हम उन्हें पाषाण युग में पहुंचा देंगे. न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर या ट्विन टावर पर 9 सितंबर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद एक टेलीविज़न रिपोर्टर से बात करते हुए यह एक आम अमेरिकी महिला का कहना था. इसी घटना के तत्काल बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने अमेरिकी अवाम को संबोधित किया. उन्होंने अपने संबोधन मेंभले ही इस्लाम और मुलमानों को इस हमले के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया, लेकिन उनके भाषण में हमारा बनाम उनका, सभ्य बनाम असभ्य का द्वंद या यदि आप हमारे साथ नहीं हैं तो आतंकवादियों के साथ हैं, और सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होते लेकिन सारे आतंकवादी मुसलमान होते हैं जैसे बयानों से किसी को भी किसी प्रकार के संदेह की गुंजाईश नहीं थी कि उनका इशारा किस तरफ था और मुसलमानों के प्रति अमेरिका की जनता की राय क्या थी. इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान और इराक पर अमेरिकी हमला और इन देशों में अमेरिका और उसके इत्तेहादी फौजों के ख़िलाफ तालिबान और अलकायदा से जुड़े संगठनों का प्रतिरोध, फिलस्तीन में हमास और हिजबुल्लाह के विरुद्ध इजरायली फौजी कार्रवाई, अरब क्रांति की वजह से अरब और अफ्रीकी के कई देशों में होने वाली तबाही. कुछ ऐसी घटनाएं थीं जिनका सीधा संबंध मुसलमानों से था. इन सभी घटनाओं में अमेरिकी और यूरोपीय देश प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से शामिल थे. इसलिए इस संघर्ष को सैमुअल हंटिगटन के सभ्यताओं के संघर्ष (क्लैश ऑफ़ सिविलाइज़ेशन्स) के सिद्धांत से भी जोड़ कर देखा गया. बहरहाल, 9/11 को वर्ल्ड ट्रेड टावर पर आतंकी हमले के बाद अमेरिका में और पश्चिमी देशों में मुसलमानों के खिलाफ जिस तरह की हिंसात्मक प्रतिक्रिया की आशंका जताई जा रही थी वैसी प्रतिक्रिया नहीं हुई. यदि कुछ छुटपुट हिंसात्मक घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो कोई बहुत बड़ी वारदात नहीं हुई. अलबता अमेरिका और दुसरे पश्चिमी देशों में यह बहस जरुर छिड़ गई कि वे अपने नागरिकों, खासकर मुसलमानों को कितनी आजादी दें.
चूंकि आज मुस्लिम देशों में हिंसा का और युद्ध जैसा माहौल है. इस हिंसा में इस्लाम का नाम शामिल है कहीं जिहाद के नाम पर तो कहीं इस्लाम की हिफाज़त के नाम पर. हालिया दिनों में पश्चिमी एशिया में इस्लामिक स्टेट ऑफ ईराक एंड सीरिया (आईएसआईएस) और अफ्रीका में बोको हरम की कारगुज़ारिओं की वजह से अमेरिका और दुसरे पश्चिमी देशों में मुस्लिम विरोधी भावना में दिन-ब-दिन बढ़ोत्तरी हो रही है. वैसे तो पश्चिमी देशों में मुसलमानों के ख़िलाफ नकारात्मक भावनाओं का उमड़ना कोई नई और अनोखी बात नहीं है. पश्चिमी देशों में मुस्लिम और इस्लाम विरोध का पुराना इतिहास रहा है. इस्लाम और पश्चिम की यह लड़ाई मनोवैज्ञानिक तरीके साथ-साथ मैदान -ए-जंग में भी लड़ी जाती रही है. जहां एक तरफ पश्चिमी साहित्य दांते की डिवाइन कॉमेडी से लेकर सलमान रुश्दी की सैटेनिक वर्सेज तक इस्लाम और पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद की शान में गुस्ताखियों से भरा हुआ है, वही दूसरी तरफ फिलस्तीन की सलीबी जंग और स्पेन से मुसलमानों को देशनिकाला देने के साथ वर्तमान में मुस्लिम देशों में अमेरिकी और यूरोपी देशों की फौजी करवाई है. लेकिन इस बीच बहुत सारे पाश्चात्य लेखक ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी रचनाओं में इस्लाम और मुसलमानों की सकारात्मक छवि पेश की है और बहुसंस्कृतिवाद र्(multy culturalism) के कई पैरोकार हैं जो मुसलमानों के हितों के लिए हमेशा आवाज़ उठाते रहते हैं.
