वे बहुत आक्रामक से लगते हैं । बहुत ज्यादा लाउड । कल उन्होंने उप्र की अर्थव्यवस्था, देश की अर्थव्यवस्था , वैश्वीकरण का दिखता असर और इन सबके साथ केंद्र और राज्य की सरकारों के छलावों और झूठे सपनों की बात की । अभय दुबे और अनेक पत्रकार , बुद्धिजीवी वैश्वीकरण के दुष्परिणामों की ओर हमेशा इशारा करते रहे हैं । विशेषकर समाजवादी चिंतन धारा के लोग । हमारा आग्रह रहेगा कि एक बार अभय दुबे आलोक जोशी और आशुतोष सरीखे लोगों से वैश्वीकरण पर बहस करें ‌। ये दोनों वैश्वीकरण के दृढ़ समर्थक हैं । यह बहस का बड़ा मुद्दा है कि मनमोहन सिंह ने सही किया या गलत । तब यह भी कहा गया कि मनमोहन सिंह क्योंकि ‘वर्ल्ड बैंक’ में नौकरी करते रहे हैं । इसलिए उन्होंने वही किया जो उन्हें करना था । यह अजीब देश एक ओर जहां मनमोहन सिंह को दुनिया के श्रेष्ठ अर्थशास्त्रियों में से एक कहता है लेकिन वहीं उनकी अर्थ नीतियों पर विवाद भी करता है और प्रश्न चिन्ह भी लगाता है । हम कैसे भूल सकते हैं कि इंडिया और भारत का भेद वैश्वीकरण की ही देन है । वैश्वीकरण के चलते ही देश का गरीब और गरीब हुआ है दूसरी तरफ अमीर और अमीर । अरबपति उद्योपतियों की फौज वैश्वीकरण के बाद की ही देन है । अभय दुबे ने सही कहा कि 2007-8 की मंदी से उबरने के कारण और थे । यह वीडियो अगर ज्यादा तादाद में देखा सुना जाए तो बहुत सी बातें साफ होंगी । पर न जाने क्यों मुझे वैश्वीकरण के समर्थक दो नावों में पैर रखते दिखते हैं । एक ओर गरीबी पर रोना , गरीबों से हमदर्दी और उद्योपतियों को कोसना और दूसरी ओर वैश्वीकरण में सब चंगा ही चंगा देखना । इसीलिए तो हमारा देश अजूबा है । पर मैं मानता हूं कि यदि हम गांधी की नीतियों पर शुरू से चले होते । हमारे नीति निर्धारकों ने गांवों से देश को चलाया होता । ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अपनाया होता । ‘हिंद स्वराज्य’ पुस्तक को कंठस्थ किया होता लोहिया से किशन पटनायक तक को सहेजा होता तो परिदृश्य कुछ अलग ही होता । मत भूलिए कि भारत हर दृष्टि से दुनिया में इकलौता और अलग देश है । जी हां, हर दृष्टि से । पर आज हम पश्चिम के पिछलग्गू हैं। दरअसल गांधीवादी-समाजवाद ही इस देश का मूल विचार है ।
‘कश्मीर फाइल्स’ पर और केजरीवाल की राजनीति पर भी लिखने की इच्छा थी । दो हफ्तों से सोच रहा था । यहां पत्रकारों पर फिर बरसना चाहता हूं । कश्मीर फाइल्स पर आलोक जोशी के कार्यक्रम में अमिताभ श्रीवास्तव ने फिल्म की हिंसा के बारे में ऐसा डराया कि बिना देखे ही मैंने न जाने कितने लोगों को आगे डरा दिया । जब फिल्म देखी तो पत्रकार मूढ़ व्यक्ति लगा । पूरी फिल्म में मैं भीषण हिंसा के दृष्यों के इंतजार में डरा रहा । हिंसा थी पर इससे ज्यादा की हिंसा वाली फिल्में तो आम चल रही हैं । सबसे बड़ा नाम तो ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ का है । राम गोपाल वर्मा की फिल्मों में कम हिंसा होती है क्या । दरअसल ‘कश्मीर फाइल्स’ एक घटिया संपादन, बेतरतीब पटकथा और फूहड़ निर्देशन की औसत फिल्म है । हिंसा के मात्र दो दृश्य खौफनाक हैं ।जब एक महिला को आरी से काटा जाता है और जब आतंकवादी एक एक कर तमाम हिंदुओं के माथे पर गोली मारता है । बाकी उसमें ऐसा कुछ नहीं है ।
