kashmirजम्मू-कश्मीर में प्रमुख क्षेत्रीय राजनीतिक दलों नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और पिपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की तरफ से पंचायत और निकाय चुनाव के बहिष्कार की घोषणा के बावजूद राज्यपाल प्रशासन ने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चुनाव कराने का फैसला किया है. 12 सितंबर को श्रीनगर में राज्यपाल सत्यपाल मलिक की अध्यक्षता में हुई स्टेट एडमिनिस्ट्रेटिव कॉन्सिल की बैठक के बाद राज्य के मुख्य सचिव वीवीआर सुब्रमण्यम ने पत्रकारों को सरकार का फैसला सुनाते हुए कहा कि स्थानीय पंचायती चुनाव निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही होंगे. उल्लेखनीय है कि निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, अर्बन लोकल बॉडीज के चुनाव एक अक्टूबर से पांच अक्टूबर तक चार चरणों में और पंचायती चुनाव आठ नवंबर से चार दिसंबर तक आठ चरणों में आयोजित होंगे. सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो इन चुनावों के नतीजों में 4130 सरपंच, 29719 पंच और 1145 वार्ड कमिश्नर चुने जाएंगे.

लेकिन ये सब इतना आसान नहीं है. राज्य की सबसे बड़ी दो मेन स्ट्रीम पार्टियों यानि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी की शिरकत के बगैर और सुरक्षा के लिहाज से विपरीत परिस्थिति में पंचायत और स्थानीय चुनाव आयोजित कराना केंद्र सरकार और राज्य के राज्यपाल के लिए एक बहुत बड़ा चैलेंज होगा. चुनाव के लिहाज से घाटी में वातावरण किस कदर खराब है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि महबूबा मुफ्ती ने 2017 में मुख्यमंत्री बनने के लिए दक्षिणी कश्मीर की जिस लोकसभा सीट से इस्तीफा दिया था, उसपर सुरक्षा कारणों से अभी तक उपचुनाव नहीं हो पाया है. दूसरी बात यह कि गत वर्ष अप्रैल में जिस दिन श्रीनगर बडगाम लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ, उस दिन पोलिंग के दौरान हिंसा की वारदातों में आठ नौजवानों की हत्या हुई थी और दर्जनों घायल हुए थे, जबकि पोलिंग में हिस्सा लेने वाले वोटरों की दर महज सात फीसदी रही.

उल्लेखनीय है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी ने कहा है कि जबतक केंद्र सरकार संविधान की धारा 35ए, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, के बारे में अपना पक्ष स्पष्ट नहीं करती, तब तक ये दल चुनाव का बहिष्कार करेंगे. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने तो यहां तक कहा कि न सिर्फ पंचायत और निकाय चुनाव बल्कि पार्टी लोकसभा और विधानसभा चुनाव का भी बहिष्कार करेगी. गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में धारा 35ए का बचाव करने से इन्कार किया है, जिसके बाद यह आशंका पैदा हो गई है कि सर्वोच्च न्यायालय इस धारा को संविधान से खत्म करने का भी फैसला सुना सकता है. अगर ऐसा हुआ, तो जम्मू-कश्मीर के लोग नागरिकता से संबंधित विशेष कानून और विशेष अधिकार से वंचित हो जाएंगे.

उसके बाद भारत से जो चाहे जम्मू-कश्मीर की नागरिकता हासिल कर सकता है, इस राज्य में सरकारी नौकरी हासिल कर सकता है और सबसे अहम ये कि दूसरे राज्यों के लोगों को जम्मू-कश्मीर में वोट डालने का अधिकार प्राप्त होगा. ये सारे अधिकार गैर राज्यों के नागरिकों को इतिहास में पहली बार प्राप्त होंगे. जम्मू-कश्मीर खास तौर से घाटी में तमाम सियासी समाजिक और धार्मिक दल इस बात पर सहमत हैं कि अगर 35ए को खत्म किया गया, तो उसके नतीजे में इस राज्य की विशेष स्थिति ही नहीं बल्कि इसकी डेमोग्राफी भी बदल जाएगी. 27 अगस्त की पेशी पर राज्य प्रशासन ने सुप्रीम कोर्ट में केस को जनवरी तक ये कहकर टलवा दिया कि जम्मू-कश्मीर में पंचायत और निकाय चुनाव आयोजित होने जा रहे हैं, जिसके लिए सरकार ने सारी तैयारियां मुकम्मल कर ली है. यानि राज्यपाल प्रशासन को आशंका है कि अगर सुप्रीम कोर्ट 35ए को खत्म कराएगा तो राज्य में हालात खराब हो जाएंगे, जिसके बाद चुनाव कराना मुश्किल हो जाएगा.

