सुरक्षा कवच क़ानून में है और हमारे यहां जो क़ानून है वह बहुत हद तक दूसरे देशों से अलग नहीं है. हमारा क़ानून इस मसले पर ज़ोर देता है कि घटना होने के बाद उचित सुरक्षा और मौत होने पर मज़दूर के परिवार को उचित मुआवज़ा देना चाहिए. वैसी इकाई, जहां 100 से अधिक कामगार काम करते हैं-को नियम के अनुसार इकाई बंद करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी चाहिए. यही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां इंडस्ट्री (प्राइवेट सेक्टर) बदलाव चाहती है. वास्तव में इसके बारे में सरकार ने बहुत सोचा कि क्या करना चाहिए? समस्या यह है कि बहुत सी कंपनियां अनुबंध पर श्रमिकों को लेते समय इस प्रावधान से कतराती हैं.
पिछले तीन वर्षों से श्रम मंत्रालय एक मई को दो उत्सव मना रहा है. उत्सव मनाने के दो कारण भी हैं. पहला अंतरराष्ट्रीय श्रम दिवस, तो दूसरा बहुआयामी प्रतिभा की धनी श्रम मंत्रालय की सचिव सुधा पिल्लई का जन्मदिन. वह केरल काडर के 1972 बैच की आईएएस अधिकारी हैं. अगर यह महज़ एक संयोग था, तो एक और संयोग उनका इंतज़ार कर रहा है.
महज़ एक महीना पहले सुधा पिल्लई और उनके पति जी. के. पिल्लई (अब गृह सचिव हैं), अगले कैबिनेट सचिव बनने के प्रबल दावेदार थे, जब के. एम. चंद्रशेखर का कार्यकाल 13 जून को पूरा हो गया था. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि चंद्रशेखर के कार्यकाल का विस्तार किया गया और इस तरह से अटकलों पर विराम लग गया. सुधा पिल्लई का बचपन और किशोरावस्था शिमला और चंडीगढ़ में गुज़रा. उनके पिता प्रशासनिक अधिकारी थे और मां शिक्षिका थीं. उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में प्रतिष्ठा की उपाधि चंडीगढ़ के गवर्नमेंट कॉलेज फॉर वुमन (अब गवर्नमेंट कॉलेज फॉर गर्ल्स ) से ली. अंग्रेजी के साथ दो सहायक विषय मनोविज्ञान और समाजशास्त्र थे. 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया. उनको एमए (मनोविज्ञान) में भी स्वर्ण पदक से नवाजा गया. सुधा को अपने कॉलेज में पढ़ाने का मौक़ा भी मिला, लेकिन उनकी इच्छा प्रशासनिक सेवा में जाने की थी. 21 वर्ष में उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में दूसरा स्थान प्राप्त किया. पसंदीदा सेवा के तौर पर सुधा ने भारतीय विदेश सेवा को चुना. पति जी.के. पिल्लई उनके बैचमेट भी थे. उनसे सुधा की पहली मुलाक़ात मसूरी के नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (जिसे अब लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन कहा जाता है) में हुई थी. उसके बाद दोनों इतने मज़बूत बंधन में बंधे, जो अभी तक स्थिर और तरोताज़ा है. एक ही पेशे में होने के कारण दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ गए. सुधा बताती हैं कि, गोपाल नियुक्ति और कामकाज से दूर भी रहते थे, तब भी वह उनको समझ सकती थीं. नौकरी में आने के बाद जो दबाव बनता है उससे वह भलीभांति परिचित थीं. शुरुआती दौर की एक मज़ेदार घटना बताते हुए सुधा कहती हैं कि जब दोनों की नियुक्ति अलग-अलग जगहों पर हुई थी, उस व़क्त सुधा अपने पति से मिलने केरल के क्वीलन गई थीं, जहां उनके पति की नियुक्ति हुई थी. उस व़क्त जीके पिल्लई के पास सुधा को फिल्म दिखाने तक के लिए पैसे नहीं थे. तब उन्होंने पुराने अख़बार बेचकर सुधा को जूली फिल्म दिखाई. जब हमने उनसे यह सवाल पूछा कि मैडम, आपने उनके साथ हाल में कौन सी फिल्म देखी है तो उन्होंने जवाब दिया कि अभी पिछले हफ्ते शाकुंतलम में देखी.