अब तो जिस तरह राजनीति से निराशा होने लगी है कुछ उसी तरह सोशल मीडिया के राजनीतिक कार्यक्रमों से भी ऊब हो रही है । आलोक जोशी का कहना है कि राजनीति से अलग कार्यक्रम लोग देखते नहीं । हाल ही में उन्होंने राजस्थान के दौसा में एक लेडी डाक्टर की आत्महत्या पर अच्छा प्रोग्राम किया । उसी संदर्भ में उन्होंने कहा । ठीक बात है लेकिन राजनीतिक कार्यक्रम ही कौन देखता है । आपके कैसे दर्शक और चाहने वाले हैं वह तो शनिवार को आने वाले ‘सवाल-जवाब’ में पूछे गए प्रश्नों से पता चल जाता है । तीन चार दशक पहले के मुकाबले आज के समय में हर चीज में गिरावट आयी है । राजनीति छिछली हुई है तो राजनीतिक पसंद और सोच के लोगों में भी औसत दर्जे की गम्भीरता नहीं दिखाई देती । ‘सत्य हिंदी’ वाले अपने ही कार्यक्रमों के शीर्षक और पैनल में हर रोज दोहराये जाने वाले पैनलिस्टों के चेहरे देख लें। इन्हीं लोगों के भरोसे चल रहा था सब कुछ । अधिकांश (सब नहीं लिख रहा हूं) दोयम दर्जे के लगते हैं । पुरुषोत्तम अग्रवाल से आलोक जोशी की बातचीत में नया क्या था सिवाय एक बात के कि आरएसएस को इससे पहले किसी प्रधानमंत्री के सामने इतना बेबस होते कभी नहीं देखा । इसी तरह आशुतोष की ‘आप’ के संजय कुमार से इतनी घटिया बातचीत कभी नहीं देखी । नीलू व्यास को ‘बेस्ट फीमेल जर्नलिस्ट’ का एवार्ड मिला । अब तो उनके चार बजे की चर्चा में और चमक आएगी ।
हर तरफ निराशा का आलम है । सत्ता की राजनीतिक दौड़ में मोदी शाह इतने आगे निकल चुके हैं कि बरसों बरस तो कोई दूसरा चुनौती नहीं दे सकता । केजरीवाल का जीवट और दमखम आशा दिलाता है । पर उसे भी अभी वक्त है । केजरीवाल की नीयत पर मुझे कभी शक नहीं रहा । बहुत से लोग मेरी इस बात से कतई सहमत नहीं होंगे । पर मेरे विश्वास के कुछ कारण हैं । यह अलग है कि केजरीवाल यू-टर्न लेने वाला, धूर्त आदतों वाला व्यक्ति कुछ भी हो सकता है पर उसका व्यक्तिगत भ्रष्टाचार और नीयत पर कोई उंगली नहीं उठा सकता ।जो उठाए उसे व्यक्तिगत खुन्नस होगी । मेरा मानना है कि मोदी और केजरीवाल के चारित्रिक गुण एक ही हैं पर विज़न दोनों का अलग है ।
आजकल विजय त्रिवेदी अपना नया चैनल ‘न्यूज इंडिया’ 24×7 को स्थापित करने में लगे हैं । इस प्लेटफार्म से वे आरिफ मोहम्मद खान और यशवंत सिन्हा के इंटरव्यू ले चुके हैं । रवीश कुमार लौट आए हैं । बहुत लोग परेशान थे , क्या हो गया । सबकी गाड़ी चल रही है । चलती रहनी चाहिए । पर एक बात है कि इस सरकार को आप इसकी नीतियों और कार्यक्रमों पर कितना भी कोसें कोई फर्क नहीं पड़ता । चमड़ी बहुत मोटी है । पुरुषोत्तम अग्रवाल की कही बात से ज्यादा और बात क्या होगी । रवीश कुमार को सुनते रहिए । मुकेश कुमार के प्रोग्राम देखते रहिए । मैंने तो तय किया है कार्यक्रम के शीर्षक देखता हूं और पैनल में चेहरे देखता हूं । यही बात उन लोगों को भी कहता हूं जो आये दिन मुझसे वक्त का रोना रोते हैं । अब इस रोने के सिवाय और कुछ बचा भी तो नहीं !!

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