विश्लेषकों का कहना है कि राज्यपाल प्रशासन ने इस केस को पंचायत और निकाय चुनावों से जोड़कर कश्मीरियों को अलर्ट कर दिया है. पत्रकार और विश्लेषक सिब्ते मोहम्मद हसन ने इस विषय पर चौथी दुनिया से बात करते हुए कहा कि 35ए से संबंधित केस में जम्मू-कश्मीर का बचाव करने से केंद्र सरकार पहले ही इन्कार कर चुकी है. राज्यपाल प्रशासन ने जम्मू-कश्मीर की जनता के हितों का बचाव करने के बजाय चुनाव के मद्देनजर केस को चंद महिनों तक के लिए टाल दिया. यानि अगर चुनाव नहीं होते, तो राज्यपाल प्रशासन को केस की सुनवाई में कोई हर्ज नहीं था. ऐसी स्थिति में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी के पास चुनाव के बहिष्कार करने के सिवाय कोई रास्ता नहीं था. इसलिए दोनों दलों ने बहिष्कार की घोषणा करते हुए खुद बताया कि वो लोगों के पास वोट मांगने किस मुंह से जाएंगे. चुनाव तो होते रहेंगे, लेकिन 35 ए का बचाव और उसके लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाए रखना बहुत जरूरी है.

हालांकि एक आम धारणा यह भी है कि पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इसलिए चुनाव का बहिष्कार किया, क्योंकि उनके नेतृत्व में जनता के पास और अपने वर्कस के पास जाने की हिम्मत नहीं थी. भाजपा के साथ सरकार बनाने और मानवाधिकार के उल्लंघनों को लेकर पीडीपी के खिलाफ पहले से ही जनता आक्रोश में थी. लेकिन भाजपा द्वारा पीडीपी का अपमान कर उसे सत्ता से बाहर करने के बाद से पार्टी के नेताओं में विश्वास की कमी पैदा हो गई है. दक्षिणी कश्मीर कभी इस पार्टी का गढ़ हुआ करता था और आज हालत यह है कि उसके विधायक अपने क्षेत्रों में कदम रखने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं.

वहीं, ईद के दिन आसार शरीफ हजरत बल में नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रमुख फारूक अब्दुल्ला को जिस आवामी नाराजगी का सामना करना पड़ा, उसे देखकर नहीं लगता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस का नेतृत्व खुलेआम लोगों के पास वोट मांगने जा सकता है. पत्रकार तारिक अली मीर कहते हैं कि पिछले दो वर्षों के दौरान मेन स्ट्रीम पार्टी और नेताओं की जमीन तंग हो चुकी है. खासतौर से पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस का जनाधार बहुत नीचे गिर चुका है. ऐसी स्थिति में जाहिर है कि दोनों पार्टियां जनता को लुभाने और अपनी खोई हुई छवि को ठीक करने की कोशिश करेंगी. यही वजह है कि दोनों पार्टियों ने पंचायत और स्थानीय चुनाव के बहिष्कार की घोषणा की है.

अब जबकि राज्यपाल प्रशासन ने पीडीपी और एनसी के बहिष्कार के बावजूद निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चुनाव कराने का फैसला किया है. ऐसी स्थिति में कानून-व्यवस्था को बनाए रखना और चुनाव में हिस्सा लेने वाले प्रत्याशियों को सुरक्षा देना सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. कांग्रेस ने सुरक्षा कारणों को लेकर इन चुनावों को देर से कराने की मांग की है. पंचायत और निकाय चुनाव के प्रत्याशी सीधे तौर पर मिलिटेंटों का लक्ष्य होंगे. 2011 में जब पंचायत चुनाव हुए थे, उसके बाद से पंचों और सरपंचों पर मिलिटेंटों के दर्जनों हमले हुए थे. 2011 के बाद पंचायतों से संबंधित 16 लोगों की हत्या हुई और 30 लोग घायल हुए.

इन चुनावों का एक पहलू यह भी है कि राज्य में निर्माण और विकास के लिहाज से पंचायत और निकाय चुनाव बेहद अहम हैं, क्योंकि इनके न होने की वजह से राज्य में विभिन्न योजनाओं के फंड नहीं पहुंच पाते. इसकी वजह से बुनियादी सतह पर निर्माण और विकास के कार्य रुके हुए हैं. अगर ये चुनाव निर्धारित समय पर हो जाते हैं, तो फौरी तौर पर केंद्र सरकार की तरफ से 43 सौ करोड़ रुपए दिए जाएंगे, क्योंकि ये राशि चौदहवें फायनेंशियल कमीशन के तहत बाकी है. ये राशि राज्य में सड़क पानी और बिजली जैसी समस्याओं को हल करने पर खर्च होती है. केंद्रीय गृह मंत्री ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि अगर ये चुनाव नहीं हुए, तो इस रकम को जारी करने में कानूनी अड़चनें पैदा हो जाएंगी. साफ जाहिर है कि पंचायत और निकाय चुनाव का संबंध सियासी मामलों से ज्यादा आर्थिक विकास से है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के हालात कुछ इस तरह के हैं कि हर बार सियासत हावी होकर रह जाती है.

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