काम में कुशल और सिद्धांतवादी सुधा पिल्लई को मेहनती महिला के तौर पर भी जाना जाता है. वह बताती हैं, शुरुआत से ही कार्यालय से निकलने के बाद काम की बातें दफ्तर में ही छोड़ देती हूं. फाइलों को कभी रोका नहीं और कार्यालय का काम भी कभी घर पर नहीं किया. पांच दिन कार्यालय में काफी काम करती हूं और शेष दो दिन रचनात्मक और अन्य काम करना मेरी आदत में शुमार है. करियर के शुरुआती दिनों में सुधा पिल्लई श्रम और रोजगार मंत्रालय में सचिव के पद पर नियुक्त होने से पहले कई वाणिज्य, खनन, वित्त, पंचायती राज, ग्रामीण विकास और गृह जैसे मंत्रालयों में सेवा दे चुकी हैं. श्रम मंत्रालय से योजना आयोग में सचिव के पद पर उनकी नियुक्ति अब लगभग होने ही वाली है. उन से श्रम क्षेत्र से जुड़े विभिन्न मसलों पर अंजुम ए. ज़ैदी और एस रिज़वी ने बात की.
श्रम मंत्रालय में आप कुछ दिन और रहेंगी. कुल मिलाकर कैसा अनुभव रहा?
हां, मैं श्रम मंत्रालय में कुछ दिन और रहूंगी. मैंने सोचा था कि मैं तीन अगस्त 2009 को अपना मंत्रालय बदल लूंगी, लेकिन देर हो गई. इस मंत्रालय में कार्यकाल काफी व्यस्त रहा. इस दौरान हमने बहुतेरे मुद्दों पर काम किया. इनमें से कुछ विचारधीन हैं, कुछ को चुनाव और नई सरकार के गठन के चलते मंज़ूरी नहीं मिली. बहुत से बिल अभी रुके पड़े हैं, जिनमें संशोधन की ज़रूरत है. हम कई क्षेत्रों पर काम कर रहे हैं:- जैसे माइंस एक्ट, फैक्टरी एक्ट, ग्रैच्यूटी एक्ट, वुमन कंपनसेशन लॉ, इंप्लॉयर प्रोविडेंट फंड लॉ और ईएसआईसी लॉ वग़ैरह. वैसे तो तीन विधेयकों को कैबिनेट ने स्वीकृति दे दी है, पर वे संसद में पेश नहीं हुए हैं. बाक़ी बचे विधेयकों की प्रक्रिया पीसी चतुर्वेदी पूरी करेंगे.
मैडम, यह एक बड़ी कामयाबी है. आप इसे किस नज़रिए से देखती हैं?
मूलत: यह सभी देशों का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके कामगार तंदुरुस्त, सुरक्षित और प्रशिक्षित हों. ये सभी हितकारी क़दम हमने श्रम मंत्रालय में उठाए. इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि हमारे कामगार अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों. इसलिए उन्हें सुरक्षा मुहैया कराना आवश्यक है. उन्हें यह चिंता करने कि ज़रूरत नहीं है कि अगर वे बीमार पड़ गए तो उनका क्या होगा? हमारे देश में कामगारों की जो मूलभूत समस्या है, वह यह कि वे अशिक्षित हैं. इसके बाद या तो वे कुशल कामगार नहीं हैं या फिर उन्हें ठीक से प्रशिक्षित नहीं किया गया है. जिसके चलते कई घटनाएं घटती रहती हैं. ये सभी एक-दूसरे से जुड़े मसले हैं और इसलिए संबंधित मंत्रालय यह सुनिश्चित करे कि कामगारों के हित सुरक्षित रहें.
