रतन टाटा इस देश की एक जानी-मानी हस्ती हैं. इनके और इन जैसे लोगों के बयान से देश की अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर यानी सेंसेक्स का पारा ऊपर-नीचे होने लगता है. यही रतन टाटा तीन साल पहले मनमोहन सिंह सरकार को एक पत्र भेजते हैं. इस सुझाव के साथ कि भोपाल गैस कांड से प्रभावित स्थल की सा़फ-स़फाई के लिए 100 करो़ड रुपये का एक फंड या ट्रस्ट बनाया जाए. सुझाव के मुताबिक़, टाटा कंपनी और अन्य भारतीय उद्योगपति मिलजुल कर ऐसा एक ट्रस्ट तैयार कर सकते हैं. तीन साल बीत गए, लेकिन रतन टाटा के इस प्रस्ताव का अब तक कोई
अता-पता नहीं है. ज़ाहिर है, सरकार के इस रवैये से भोपाल गैस पीड़ितों को लेकर हमारे देश के प्रधानमंत्री और समूची शासन प्रणाली की उदासीनता एवं संवेदनहीनता का ही पता चलता है. दरअसल, इस पूरे मसले को समझने के लिए अतीत में जाना पड़ेगा. दिसंबर 1984 की उस काली रात को याद कीजिए, जब यूनियन कार्बाइड कारखाने से निकली मिथाइल आइसो साइनाइड गैस (मीक गैस) ने रातों-रात भोपाल शहर को श्मशान में बदल डाला था. 25 वर्षों बाद भी उस त्रासदी से मिले ज़ख्म भरे नहीं हैं. आज भी इस शहर के कई हिस्सों का पानी पीने के लायक़ नहीं है. कारखाने के कचरे से रिस-रिसकर ज़हरीला रसायन भू-जल में मिल रहा है. लोग असाध्य बीमारियों से ग्रसित हैं. कारखाने में फैले रासायनिक और ज़हरीले कचरे की अब तक स़फाई नहीं की जा सकी है. इस बीच पहले एवरेडी और फिर अमेरिकी कंपनी डाओ केमिकल ने यूनियन कार्बाइड को खरीद लिया, लेकिन इनमें से कोई भी यहां अपना काम शुरू नहीं कर सका. वजह, एक ओर जहां गैस पीड़ित अपने लिए मुआवज़े की मांग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर भारत सरकार का रसायन एवं पेट्रो केमिकल मंत्रालय 2005 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय पहुंच गया. मंत्रालय ने अदालत से अनुरोध किया कि डाओ को 100 करोड़ रुपये जमा कराने का आदेश दिया जाए, ताकि गैस प्रभावित स्थल की स़फाई में उसका इस्तेमाल किया जा सके. लेकिन डाओ का कहना है कि वह उस दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार नहीं है, इसलिए पैसा जमा करने का सवाल ही नहीं उठता. इस पूरी कहानी के दो पहलू हैं. पहला यह कि डाओ किसी भी क़ीमत पर 100 करोड़ रुपये जमा करने के लिए तैयार नहीं है. वहीं दूसरी ओर रतन टाटा के साइट रेमेडिएशन फंड बनाने के प्रस्ताव पर सरकार की तऱफ से कोई पहल नहीं हुई. हालांकि तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम और वाणिज्य मंत्री कमलनाथ टाटा के इस सुझाव से सहमत थे. प्रधानमंत्री को दी गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने यह कहा था कि इस सुझाव पर विचार किया जाना चाहिए. यह एक अलग बात है कि टाटा ने यह पत्र तब लिखा, जब डाओ द्वारा100 करोड़  रुपये देने का मामला अदालत में विचाराधीन है. अदालत में यह तय होना बाक़ी है कि पैसा देने के लिए डाओ बाध्य है अथवा नहीं.  यह सवाल भी उठा कि आ़खिर रतन टाटा के प्रस्ताव के पीछे कहीं डाओ को 100 करोड़ रुपये जमा कराने की जवाबदेही से मुक्त कर देने की मंशा तो नहीं थी. ग़ौरतलब है कि रतन टाटा इंडो-यूएस सीईओ फोरम के को-चेयरमैन हैं. इससे अलग चौथी दुनिया के पास उपलब्ध दस्तावेज़ के मुताबिक़, भारत की सबसे बड़ी पेट्रो केमिकल कंपनी के मालिक मुकेश अंबानी और डाओ के बीच पेट्रो केमिकल क्षेत्र में तकनीकी सहयोग से जुड़ा एक समझौता भी हो चुका है, लेकिन 100 करोड़ रुपये का मामला डाओ की भारत यात्रा में रुकावट बना हुआ है.
इस मामले में सबसे ज़्यादा पिस रहे हैं गैस पीड़ित लोग. उनके लिए यह सवाल महत्वपूर्ण नहीं है कि 100 करोड़ रुपये कौन देगा. यह रक़म चाहे सरकार दे, टाटा दें या डाओ. लेकिन यदि इस रक़म से सा़फ-स़फाई का काम हो जाता तो यह राहत देने वाली बात होती. सरकार की असंवेदनशीलता का एक नमूना तब देखने को मिला, जब केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश भोपाल यात्रा पर आए. वह यूनियन कार्बाइड परिसर में फैले कचरे को अपने हाथ से छूकर मीडिया को दिखा रहे थे. शायद वह कहना चाहते थे कि यहां के लोग झूठ बोलते हैं कि यह कचरा खतरनाक है. लो मैंने इसे छू लिया, मुझे तो कुछ नहीं हुआ.

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