अमेरिकी पत्रिका दि न्यूज़वीक में हाल ही में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक पश्चिमी एशिया में हो रही हिंसा की वजह से अमेरिकी जनता में अरबों और मुसलमानों की सकारात्मक छवि में लगातार गिरावट आ रही है. यह सर्वे 2010 में अरबों और मुसलमानों के बारे में अमेरिकी जनता की राय जानने के लिए किया गया था. जहां 2010 में अरबों की छवि को 43 फीसद अमेरिकी लोगों ने सकारात्मक करार दिया था. चार साल बाद 2014 में यह घटकर 32 फीसद रह गया है. 2010 में 35 फीसद अमेरिकी लोगों ने मुसलमानों की छवि को सकारात्मक बताया था जो कि 2014 के सर्वे में घटकर सिर्फ 27 फीसद रह गया है. चार देशों में हाल ही में कराए गए दो ओपिनियन पोल के नतीजों के मुताबिक किसी भी देश में आईएसआईएस के लिए 4 फीसद से कम सकारात्मक राय नहीं है. यह बेहद चौंकाने वाली और खतरनाक बात है. इनमें से एक सर्वे के मुताबिक फ्रांस में 16 फीसद लोग आईएसआईएस के लिए सकारात्मक राय रखते हैं, जबकि गज़ा में सिर्फ 13 फीसद लोग आईएसआईएस के समर्थन में राय रखत हैं. वहीं जर्मनी और ब्रिटेन में यह आंकड़ा क्रमशः 2 और 7 फीसद है. ज़ाहिर है यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं क्योंकि आईएसआईएस की हालिया कार्रवाई दुनिया से छिपी नहीं है. उनकी हैवानियत को यू-ट्यूब पर और अन्य सोशल नेटवकिर्ंंग साइट्स के माध्यम से पूरी दुनिया को दिखाया जा रहा है. यूरोपीय देशों खासकर उन देशों के लिए यह बेहद चिंता की बात है जहां मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है. चिंता की वजह यह भी है की इस मुस्लिम आबादी में से कई नौजवान ईराक और सरिया में आईएसआईएस की तरफ से लड़ने जा पहुंचे हैं. यूरोपीय देशों की जनता में से एक बड़े तबके की राय है कि इन घटनाओं की वजह से मुसलमानों के प्रति उनकी राय नकारात्मक होती जा रही है. सरकारें इस मसले को गंभीरता से लेते हुए इसे राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला मान रही हैं. नीदरलैंड ने सब से पहले आईएसआईएस के झंडे को सार्वजानिक स्थानों पर लहराने पर पाबंदी लगा दी है.
इसमें भी किसी को कोई शक नहीं है कि पश्चिम यूरोपीय देशों में अति दक्षिणपंथी (far right) विचारधारा वाली राजनीती जोरों पर है. खास तौर पर नौजवान ऐसी राजनीती से प्रभावित हो रहे हैं. साथ ही इस पर भी किसी को कोई शक नहीं है कि यूरोपीय देशों में रहने वाले मुसलमानों के बीच आईएसआईएस की सकारात्मक छवि की वजह से अति दक्षिणपंथी संगंठनों को भी ज्यादा स्वीकार्यता मिलेगी. यह बात सोशल मीडिया में जारी हो रहे कंटेंट से भी साबित हो जाती है. हाल ही में कराए गए सर्वे के नतीजे भी इसी तरफ इशारा करते हैं. यूरोपीय देशों में असहिष्णुता में हो रही वृद्धि की अभिव्यक्ति केवल मुस्लिम विरोध के रुप में नहीं दिखाई दे ऱही है बल्कि ऐसी भावना वहां रह रहे यहूदियों के लिए भी व्यक्त की जा रही है. चूंकि यूरोपीय देशों में प्रवासी मुसलमानों की संख्या ज्यादा है इसलिए उनके प्रति नकरात्मक प्रतिक्रिया ज्यादा देखने में आ रही है. एक अमेरिकी अख़बार में इस साल मई के महीने में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वाशिंगटन में बसों पर जर्मन तानाशाह हिटलर की तस्वीरों के साथ इस्लाम विरोधी नारों को प्रचारित किया जा रहा है. जाहिर है इस संबंध में शिकायत भी दर्ज कराई गईं. लेकिन वाशिंगटन के यातायात अधिकारियों ने क़ानून का हवाला देकर इस तरह की विज्ञापनों पर रोक लगाने से इंकार कर दिया. ये विज्ञापन ग्लेरस अमेरिकन फ्रीडम डिफेंस इनिशिएटिव की ओर से जारी किए गए हैं. इस संस्था का कहना है कि इन विज्ञापनों का मकसद लोगों को इस्लाम के खतरों से आगाह कराना है. इसी अख़बार में छपी एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस में 30 मुस्लिम परिवारों को धमकी भरे अज्ञात ई-मेल प्राप्त हुए जिनमें इस्लाम विरोधी और नस्लभेदी बातें लिखी थीं. इन लोगों का कहना था कि यह सिलसिला हाल ही में शुरू हुआ है. ज़ाहिर है इन घटनों का सीधे तौर पर पश्चिम एशिया में चल रही गतिविधियों से जोड़ कर देखा जा रहा है.