निजी क्षेत्र में कामगारों के शोषण की बात अक्सर की जाती है. मंदी के दौर में आपने कौन से एहतियाती क़दम उठाए?
सुरक्षा कवच क़ानून में है और हमारे यहां जो क़ानून है वह बहुत हद तक दूसरे देशों से अलग नहीं है. हमारा क़ानून इस मसले पर ज़ोर देता है कि घटना होने के बाद उचित सुरक्षा और मौत होने पर मज़दूर के परिवार को उचित मुआवज़ा देना चाहिए. वैसी इकाई, जहां 100 से अधिक कामगार काम करते हैं-को नियम के अनुसार इकाई बंद करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी चाहिए. यही एक ऐसा क्षेत्र है, जहां इंडस्ट्री (प्राइवेट सेक्टर) बदलाव चाहती है. वास्तव में इसके बारे में सरकार ने बहुत सोचा कि क्या करना चाहिए? समस्या यह है कि बहुत सी कंपनियां अनुबंध पर श्रमिकों को लेते समय इस प्रावधान से कतराती हैं. जब इस मंत्रालय में मैं आई, तब मुझे यह समस्या विरासत में मिली. इसलिए अनुबंधित श्रम नियम में कामगारों को उचित मुआवज़ा देने और सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए अहम मुद्दे हैं. वास्तव में अनुबंधित श्रम हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और हम अनुबंधित श्रम के नियम को बदलने के लिए बातचीत कर रहे हैं. हम इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं. इस संबंध में कुछ बैठकें भी हुई हैं. फरवरी 2009 में हुए भारतीय श्रम सम्मेलन के बाद इसकी देखरेख के लिए एक टास्क फोर्स गठित किया गया. यह वार्षिक आयोजन है, जिसे श्रम मामलों की संसद के तौर पर भी देखा जा सकता है. इसकी अहम विशेषता यह है कि इसमें श्रमिकों की राय भी
ली जाती है. इस तरह की व्यवस्था किसी अन्य मंत्रालय में नहीं है.
निजी क्षेत्र में श्रम सुधार के लिए किस तरह की मांगें हैं?
पहली बात तो यह कि वास्तव में निजी क्षेत्र औद्योगिक विवाद क़ानून के अध्याय पांच से कुछ अलग करना चाहता है. दूसरी, यह कि वे फैक्ट्रीज लॉ में कुछ बदलाव चाहते हैं. यह श्रमिकों के अधिक घंटे तक काम करने से संबंधित है. वे साप्ताहिक आधार पर काम की अवधि को 60 घंटे तक विस्तारित करना चाहते हैं. आर्थिक सर्वेक्षणों में भी यह बात उभर कर सामने आई है. लेकिन यह मांग सामान्य होने के बजाय काफी जटिल है. इसलिए वर्तमान में जो नियम है, उसमें हम बदलाव कर रहे हैं. जहां हम काम की अवधि के साथ ही ओवर टाइम का भी भुगतान करने की मंजूरी देने जा रहे हैं. लेकिन समस्या यह है कि हम काम करने की अवधि सप्ताह में 60 घंटे से अधिक बढ़ा नहीं सकते.
स्थायी रोज़गार के बारे में आपकी क्या राय है?
निर्यात के क्षेत्र में वे तयशुदा अवधि के रोज़गार की सोच रहे हैं. इसका मतलब यह हुआ कि एक बार ऑर्डर पूरा हो जाए, तो वह श्रमिकों की छंटनी कर सकें. मज़दूरी की आउटसोर्सिंग तेज़ी से बढ़ रही है और यह सभी क्षेत्रों, यहां तक कि पत्रकारिता में भी फैल गया है. एक मात्र बदलाव यह है कि यहां मज़दूरी ढंग से और समय पर दी जाती है, साथ ही सामाजिक सुरक्षा भी संतोषप्रद ढंग से मुहैया कराई जाती है.
