राजद, जदयू और कांग्रेस के बीच बने महा-गठबंधन में इन दिनों पर्दे के पीछे से नेताओं ने एक-दूसरे पर दबाव बनाने वाले बयानों के तीरों की बौछार कर रखी है. इन तीरों का एकमात्र मकसद बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में अपने दल के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करना है. लेकिन दुर्भाग्य है कि इन तीरों की चपेट में कभी-कभी सूबे के मुखिया जीतन राम मांझी भी आ जाते हैं. ग़ौरतलब है कि नरेंद्र मोदी का राज्यों का विजय अभियान जिस तरह से आगे बढ़ रहा है, उससे विपक्षी खेमे में खलबली मची हुई है. इसलिए न चाहते हुए भी गठबंधन बनाए रखना नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की मजबूरी हो गई है. दोनों ही नेता यह महसूस कर चुके हैं कि अगर अलग होकर नरेंद्र मोदी के सामने गए, तो परेशानी होनी तय है. दोनों नेता यह भी समझ रहे हैं कि महा-गठबंधन बनाए रखना बहुत ही दुष्कर कार्य है, क्योंकि सीटों के बंटवारे में बहुत सारे पेंच ऐसे हैं, जिन्हें सुलझा पाना बहुत मुश्किल है.
ग़ौरतलब है कि राज्य विधानसभा की 243 सीटों में 70 सीटें ऐसी हैं, जिन पर जदयू ने राजद प्रत्याशी को सीधे मुकाबले में हराया है. इन सीटों का बंटवारा कैसे और किस अनुपात में होगा, यह गणित दोनों दलों के नेताओं को समझ में नहीं आ रहा है. उधर रघुवंश बाबू ने यह कहकर महा-गठबंधन का पेंच और उलझा दिया कि सीटों के बंटवारे का आधार लोकसभा चुनाव में मिले वोटों को बनाया जाएगा. मतलब यह कि जिन सीटों पर राजद ने ज़्यादा वोट पाए हैं, उन पर वह अपना दावा पेश करेगा. उन्होंने यह भी कहा कि अब पहले वाली बात नहीं है और सूबे के राजनीतिक हालात काफी बदल गए हैं, इसलिए राजद ही बड़े भाई की भूमिका में रहेगा. जाहिर है, इन बातों का जदयू में विरोध होना था और हुआ भी. प्रदेश अध्यक्ष ने मीडिया में कहा कि अभी इन बातों का समय नहीं आया है, इसलिए यह प्रसंग ही बेमानी है.
शरद यादव को भी यह बात समझाने की कोशिश हो रही है कि हालात अगर यही बने रहे, तो फिर पार्टी के लिए मुश्किल होगी. हाल में शरद यादव के पटना दौरे को इसी संदर्भ में देखना उचित होगा. लेकिन, अब सवाल उठता है कि महादलित समाज के मुख्यमंत्री को हटाने का कितना ख़तरा पार्टी उठाने के लिए तैयार है.
जानकार बताते हैं कि जदयू ने लालू प्रसाद से ऐसी बातें तत्काल रोकने के लिए कहा. उन्हें बताया गया कि इस तरह की बेमौसम बयानबाजी महा-गठबंधन की सेहत के लिए अच्छी नहीं है. मंत्री वृशिण पटेल कहते हैं कि गठबंधन तो शीशे का महल होता है. अगर एक भी पत्थर लग गया, तो महल गिर जाएगा. इसलिए बहुत संभल-संभल कर चलने और बोलने की ज़रूरत है. जदयू की तरफ़ से बनाए गए दबाव का असर भी हुआ और राजद ने अपनी छह नवंबर वाली बैठक को महज औपचारिक और ग़ैर-राजनीतिक बताया. जबकि पहले तय था कि इस बैठक में राजद के दस बड़े नेता लालू प्रसाद के साथ दिल्ली में महा-गठबंधन के भविष्य पर गंभीर चिंतन करेंगे. इसमें झारखंड में महा-गठबंधन जारी रखने पर भी विचार होना था, लेकिन इस बैठक को स़िर्फ रस्मी बना दिया गया. अगले ही दिन लालू प्रसाद को एक बयान जारी करना पड़ा कि महा-गठबंधन पर बयान देने के लिए सभी नेता अधिकृत नहीं हैं और हर हाल में महा-गठबंधन जारी रखना है. नेता कौन होगा और कितनी सीटें किस पार्टी को मिलेंगी, ये सब महत्वहीन बातें हैं. सबसे ज़्यादा महत्व इस बात का है कि सांप्रदायिक ताकतों को परास्त करना है और ग़ैर भाजपाई वोटों का विभाजन नहीं होने देना है.