हाल ही में यूरोप के कुछ देशों में संपन्न हुए चुनावों में अति-दक्षिणवादी पार्टियों की जीत यह साबित करती है कि यहां मुस्लिम विरोध की भावना में पिछले एक दशक में बढ़ोत्तरी हुई है, और इसमें लगातार इज़ाफा हो रहा है. ये संकेत भविष्य के लिए ठीक नहीं हैं. इन पार्टियों की जीत यह भी साबित करती है मुस्लिम विरोधी प्रोपेगेंडा का व्यापक असर हुआ है. फ्रांस में नेशनल फ्रंट के अध्यक्ष ले पेन ने फ्रांसीसी स्कूलों की कैंटीन में मुस्लिम बच्चों के लिए सुअर के मांस का विकल्प मुहैया कराने का विरोध क्या था. उन्होंने इसे बंद करने की पुरजोर मांग की थी. ले पेन को कुल वोट में एक चौथाई वोट मिले. ब्रिटेन में युनाइटेड किंग्डम इंडिपेंडेंट पार्टी ने ब्रिटेन में नई मस्जिदों के निर्माण के ख़िलाफ मुहिम चलाई थी परिणामस्वरूप चुनाव में यह पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. इसे कुल 27.5 फीसद वोट हासिल हुए.
मुस्लिम विरोधी लहर या इस्लामोफोबिया का असर यू-ट्यूब पर प्रकाशित कंटेंट में भी देखा जा सकता है. यह लहर अटलांटिक के दोनों तरफ इंग्लिश डिफेंस लीग और अमेरिकन डिफेंस लीग नेटवर्क द्वारा चलाए जा रहे अभियान का नतीजा है. इन दक्षिणपंथी संगठनों ने अमेरिका और ब्रिटेन के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में उग्र विरोध प्रदर्शन किए और मुसलमानों अमेरिका/इंग्लैंड छोड़ो जैसे नारे लगाए. मीडिया में प्रकाशित खबरों के मुताबिक विरोध प्रदर्शनों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है. इस नेटवर्क ने वो सारे सवाल फिर से खड़े कर दिए हैं जो पश्चिमी देशों में इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ हमेशा से उठाए जाते रहे हैं. उनका मानना है कि इस्लाम एक अखंड धर्म है, इसमें कोई अलग पंथ या धारा नहीं होती हैै. मुसलमान बर्बर और असभ्य लोग हैं, वह हिंसक, आक्रामक और आतंकवाद फैलाने में सहयोग करने वाले लोग हैं. उनके मुताबिक इस्लाम एक आइडियोलॉजी है जिसका इस्तेमाल राजनीतिक और सैन्यलाभ लेने के लिए किया जाता है. उनका यह भी मानना है कि मुसलमान दूसरी संस्कृतियों का आदर नहीं करते. उन्होंने कुरान में संशोधन की भी मांग की है. उनका कहना है कि कुरान की जिन आयतों पर उन्हें आपत्ति है उनके नीचे यह फुटनोट लगा दिया जाए कि कुरान की यह आयत प्रासंगिक नहीं है.
पश्चिम एशिया में होने वाले घटनाक्रम खासतौर पर आईएसआईएस और बोको हरम की कारगुजारियों की वजह से न सिर्फ दक्षिणपंथी विचारधारा को मानने वालों की मुस्लिम विरोधी भावना में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है बल्कि उदारवादी और वामपंथी विचारधारा के लोग भी इस्लाम के सिद्धान्तों और प्रतीकों की खुलकर आलोचना कर रहे हैं. आईएसआईएस द्वारा अमेरिकी पत्रकार जेम्स फ़ोएली की निर्मम हत्या, जिससे कथित तौर पर एक ब्रिटिश नागरिक द्वारा अंजाम देते हुए दिखाया गया, ने मुस्लिम विरोध(इस्लामोफोबिया) की भावना को भड़काने में आग में घी का काम किया है. इस्लामोफोबिया इसलिए भी बढ़ रहा है क्योंकि आईएसआईएस की हैवानी मुहिम में बहुत से ऐसे नौजवान शामिल है जिनकी परवरिश पश्चिमी देशों में हुई है. वो लोग इस लड़ाई में सिर्फ इसलिए कूद पड़े हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि यह जिहाद है इसमें हर मुसलमान को हिस्सा लेना चाहिए.
हालांकि, पश्चिमी देशों में मुस्लिम विरोध(इस्लामोफोबिया) की ताज़ा लहर को सिर्फ अरब और मुस्लिम देशों में हो रहे घटना क्रम से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि अगर ऐसा होता तो सिक्खों की लगातार अपील के बावजूद की वे मुस्लमान नहीं हैं उनपर अक्सर हो रहे हमले रुक जाते. इसके साथ-साथ यूरोप में यहूदी विरोधी लहर पैदा नहीं होती. बहरहाल दुनियाभर के मुसलमानों के लिए आम तौर पर और अमेरिका और यूरोपीय देशों के मुसलमानों के लिए खास तौर पर यह चिंता का विषय है कि उनसे कहां चूक हो रही है कि उदारवादी और वामपंथी विचाधारा के लोग भी धीरे-धीरे उनके मुखालिफ होते जा रहे हैं. उन्हें इस संबंध में गंभीरता से विचार करना चाहिए और दूसरे धर्म और संप्रदाय के लोगों के साथ संवाद स्थापित करना चाहिए.
पश्चिमी देशों में क्यों बढ़ रही है मुस्लिम विरोधी भावना
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