बिना किसी सूचना के आधार पर छंटनी की बात कही जा रही है?
यह काफी जटिल मामला है. इंडस्ट्री स़िर्फ और स़िर्फ हायर एंड फायर पॉलिसी पर बात कर रही है. वास्तव में इस दिशा में ईएसआईसी के वर्तमान डायरेक्टर ने अच्छी शुरुआत की है. जहां हमने इंडस्ट्री को स्वयं प्रमाणित करने की मंज़ूरी दी है. वास्तव में इंस्पेक्टर राज उद्योग जगत को काफी परेशान करता है. अगर इंडस्ट्री अच्छा कर रही है, तब हायर एंड फायर का सवाल ही नहीं उठना चाहिए.
क्या श्रम मंत्रालय ने मंदी, मुख्य रूप से जिस तरह की समस्या का सामना एयरलाइंस ने किया है, से निपटने के लिए कोई योजना बनाई है?
मेरी व्यक्तिगत राय यह है कि अब एयरलाइंस क्या करने जा रहा है, यह पूरी तरह से अच्छी रणनीति पर निर्भर करता है. वास्तव उन्हें यह कुछ महीने पहले ही करना चाहिए था. एयर इंडिया के मामले में, हाल में ही उनके साथ बैठकें हुई हैं. उसमें हम ने कहा है कि नए चेयरमैन काफी कड़े हैं और वह कहानी को बदल कर ही रख देंगे, क्योंकि वह सरकार से पूंजी ला सकेंगे. प्राइवेट सेक्टर के एयरलाइंस की स्थिति अच्छी नहीं है, क्योंकि उन्होंने एयरक्रॉफ्ट ख़रीदने में काफी रक़म ख़र्च कर दी है. बोर्ड सर्विस पर भी वे अधिक ख़र्च करते हैं. इसलिए उन पर मंदी का असर पड़ा. वैसे यह समय मानसून और श्रम पलायन के कारण अनिश्चितताओं से भरा हुआ है. दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि इस अवधि में फल और सब्ज़ियों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं. इतना ही नहीं, उनकी उपलब्धता भी कम हो गई है.
बाल श्रम के बारे में क्या कहेंगी? मंत्रालय इसका सामना कैसे कर रहा है?
मंत्रालय को इस बात पर गर्व है कि वह इस समस्या को न्यायोचित तरीक़े से हल कर रहा है. हमारे एनएलसीपी (नेशनल चाइल्ड लेबर प्रोजेक्ट) ने अच्छा काम किया है. हमने बच्चे को काम करने से बचाया है और उसे स्पेशल स्कूल में भेजा है. वहां उन्हें शिक्षा, वोकेशनल ट्रेनिंग, मिड डे मील, छात्रवृत्ति, हेल्थ केयर की सुविधा और अंत में शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल करने की सुविधा मुहैया कराना है. हमारे पास 9000 स्कूल हैं और 0.45 मिलियन विद्यार्थी हैं. लगभग 48 लाख बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा में जोड़ा गया. ज़मीनी स्तर पर मंत्रालय इस मसले से निपटने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है.
काम की व्यस्तता के बावजूद आप अपनी रुचि के लिए कैसे समय निकालती हैं?
मैं पेंटिंग बनाती हूं और यह मेरी रुचि है. मैं कार्यालय में पांच दिन काफी काम करती हूं और शेष दो दिन व्यक्तिगत जीवन और पेंटिंग पर देती हूं. इस सबके बाद पढ़ना भी मेरी आदत में शुमार है. मुझे फिक्शन काफी पसंद है.
अंत में एक आख़िरी सवाल, क्या आप नई ज़िम्मेदारी के लिए तैयार हैं?
हां, मुझे योजना आयोग में नई ज़िम्मेदारी मिलने वाली है. योजना आयोग का काम बोर्ड आधारित है और वह रेवेन्यू और इंफ्रास्ट्रक्चर पर ज़ोर देता है.