लालू प्रसाद के इस बयान के बाद उम्मीद की जा रही है कि फिलहाल कुछ दिनों तक बयानबाजी का दौर बंद रहेगा. लेकिन यह स्थायी तौर पर बंद रहेगा, इसकी गारंटी कोई लेने के लिए तैयार नहीं है. एक-दूसरे पर दबाव बनाने के लिए फिर बयान दिए जाएंगे और उसके बाद फिर शीर्ष स्तर पर खंडन आ जाएगा. जानकार बताते हैं कि राजद ने मोटे तौर पर तय कर लिया है कि वह 140 से कम सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेगा. यह ऐसी संख्या है, जो जदयू को मान्य नहीं हो सकती. जदयू की अभी सूबे में सरकार है, इसलिए वह किसी भी क़ीमत पर अपनी छोटी भूमिका स्वीकार करने की ग़लती नहीं कर सकता. ऐसे में महा-गठबंधन बनाए रखने के पक्षधर नेताओं की राय है कि जदयू और राजद के बीच बराबर-बराबर सीटों का बंटवारा हो और शेष सीटें कांग्रेस को दे दी जाएं. एक फॉर्मूला यह बनाया जा रहा है कि 110-110 सीटों पर राजद और जदयू के प्रत्याशी चुनावी अखाड़े में उतरें और बाकी 23 सीटें कांग्रेस को दे दी जाएं. लेकिन, राजद और कांग्रेस खेमेे में इस फॉर्मूले को लेकर कोई उत्साह नहीं है. दोनों ही दल इसे अव्यवहारिक बता रहे हैं.
कांग्रेस इस चुनाव में अपनी ठीकठाक भूमिका चाहती है. उसे 50 से कम सीटें देने पर बात बनने वाली नहीं है. राजद 140 से नीचे आने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में महा-गठबंधन बनाए रखने में सबसे सहायक नरेंद्र मोदी हो सकते हैं, जिनका डर दिखाकर यह महा-गठबंधन ज़िंदा रखा जा सकता है. उधर जीतन राम मांझी को लेकर भी जदयू के भीतर खींचतान जारी है. नीतीश और जीतन राम के बीच सही तालमेल नहीं है, यह चर्चा अब आम है, लेकिन इसमें एक नई बात यह हुई कि नीतीश कुमार के भरोसे के कई नेता अब पर्दे के पीछे से जीतन राम को हटाने और नीतीश कुमार को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने के अभियान में लग गए हैं. जीतन राम के कार्यकलाप पर नीतीश कुमार और उनके साथी अब चर्चा करना ज़्यादा पसंद नहीं कर रहे हैं. नीतीश के रणनीतिकारों का मानना है कि जीतन राम के बयानों और कार्यशैली से सरकार की छवि प्रभावित हुई है. उस प्रभावित छवि के साथ जनता के बीच चुनाव में जाने से जदयू को भारी ऩुकसान हो सकता है.
शरद यादव को भी यह बात समझाने की कोशिश हो रही है कि हालात अगर यही बने रहे, तो फिर पार्टी के लिए मुश्किल होगी. हाल में शरद यादव के पटना दौरे को इसी संदर्भ में देखना उचित होगा. लेकिन, अब सवाल उठता है कि महादलित समाज के मुख्यमंत्री को हटाने का कितना ख़तरा पार्टी उठाने के लिए तैयार है. जीतन राम भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं. वह अपने हिसाब से शासन चला रहे हैं. महादलितों को एकजुट करने का अभियान जारी है. वह बार-बार जोर दे रहे हैं कि अगर महादलित एकजुट हो जाएं, तो बिहार का अगला मुख्यमंत्री फिर इसी समाज से हो सकता है. जीतन राम की इन बातों से जदयू खेमे में बेचैनी है. नीतीश समर्थकों को न निगलते बन रहा है और न उगलते. जीतन राम मस्त हैं, क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं है. जो भी ख़तरा उठाना है, वह नीतीश कुमार और उनके खेेेेमे को उठाना है. देखना दिलचस्प होगा कि आख़िर नीतीश कुमार इन चुनौतियों से कैसे पार पाते हैं.